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अंतर्राष्ट्रीय संबंध

रेटिंग एजेंसियों को भूलकर बुनियादी बातों पर ध्यान केंद्रित करने की आवश्यकता

  • 02 Jan 2017
  • 7 min read

सन्दर्भ

अपनी अर्थव्यवस्था की क्रेडिट रेटिंग में सुधार हेतु भारत सरकार तमाम प्रयास कर रही है, इसके लिये कई सुधार प्रयास किये जा रहे हैं|  हालाँकि, इन सुधारों के बावजूद भारत की क्रेडिट रेटिंग में उतना सुधार देखने को नहीं मिला है| ध्यातव्य है कि निवेश प्रोत्साहन में क्रेडिट रेटिंग एजेंसियों की अहम भूमिका होती है, ऐसे में इन एजेंसियों द्वारा भारत की रेटिंग को कम करके बताने से देश में विदेशी निवेश का वातावरण प्रतिकूल रूप से प्रभावित होता है| फिर भी भारत को इन एजेंसियों को भूलकर बुनियादी बातों पर गौर करना चाहिये| वस्तुतः सर्वप्रथम  हमें यह समझना होगा कि क्रेडिट रेटिंग और क्रेडिट रेटिंग एजेंसी का मतलब क्या होता है?

क्या है क्रेडिट रेटिंग एजेंसी ?

  • गौरतलब है कि क्रेडिट रेटिंग एजेंसियों द्वारा एएए, बीबीबी, सीए, सीसीसी, सी, डी के नाम से विभिन्न देशों की अर्थव्यवस्था को रेटिंग दी जाती है| यह बहुत कुछ वैसा ही दीखता है, जैसे ग्रेडिंग पद्धति से किसी विद्यार्थी को अंक प्राप्त होते हैं|  वस्तुतः यह भी मूल्यांकन ही है, लेकिन किसी विद्यार्थी का नहीं बल्कि देशों, बड़ी कंपनियों या बड़े पैमाने पर उधार लेने वालों का|
  • इसी मूल्यांकन पर निर्भर करता है कि उधार लेने वाले की माली हालत कैसी है, मसलन-  उनकी उधार लौटाने की क्षमता कितनी है; अच्छे मूल्यांकन का अर्थ है- कम ब्याज पर आसानी से ऋण और खराब मूल्यांकन का मतलब है- ऊँची दरों पर बमुश्किल ऋण|
  • क्रेडिट रेटिंग एजेंसियों द्वारा प्रदान किये जाने वाली विभिन्न रेटिंग्स का अर्थ कुछ इस प्रकार है-

               ■ एएए - सबसे मज़बूत सबसे बेहतर
               ■ एए- अपने वादों को पूरा करने की पर्याप्त क्षमता
               ■ए - अपने वादों को पूरा करने की क्षमता पर बदली हुई विपरीत परिस्थितियों का असर पड़ सकता है|
               ■बीबीबी - अपने वादों को पूरा करने की क्षमता लेकिन प्रतिकूल आर्थिक हालात से प्रभावित होनी की ज़्यादा गुंजाइश|
               ■सीसी - वर्तमान में बहुत कमज़ोर
               ■डी - उधार लौटने में असफल

भारत को क्रेडिट रेटिंग पर ध्यान क्यों देना चाहिये? 

  • क्रेडिट रेटिंग में सुधार होने से भारत अपेक्षाकृत कम दरों पर दुनिया के बाकी हिस्सों से अधिक से अधिक पूंजी आकर्षित करने में सफल हो सकता है, जिससे विकास की संभावनाओं को बल मिलेगा|
  • गौरतलब है कि कई संस्थागत निवेशक केवल उन्ही प्रतिभूति बाज़ारों में निवेश करते हैं जिन्हें रेटिंग एजेंसियों द्वारा अच्छी रेटिंग प्राप्त हो|
  • क्रेडिट रेटिंग में सुधार से राजनैतिक स्थिरता भी बहाल होती है क्योंकि लोगों को लगता है कि सरकार आर्थिक मोर्चे पर बेहतर कर रही है|

क्रेडिट रेटिंग को उतना महत्त्व क्यों नहीं दिया जाना चाहिये?

  • हालाँकि, भारत ने उल्लेखनीय आर्थिक प्रगति की है, लेकिन अभी भी बुनियादी आर्थिक बातों में व्यापक सुधार की गुंजाइश है। उदाहरण के लिये, भारत में उच्च राजकोषीय घाटा एक गंभीर आर्थिक समस्या है, अतः भारत को रेटिंग एजेंसियों के पीछे भागने की बजाय इस मूल समस्या पर ध्यान केन्द्रित करना होगा, अन्तराष्ट्रीय बाज़ार में कच्चे तेल की कीमतों में उल्लेखनीय कमी आने से भारत राहत महसूस कर रहा है, लेकिन तब क्या होगा जब अरब में परिस्थितियाँ शांत होंगी और कच्चे तेल की कीमतों में उछाल आएगा? इसके लिये भारत को पहले से कमर कसनी होगी| 
  • वस्तुतः निवेश निर्धारण में केवल क्रेडिट रेटिंग एजेंसियों की ही भूमिका नहीं होती है, बल्कि नीति निर्माताओं को बाज़ार को भरोसा दिलाना पड़ता है कि भारत व्यवसाय के लिये एक बेहतर स्थान है| इसके लिये सरकार को सुधारों को गति देनी होगी, गौरतलब है एक दशक के विचार-विमर्श के बाद भी भारत अभी तक वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) को प्रभाव में नहीं ला पाया है|
  • एक तथ्य यह भी है कि अब रेटिंग एजेंसियाँ निवेशकों के बीच उतनी लोकप्रिय नहीं हैं| ध्यातव्य है कि 2008 की वैश्विक मंदी में रेटिंग एजेंसियों का भी हाथ बताया जाता है, कहा जाता है कि खराब आर्थिक परिस्थितियों के बावजूद भी रेटिंग एजेंसियों ने अमेरिकी बाज़ारों को निवेश के लायक बाताया और निवेशकों के पैसे डूब गए|

निष्कर्ष

निष्कर्षतः हम कह सकते हैं कि रेटिंग एजेंसियों की कार्यप्रणाली में त्रुटियाँ खोजने की बजाय भारत को क्षमता निर्माण पर ज़ोर देना होगा, एक संतुलित आर्थिक बजट लाना होगा और मुद्रास्फीति को नियंत्रण में रखना होगा| यदि भारत इन मूलभूत बातों पर ध्यान देता है तो इसकी क्रेडिट रेटिंग में अपने-आप सुधार हो जाएगा|

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