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शासन व्यवस्था

आपराधिक कानूनों में सुधार

  • 26 Mar 2022
  • 7 min read

प्रिलिम्स के लिये:

भारतीय दंड संहिता जैसे- आपराधिक कानून, दंड प्रक्रिया संहिता और भारतीय साक्ष्य अधिनियम

मेन्स के लिये:

न्यायपालिका, आपराधिक कानूनों में सुधार

चर्चा में क्यों? 

हाल ही में सरकार द्वारा भारतीय दंड संहिता, दंड प्रक्रिया संहिता और भारतीय साक्ष्य अधिनियम जैसे आपराधिक कानूनों में संशोधन की प्रक्रिया शुरू की गई है।

  • इस क्रम में गृह मंत्रालय ने विभिन्न हितधारकों जैसे- राज्यपालों, मुख्यमंत्रियों, भारत के मुख्य न्यायाधीश, विभिन्न उच्च न्यायालयों के मुख्य न्यायाधीशों आदि से सुझाव मांगे हैं।
  • इससे पूर्व 111वीं, 128वीं और 146वीं संसदीय स्थायी समिति की रिपोर्ट ने सिफारिश की थी कि देश की आपराधिक न्याय प्रणाली की व्यापक समीक्षा की आवश्यकता है।

प्रमुख बिंदु 

आपराधिक न्याय प्रणाली की पृष्ठभूमि: 

  • भारत में आपराधिक कानूनों का संहिताकरण (Codification) ब्रिटिश शासन के दौरान किया गया था जो कमोबेश 21वीं सदी में भी उसी तरह ही है।
  • लॉर्ड थॉमस बबिंगटन मैकाले (Lord Thomas Babington Macaulay) को भारत में आपराधिक कानूनों के संहिताकरण का मुख्य वास्तुकार कहा जाता है।
  • भारत में आपराधिक कानून भारतीय दंड संहिता, 1860 (Indian Penal Code, 1860), आपराधिक प्रक्रिया संहिता, 1973 (Code of Criminal Procedure, 1973) और भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 (Indian Evidence Act, 1872) आदि के तहत संचालित होते हैं।
  • आपराधिक कानून को राज्य एवं उसके नागरिकों के बीच संबंधों की सबसे स्पष्ट अभिव्यक्ति माना जाता है।

सुधारों की आवश्यकता: 

  • औपनिवेशिक युग के कानून: आपराधिक न्याय प्रणाली ब्रिटिश औपनिवेशिक न्यायशास्त्र की प्रतिकृति है, जिसे राष्ट्र पर शासन करने और नागरिकों को दबाने के उद्देश्य से बनाया गया था।
  • अप्रभावी: आपराधिक न्याय प्रणाली का उद्देश्य निर्दोषों के अधिकारों की रक्षा करना और दोषियों को दंडित करना था, लेकिन आजकल यह व्यवस्था आम लोगों के उत्पीड़न का एक साधन बन गई है।
  • मामलों की लंबितता: आर्थिक सर्वेक्षण 2018-19 के अनुसार, न्यायिक प्रणाली में लगभग 3.5 करोड़ मामले लंबित हैं, विशेष रूप से ज़िला और अधीनस्थ न्यायालयों में, जो कि ’न्याय में देरी यानी न्याय से वंचित होने’ की कहावत की वास्तविकता को दर्शाता है।
  • विचाराधीन कैदियों की अत्यधिक संख्या: भारत में दुनिया के सबसे अधिक विचाराधीन कैदी मौजूद है।
  • जाँच: भ्रष्टाचार, अत्यधिक कार्यभार और पुलिस की जवाबदेही न्याय के त्वरित और पारदर्शी वितरण में एक बड़ी बाधा है।
  • माधव मेनन समिति: इसने 2007 में अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की जिसमें भारतीय आपराधिक न्याय प्रणाली (CJSI) में सुधारों पर विभिन्न सिफारिशों का सुझाव दिया गया था।
  • मलिमथ समिति की रिपोर्ट: इसने वर्ष 2003 में CJSI को अपनी रिपोर्ट सौंपी।
    • इस समिति ने कहा था कि मौजूदा प्रणाली ‘अभियुक्तों के पक्ष में अधिक झुकी हुई है और इसमें अपराध पीड़ितों के लिये न्याय पर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया गया।
    • इस समिति ने भारत की आपराधिक न्याय प्रणाली (CJSI) में सुधार हेतु विभिन्न सिफारिशें प्रदान की हैं किंतु इन्हें लागू नहीं किया गया था।

सुधार की रूपरेखा क्या होनी चाहिये?

  • पीड़ितों का संरक्षण: पीड़ितों के अधिकारों की पहचान करने के लिये कानूनों में सुधार हेतु ‘पीड़ित होने के कारणों’ पर खासतौर पर ज़ोर दिया जाना चाहिये।
    •  उदाहरण: पीड़ित एवं गवाह संरक्षण योजनाओं का शुभारंभ, अपराध पीड़ित के बयानों का उपयोग, आपराधिक परीक्षणों में पीड़ितों की भागीदारी में वृद्धि, मुआवज़े एवं पुनर्स्थापन हेतु पीड़ितों की पहुँच में वृद्धि।
  • नए अपराधों और अपराधों के मौजूदा वर्गीकरण के पुनर्मूल्यांकन को आपराधिक न्यायशास्त्र के सिद्धांतों द्वारा निर्देशित किया जाना चाहिये जो पिछले चार दशकों में काफी बदल गए हैं। 
    • उदाहरण: ‘डिग्री ऑफ पनिशमेंट’ (Degree of Punishments) हेतु आपराधिक दायित्व को बेहतर तरीके से वर्गीकृत किया जा सकता है। 
    • नए प्रकार के दंड जैसे- सामुदायिक सेवा आदेश, पुनर्स्थापन आदेश तथा पुनर्स्थापना एवं सुधारवादी न्याय के अन्य पहलू भी इसमें शामिल किये जा सकते हैं।
  • आईपीसी और सीआरपीसी को सुव्यवस्थित करना: अपराधों का वर्गीकरण भविष्य में अपराध प्रबंधन के अनुकूल तरीके से किया जाना चाहिये।
    • आईपीसी के कई अध्याय कई जगह अतिभारित हैं।
    • लोक सेवकों के विरुद्ध अपराध, प्राधिकार की अवमानना, सार्वजनिक शांति और अतिचार के अध्यायों को फिर से परिभाषित एवं संकुचित किया जा सकता है।
  • गैर-सैद्धांतिक अपराधीकरण को रोकना: किसी अधिनियम को अपराध के रूप में घोषित करने से पहले पर्याप्त बहस के बाद मार्गदर्शक सिद्धांतों को विकसित करने की आवश्यकता है।
    • गैर-सैद्धांतिक अपराधीकरण न केवल अवैज्ञानिक आधारों पर नए अपराधों के निर्माण की ओर ले जाता है, बल्कि आपराधिक न्याय प्रणाली में मनमानी भी करता है।

स्रोत: द हिंदू

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