भारतीय राजव्यवस्था
भारत में संसदीय प्रणाली का सुदृढ़ीकरण
- 07 May 2025
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प्रिलिम्स के लिये:प्रश्नकाल, स्थायी समितियाँ, संविधान सभा, अनुच्छेद 75, अविश्वास प्रस्ताव मेन्स के लिये:भारत में संसदीय निगरानी, कानूनों के पारित होने के बाद की समीक्षा, भारत का शासन मॉडल |
स्रोत: द हिंदू
चर्चा में क्यों?
भारत के 'अधिकतम शासन' के प्रयास को 'अधिकतम जवाबदेही' के साथ जोड़ा जाना चाहिये, जिसमें कार्यकारी शक्ति की जाँच में संसद की भूमिका को मज़बूत करने की आवश्यकता पर बल दिया गया है।
- हालाँकि, प्रश्नकाल और स्थायी समितियाँ जैसे उपकरण अक्सर कमज़ोर प्रदर्शन करते हैं, जिससे प्रभावी लोकतांत्रिक निगरानी और नीति कार्यान्वयन के लिये सुधार आवश्यक हो जाता है।
संसदीय निगरानी के प्रमुख तंत्र क्या हैं?
- संविधानिक आधार: डॉ. बी.आर. अम्बेडकर ने प्रश्नों, प्रस्तावों और बहसों के माध्यम से दैनिक कार्यकारी जवाबदेही के लिये अंतर्निहित तंत्र के कारण सरकार के संसदीय स्वरूप की वकालत की।
- संविधान सभा ने लोकतांत्रिक ढांचे के भीतर जाँच और संतुलन सुनिश्चित करने वाली प्रणाली तैयार करने के लिए 167 दिनों तक बहस की।
- संसदीय निगरानी के संवैधानिक प्रावधान: अनुच्छेद 75 में कहा गया है कि मंत्रिपरिषद सामूहिक रूप से लोकसभा के प्रति जवाबदेह है, जो वेस्टमिंस्टर प्रणाली से संबंधित लोकतंत्र में कार्यकारी जवाबदेही सुनिश्चित करने पर केंद्रित है।
- अनुच्छेद 108 राष्ट्रपति को विधायी मतभेदों को हल करने के लिये दोनों सदनों की संयुक्त बैठक बुलाने की अनुमति देता है।
- अनुच्छेद 111 राष्ट्रपति को किसी विधेयक (धन विधेयकों को छोड़कर) को मंजूरी देने, रोकने या पुनर्विचार के लिये संसद को वापस भेजने का अधिकार प्रदान करता है। यह शक्ति विधायी कार्यों पर एक नियंत्रण के रूप में कार्य करती है।
- अनुच्छेद 113 यह सुनिश्चित करता है कि सरकार किसी भी प्रकार का व्यय तब तक नहीं कर सकती जब तक कि उसे संसद द्वारा विनियोजन विधेयक के माध्यम से अनुमोदित न किया जाए।
- अनुच्छेद 114 संचित निधि से व्यय की स्वीकृति को नियंत्रित करता है।
- संसदीय निगरानी तंत्र:
- प्रश्न काल: सांसद (गैर-सरकारी सदस्य) सरकार की नीतियों और कार्यों पर मंत्रियों से सीधे प्रश्न करते हैं।
- शून्य काल: शून्यकाल एक भारतीय संसदीय नवाचार है जो संसदीय नियम पुस्तिका में नहीं पाया जाता है, यह सांसदों को बिना पूर्व सूचना के तात्कालिक मुद्दों को उठाने की अनुमति देता है।
- यह प्रश्नकाल के तुरंत बाद शुरू होता है और दिन का आधिकारिक एजेंडा शुरू होने तक जारी रहता है।
- संसदीय समितियाँ: संविधान के अनुच्छेद 105 (संसदीय विशेषाधिकार) और अनुच्छेद 118 (संसद के सदनों की कार्यप्रणाली के नियमों से संबंधित) द्वारा सशक्त संसदीय समितियाँ विधायी निगरानी में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं।
- स्थायी समितियाँ विधेयकों, नीतियों और प्रशासनिक कार्यों की जाँच करती हैं, जबकि लोक लेखा समिति (PAC) सरकारी व्यय का लेखा परीक्षण करती है।
- अनुमान समिति बजट अनुमानों की समीक्षा करती है और संसाधनों के कुशल उपयोग के लिये सुधारों की सिफारिश करती है।
- अविश्वास प्रस्ताव और बहसें संसद को सरकार को जवाबदेह ठहराने का अवसर प्रदान करती हैं।
- निगरानी तंत्र की सफलताएँ: रेलवे संबंधी स्थायी समिति ने वर्ष 2015 में भारतीय रेलवे की वित्तीय स्थिति सुधारने के लिये लाभांश भुगतान माफ करने की सिफारिश की थी, जिसे वर्ष 2016 में लागू कर दिया गया।
- परिवहन संबंधी स्थायी समिति ने वर्ष 2017 के मोटर वाहन अधिनियम संशोधनों को प्रभावित किया, जिसमें थर्ड पार्टी बीमा पर सीमाएँ हटाना और एक राष्ट्रीय सड़क सुरक्षा बोर्ड का गठन शामिल था।
