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अंतर्राष्ट्रीय संबंध

आर्थिक नीति निर्माण हेतु नज़रिये में बदलाव की ज़रूरत

  • 08 Aug 2017
  • 6 min read

भूमिका
कुछ समय पहले भारत में आर्थिक सुधारों के 25 वर्ष पूरे होने के अवसर पर एक इंटरव्यू के दौरान पूर्व प्रधानमंत्री श्री मनमोहन सिंह ने कहा था कि भारत में आर्थिक विकास की इस लहर को और अधिक तीव्रता से उच्च गति प्रदान करने हेतु देश में आर्थिक नीति निर्माताओं की महत्ता पर अधिक ध्यान दिया जाना चाहिये| उल्लेखनीय है कि यहाँ इस संदर्भ का उल्लेख इसलिये किया गया है कि हाल ही में नीति आयोग के उपाध्यक्ष अरविंद पनगरिया ने अपने पद से इस्तीफा दे दिया है| पिछले कुछ समय से केंद्र सरकार को देश की उन्नति में सहायक नीति निर्माताओं की कमी का सामना पड़ रहा है| ध्यातव्य है कि इससे पहले भी कौशिक बासु एवं रघुराम राजन भी अपने-अपने पदों से इस्तीफा दे चुके हैं| 

राजनेताओं एवं लोक सेवकों की महत्ता

  • जैसा कि हम सभी जानते हैं कि किसी भी देश कि आर्थिक नीति उस देश के राजनेताओं, लोक सेवकों एवं आर्थिक नीति निर्माताओं से मिलकर बनी होती है|
  • वर्ष 1991 के आर्थिक सुधारों को भी पी.वी. नरसिम्हा राव के राजनीतिक सहयोग के बिना पूरा किया जाना असंभव था| हालाँकि, यह कार्य ए.एन. वर्मा एवं नरेश चंद्रा जैसे लोक सेवकों के सहयोग एवं अथक प्रयासों के फलस्वरूप ही पूरा हो पाया| 
  • आर्थिक सुधारों के पश्चात् आरंभ हुई आर्थिक उन्नति की इस नई दौड़ में बहुत से बुद्धिमान एवं दूरदर्शिता वाले नए लोग भी शामिल हुए, जिनके बलबूते भारत वर्तमान में विश्व की तेज़ी से उभरती हुई अर्थव्यवस्था बन गया है|

योगदान

  • ध्यातव्य है कि 1980 से अभी तक इन लोगों के द्वारा भारत की अर्थव्यवस्था को उन्नत करने हेतु विभिन्न प्रकार का योगदान दिया गया है| उदाहरण के लिये- मनमोहन सिंह द्वारा सातवीं पंचवर्षीय योजना (seventh Five-year Plan) के प्रारूप में औद्योगिक नीति (industrial policy) का केंद्र (focus) संपत्ति निर्माण (asset creation) की अपेक्षा उत्पादकता (productivity) की ओर स्थानांतरित किया गया|
  • वर्तमान में आर्थिक सुधारों के मद्देनज़र तीसरी पीढ़ी के आर्थिक नीति निर्माताओं की एक नई टीम तैयार की जा रही है, ताकि कम से कम समय में अर्थव्यवस्था की रफ्तार में और अधिक तेज़ी लाई जा सके| 

चीन की नीति

  • हालाँकि, यदि भारत द्वारा आर्थिक नीति निर्माताओं के संबंध में लिये गए इन फैसलों के संदर्भ में गंभीरता से विचार करें तो हम पाएंगे कि जिस तरीके से चीन ने अपनी आर्थिक नीतियों में सुधार किया है, हमने ठीक उसके विपरीत तरीका अपनाया है|
  • ध्यातव्य है कि चीन द्वारा अपनाए गए तरीकों के परिणामस्वरूप न केवल सरकार के अंतर्गत विशेषज्ञों को शामिल करने की राजनीतिक इच्छा प्रबल हुई है, बल्कि इसने चीन के विश्वविद्यालयों की शैक्षणिक क्षमता में भी उल्लेखनीय वृद्धि की है|

भारतीय परिदृश्य

  • भारतीय नीति निर्माताओं में विद्यमान आर्थिक विशेषज्ञता को दृढ़ करने के लिये दो पहलुओं के संदर्भ में विशेष रूप से विचार करने की आवश्यकता है| 
  • पहला ये कि 1950 के दशक से 1980 के दशक तक जो भी हुआ, उसके पश्चात् यह स्पष्ट है कि आर्थिक सुधारों के मद्देनज़र नई पीढ़ी के आर्थिक विशेषज्ञों के साथ-साथ दृढ़ राजनीतिक इच्छाशक्ति वाले राजनेताओं को इस टीम के अंतर्गत शामिल किया जाना चाहिये|
  • दूसरा यह कि नीति निर्माण से संबंधित कार्यों को देश भर में फैले विश्वविद्यालयों एवं अनुसंधान संस्थानों के एक नेटवर्क के साथ सहयोग करके संपन्न किया जाना चाहिये| इसका सबसे जीवंत उदाहरण पिछले तीन का आर्थिक सर्वेक्षण है, जिसे इसी प्रकार सहयोगात्मक स्वरूप में तैयार किया गया है| 

निष्कर्ष 
हालाँकि, इस संबंध में यह भी विचार प्रस्तुत किया जाता है कि सरकार को अर्थशास्त्रियों की भला क्या ज़रूरत? देश चलाने के लिये किसी सरकार को अगर कुछ चाहिये तो वह है अच्छे प्रशासक| हालाँकि वास्तविकता में इससे फर्क है| यह निर्णय करने का दायित्व केवल सरकार का है उसे देश को बेहतर रूप में संचालित करने तथा विकास की राह पर अग्रसर करने के लिये किस प्रकार के लोगों की आवश्यकता है| स्पष्टतः कम से कम संसाधनों के प्रयोग द्वारा अधिक से अधिक उन्नत समाज का विकास करने तथा तेज़ी से देश में विद्यमान आर्थिक समस्याओं का निदान करने हेतु किसी भी सरकार को विद्वान् विशेषज्ञों की ही आवश्यकता होती है| इसके पश्चात् विशेषज्ञों की टीम द्वारा तैयार नीतिओं को वास्तविक रूप में क्रियान्वित करने के लिये अच्छे प्रशासकों का होना ‘सोने पे सुहागा’ वाली कहावत को चरितार्थ करता है| परंतु दुःख कि बात यह है कि अभी तक भारत इन दोनों ही पहलुओं पर कमज़ोर नज़र आया है| अब देखना यह है कि मोदी सरकार इस समस्या से कैसे निपटती है|

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