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भूगोल

अंटार्कटिका में भारतीय वैज्ञानिक अध्ययन

  • 17 Feb 2020
  • 8 min read

प्रीलिम्स के लिये:

अंटार्कटिका में भारतीय मिशन

मेन्स के लिये:

भारत के लिये अंटार्कटिका का महत्त्व

चर्चा में क्यों?

हाल ही में एक भारतीय वैज्ञानिक दल अंटार्कटिका के अध्ययन के लिये दक्षिण महासागर में पहुँचा।

मुख्य बिंदु:

  • भारतीय वैज्ञानिक दक्षिण अफ्रीकी समुद्र विज्ञान अनुसंधान पोत (Vessel) एसए अगुलहास (SA Agulhas) से इस मिशन पर गए हैं।
  • भारतीय वैज्ञानिकों का यह दल दक्षिण महासागर के 2 महीने के अभियान के लिये मॉरीशस के पोर्ट लुईस बंदरगाह से 11 जनवरी 2020 को रवाना हुआ जिसमें 34 भारतीय वैज्ञानिक शामिल हैं।
  • वर्तमान में यह पोत अंटार्कटिका में भारत के तीसरे स्टेशन ‘भारती’ के तटीय जल क्षेत्र प्राइड्ज़ खाड़ी (Prydz Bay) में पहुँचा है।
  • यह दक्षिण महासागर या अंटार्कटिक महासागर के लिये भारत का 11वाँ अभियान है, जबकि पहला अभियान दल वर्ष 2004 में भेजा गया।

अभियान का उद्देश्य:

  • नेशनल सेंटर फॉर पोलर एंड ओशन रिसर्च केंद्र (NCOPR) गोवा के नेतृत्व में 18 संस्थानों से मिलकर बनी एक टीम क्रूज ट्रैक (Cruise Track) के लगभग समानांतर 60 स्टेशनों से हवा और जल के नमूने एकत्र कर रही है। इन नमूनों के अध्ययन से इस दूरस्थ वातावरण के समुद्र और वायुमंडल की स्थिति की बहुमूल्य जानकारी मिलेगी जो जलवायु पर दक्षिण महासागर के प्रभावों को समझने में मदद करेगा।
  • इस अभियान में भारतीय मानसून जैसी वृहद् पैमाने पर होने वाली मौसमी घटनाओं में परिवर्तन तथा इन परिवर्तनों के प्रभावों की पहचान करना शामिल है।
  • इस अध्ययन का उद्देश्य मुख्यतया दक्षिण महासागर की पारिस्थितिकी तथा वायुमंडलीय परिवर्तन और उष्णकटिबंधीय जलवायु व मौसम पर इसके प्रभावों का अध्ययन करना है।
  • यह अभियान इन क्षेत्रों में CO2 आगत-निर्गत अनुपात चक्र को बेहतर तरीके से समझने में सहायता करेगा।

कार्बन डाइऑक्साइड (CO2) चक्र:

  • उत्सर्जित CO2 वायुमंडल में प्रवेश करती है, जहाँ से वायुमंडलीय परिसंचरण के माध्यम से यह अंटार्कटिक और कम ध्रुवीय तापमान वाले क्षेत्रों में पहुँचती है।
  • चूँकि इन क्षेत्रों का तापमान बहुत कम होता है, अतः ये गैसें यहाँ अवशोषित होकर घुलनशील अकार्बनिक कार्बन या कार्बनिक कार्बन में परिवर्तित हो जाती हैं।
  • यहाँ से CO2 जलराशि (Water Masses) जल परिसंचरण द्वारा पुनः उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में पहुँचती है जहाँ यह गर्म होकर पुनः वायुमंडल में प्रवेश करती है।
  • सभी महासागर आपस में दक्षिण महासागर में मिलते हैं, ये महासागर ऊष्मा जैसे कारकों के परिवहनकर्त्ता के रूप में कार्य करते हैं। ये महासागर ऊष्मा को संतुलित करने वाली कन्वेयर बेल्ट (Conveyor Belt) के माध्यम से दक्षिण महासागर से जुड़ी हैं जो यह समझने में मदद करेगा कि मानवजनित कारणों से जलवायु कैसे प्रभावित होती है।
  • इस अभियान की 4-5 मुख्य प्राथमिकताएँ हैं जिनमें इस समझ को व्यापक करने का प्रयास करना है कि जलवायु प्रणाली महासागरों से कैसे प्रभावित होती है। यहाँ ध्यान देने योग्य यह तथ्य है कि वर्तमान में इस बात के पर्याप्त आँकड़े मौजूद हैं कि दक्षिणी महासागर एक अलग वातावरण नहीं है और वह विश्व के अन्य भागों को भी प्रभावित कर रहा है।