- सार्वजनिक उपक्रमों संबंधी समिति ने NHAI परियोजनाओं में विलंब को संबोधित करते हुए सिफारिश की कि कार्य केवल तब शुरू किया जाए जब 80% भूमि और मंजूरी प्राप्त हो जाए।
- अनुमान समिति ने आयात पर निर्भरता कम करने के लिये नए यूरेनियम खानों की सिफारिश की।
- लोक लेखा समिति (PAC) ने वर्ष 2010 के कॉमनवेल्थ खेलों में भ्रष्टाचार का पर्दाफाश किया और पिछले आठ वर्षों में औसतन 180 सिफारिशें कीं, जिनमें से लगभग 80% सरकार द्वारा स्वीकार की गईं, जो वित्तीय जवाबदेही सुनिश्चित करने में इसके महत्त्वपूर्ण प्रभाव को दर्शाती हैं।
- न्यायिक निर्णय: एस.आर. बोम्मई बनाम भारत संघ, 1994 में भारत के सर्वोच्च न्यायालय (SC) ने सामूहिक उत्तरदायित्व (अनुच्छेद 75) के सिद्धांत को सुदृढ़ किया और यह ज़ोर देकर कहा कि कार्यपालिका को विधानमंडल का विश्वास प्राप्त होना चाहिये।
- केरल राज्य बनाम के. अजित एवं अन्य (2021) मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि संसदीय विशेषाधिकार और प्रतिरक्षा सदस्यों को सामान्य कानूनों, विशेषकर आपराधिक कानूनों का पालन करने से छूट नहीं देते हैं, जो सभी नागरिकों पर लागू होते हैं।
- मनोहर लाल शर्मा बनाम प्रिंसिपल सेक्रेटरी (2014) में, सर्वोच्च न्यायालय ने निर्णय दिया कि वर्ष 1993 से 2010 के बीच कोल ब्लॉक्स का आवंटन मनमाना और अवैध था, जो संविधान के अनुच्छेद 14 का उल्लंघन करता है।
- यह निर्णय भारत के नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (CAG) और लोक लेखा समिति (PAC) द्वारा किये गए निष्कर्षों पर आधारित था।
संसदीय निगरानी में प्रमुख कमियाँ क्या हैं?
- प्रश्न काल की प्रभावशीलता में कमी: प्रश्न काल, जो दैनिक कार्यपालिका की जवाबदेही सुनिश्चित करने के लिये होता है, प्रायः विरोधों और स्थगन द्वारा बाधित हो जाता है।
- 17वीं लोकसभा (2019–24) में, यह लोकसभा में केवल 60% समय और राज्यसभा में 52% समय संचालित हुआ।
- यहाँ तक कि जब यह कार्य करता है, सांसद अक्सर जटिल नीतियों की समन्वित समीक्षा करने के बजाय पृथक या सतही सवाल उठाते हैं।
- संसदीय समितियों का अपर्याप्त उपयोग: विभाग-संबंधित स्थायी समितियाँ (DRSC) विस्तृत रिपोर्ट तैयार करती हैं, लेकिन इन पर प्रायः सदन में चर्चा नहीं होती।
- सुदृढ़ मूल्यांकन के बावजूद, समिति के निष्कर्षों का कानून निर्माण और कार्यकारी कार्रवाई पर सीमित प्रभाव पड़ता है।
- मितियों की अस्थायी एवं परिवर्तनशील प्रकृति, सदस्यों को विषय-वस्तु में विशेषज्ञता और निरंतरता विकसित करने से रोकती है।
- कानूनों के पारित होने के बाद की समीक्षा का अभाव: एक बार कानून पारित हो जाने के बाद उनकी कार्यान्वयन और प्रभाव का मूल्यांकन करने के लिये कोई संस्थागत तंत्र नहीं है।
- समीक्षा के आभाव के कारण यह स्पष्ट नहीं होता कि कानून अपने लक्षित परिणामों को प्राप्त करता है या नहीं।
- यूनाइटेड किंगडम जैसे देशों के विपरीत, भारत में प्रमुख कानूनों की आवधिक विभागीय समीक्षा अनिवार्य नहीं है।
- सीमित सुलभता और सार्वजनिक भागीदारी: समितियों की रिपोर्टें और निष्कर्ष प्रायः जनसाधारण के लिये सुगम और उपयोगकर्त्ता-अनुकूल प्रारूपों में उपलब्ध नहीं होते।
- अनुवाद, दृश्य साधनों या सरलीकृत व्याख्याओं के आभाव के कारण जनता की जागरूकता और विधायी निगरानी में नागरिकों की भागीदारी सीमित हो जाती है।
- प्रौद्योगिकी को अपनाने में चूके अवसर: संसद ने विधायी निगरानी को सशक्त बनाने के लिये कृत्रिम बुद्धिमत्ता, डेटा विश्लेषण या डिजिटल उपकरणों का पर्याप्त रूप से उपयोग नहीं किया है।
- आधुनिक उपकरणों के अभाव में सांसदों को सरकारी प्रदर्शन में अनियमितताओं या प्रवृत्तियों की पहचान करने में कठिनाई होती है।
संसदीय निगरानी को सशक्त बनाने के लिये किन सुधारों की आवश्यकता है?
- कानूनों के पारित होने के बाद की समीक्षा को संस्थागत बनाना: यूनाइटेड किंगडम जैसे मॉडल को अपनाना, जहाँ प्रत्येक तीन से पाँच वर्षों में सरकारी विभाग प्रमुख कानूनों की समीक्षा संसद को प्रस्तुत करते हैं, यह सुनिश्चित करने में सहायक होगा कि कानून अपने उद्देश्यों की पूर्ति कर रहे हैं।
- DRSC के अधीन उप-समितियों की स्थापना की जाए, जो किसी कानून के लागू होने के 3–5 वर्षों बाद उसके प्रभाव और अनुपालन की समीक्षा करें।
- स्मार्ट निगरानी के लिये प्रौद्योगिकी को अपनाना: सांसदों को बजट दस्तावेजों, भारत के नियंत्रक और महालेखा परीक्षक की रिपोर्टों तथा मंत्रालयों के प्रदर्शन की अधिक प्रभावी समीक्षा में सहायता हेतु कृत्रिम बुद्धिमत्ता उपकरणों और डेटा विश्लेषण का उपयोग किया जाए।
- विधायी निगरानी, बजट तुलनाओं और कानूनों के कार्यान्वयन की स्थिति को ट्रैक करने के लिये खोज योग्य डेटाबेस विकसित किये जाएँ।
- सांसदों की क्षमता निर्माण: PRIDE (लोकतंत्रों के लिये संसदीय अनुसंधान एवं प्रशिक्षण संस्थान) के अंतर्गत संसद के भीतर PRS जैसी एक संस्थागत इकाई की स्थापना की जाए। नव-निर्वाचित सांसदों के लिये संरचित उन्मुखीकरण तथा विभिन्न मुद्दों पर नियमित जानकारी-सत्र आयोजित किये जाएँ।
- एक संसदीय फेलो कार्यक्रम बनाएँ जिसमें प्रत्येक सांसद को प्रशिक्षित विधायी शोधकर्त्ताओं तक पहुँच प्रदान की जाए।
- पारदर्शिता को बढ़ावा देना: समिति रिपोर्टों का क्षेत्रीय भाषाओं में अनुवाद करने के लिये भाषिणी प्लेटफाॅर्म का उपयोग किया जाए और बहुभाषी दृश्य व्याख्याकार तैयार किये जाएँ।
- अधिक उत्तरदायित्व सुनिश्चित करने के लिये समिति की सिफारिशों, मंत्रिस्तरीय प्रतिक्रियाओं और सरकारी अनुपालन को ट्रैक करने हेतु सार्वजनिक डैशबोर्ड लॉन्च किये जाएँ।
निष्कर्ष
लोकतांत्रिक जवाबदेही के लिये संसदीय निगरानी बहुत ज़रूरी है। संसद को विधायी समीक्षा, तकनीक और सहायता के साथ सशक्त बनाना प्रभावी कानून कार्यान्वयन सुनिश्चित करता है और कार्यकारी जवाबदेही को कमज़ोर किये बिना उसे मज़बूत बनाता है।
दृष्टि मेन्स प्रश्न: प्रश्न: भारत में संसदीय निगरानी को सुनिश्चित करने वाले प्रावधानों पर चर्चा कीजिये। इन्हें बेहतर शासन के लिये कैसे सशक्त किया जा सकता है? |
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्नमेन्सप्रश्न. संसद और उसके सदस्यों की शक्तियाँ, विशेषाधिकार और उन्मुक्तियाँ (इम्यूनिटीज़), जैसे कि वे संविधान की धारा 105 में परिकल्पित हैं, अनेकों असंहिताबद्ध (अन-कोडिफाइड) और अ-परिगणित विशेषाधिकारों के जारी रहने का स्थान खाली छोड़ देती हैं। संसदीय विशेषाधिकारों के विधिक संहिताकरण की अनुपस्थिति के कारणों का आकलन कीजिये। इस समस्या का क्या समाधान निकाला जा सकता है? (2014) |