अभियान में शामिल परियोजनाएँ: इस अभियान में मुख्यतः निम्नलिखित 6 परियोजनाओं का अध्ययन किया जाएगा।

1. जलगतिकी और जैवभूरसायन (Hydrodynamics and Biogeochemistry):

  • हिंद महासागर क्षेत्र में जलगतिकी और जैवभूरसायन का अध्ययन किया जाएगा, जहाँ अलग-अलग गहराई से सागरीय पानी के नमूने लिये जाएंगे। यह अंटार्कटिक के अगाध सागरीय जल की संरचना को समझने में मदद करेगा।

2. ट्रेस गैसों का अवलोकन (Observations of Trace Gases):

  • महासागर से वायुमंडल में प्रवेश करने वाली हैलोजन और डाइमिथाइल सल्फर जैसी ट्रेस गैसों का अवलोकन किया जाएगा जो वैश्विक मॉडलों में उपयोगी मापदंडों को बेहतर बनाने में मदद करेगा।

3. कोकोलिथोपर्स जीवों का अध्ययन (Study of Organisms called Coccolithophores):

  • कोकोलिथोपर्स कई मिलियन वर्षों से महासागरों में मौजूद हैं जहाँ तलछट में उनकी सांद्रता पुरा- जलवायु को समझने में मदद करेगी।

4. एरोसोल और उनके प्रकाशकी व विकिरण गुण (Aerosols and their Optical and Radiative Properties):

  • इनका निरंतर मापन पृथ्वी की जलवायु पर इनके प्रभाव को समझने में मदद करेगा।

5. भारतीय मानसून पर प्रभाव (Impact on Indian Monsoons):

अभियान में भारतीय मानसून पर दक्षिणी महासागर के प्रभाव का अध्ययन किया जाएगा जो मुख्यतः सागरीय तल से ली गई तलछट कोर (Sediment Core) पर आधारित होगा।

तलछट कोर:

यह एक प्रकार का चट्टानीय नमूना होता है जो अलग-अलग कालक्रम की तलछटों को विभिन्न स्तरीय परतों के रूप में संरक्षित रखता है (युवा तलछट शीर्ष पर और पुराने तलछट नीचे )।

6. खाद्य जाल की गतिकी (Dynamics of the Food Web):

  • दक्षिणी महासागर में खाद्य जाल की गतिशीलता का अध्ययन करना ताकि सतत् मत्स्यपालन को बढ़ावा मिल सकेगा।

अभियान की अब तक की प्रगति:

मिशन ने दक्षिणी महासागर के बड़े तलछट कोरों में से एक, 3.4 मीटर लंबाई का तलछट कोर की खोज की है जो कि 30,000 से एक मिलियन वर्ष पुराना हो सकता है। तलछट कोर न केवल पुरा-जलवायु को अपितु भविष्य के जलवायु परिवर्तनों को भी समझने में मदद करता है।

पुरा-जलवायविक अध्ययन (Paleoclimate Studies):

दक्षिणी महासागर के तलछट कोर, अंटार्कटिका की झीलें, फियोर्ड तट जैसे प्राकृतिक अभिलेखागार का उपयोग अलग-अलग कालानुक्रम की जलवायु परिवर्तनशीलता का अध्ययन करने के लिये किया जाता है।

स्रोत: द हिंदू

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