इंदौर शाखा: IAS और MPPSC फाउंडेशन बैच-शुरुआत क्रमशः 6 मई और 13 मई   अभी कॉल करें
ध्यान दें:

डेली अपडेट्स


जैव विविधता और पर्यावरण

मराठवाड़ा क्षेत्र में मरुस्थलीकरण की स्थिति

  • 24 May 2019
  • 7 min read

चर्चा में क्यों?

निकट भविष्य में मराठवाड़ा क्षेत्र के मरुस्थलीकरण (Desertification) की चेतावनी देने वाले अर्थशास्त्रियों और जल शिक्षाविदों के अनुसार महाराष्ट्र में जल संकट एक नीति-संबंधी विफलता है। यह नीति-निर्माताओं की पर्यावरण एवं पारिस्थितिक संबंधी अशिक्षा को दर्शाता है। साथ ही संभ्रांत और सत्ताधारी लोगों द्वारा अपने स्वार्थपूर्ण रवैये के कारण संपूर्ण मराठवाड़ा में किसानों को ऐसी फसल-प्रतिरूप नीति अपनाने के लिये प्रेरित करना जो वहाँ की कृषि के लिये आवश्यक जलवायु के अनुकूल ही नहीं है, केवल आपदा को पूर्व न्योता देने जैसा है।

प्रमुख बिंदु

  • विशेषज्ञों के अनुसार, पिछले चार दशकों से मराठवाड़ा के भू-जल स्तर में निरंतर कमी देखने को मिली है। मराठवाड़ा के भू -जल का इस प्रकार से दोहन हुआ है कि वहाँ के भू-जल स्तर को पुनर्जीवन देना लगभग असंभव है।
  • मराठवाड़ा के आठ ज़िलों की 76 तालुकाओं में से 50 में पिछले साल लगभग 300 मिमी. वर्षा हुई। यह वर्षा-जल प्रति हेक्टेयर तीन मिलियन लीटर (प्रयोग करने योग्य) जल में परिवर्तित हो जाता है। यह देखते हुए कि मराठवाड़ा में औसत जनसंख्या घनत्व 300 प्रति वर्ग किमी. है। यहाँ की आबादी की बुनियादी ज़रूरतों जैसे पीने के पानी और घरेलू ज़रूरतों आदि के लिये जल की पूर्ति हेतु यह वर्षा जल पर्याप्त है, लेकिन कपास, गन्ने जैसी फसलों के लिये पर्याप्त नहीं है।

शुष्क जलवायु

विशेषज्ञों की मानें तो बीते दशकों में इस क्षेत्र के फसल प्रतिरूप में काफी परिवर्तन आया है। जहाँ पहले मुख्य फसलों में अनाज और तिलहन की खेती हुआ करती थी, वहीं आज यहाँ कपास और गन्ने की खेती का वर्चस्व है।

  • अनाज और तिलहन की फसलें न केवल मराठवाड़ा की शुष्क जलवायु के लिये अनुकूल थी, बल्कि सूखा विरोधी होने के साथ-साथ नमी संग्रहण में भी सहायक थी।
  • परंतु वर्तमान में मराठवाड़ा की 50 लाख हेक्टेयर कृषि योग्य भूमि के 80% से अधिक भाग पर सोयाबीन और BT कॉटन की खेती की जाती होती है। इन फसलों के साथ गन्ने की खेती से अधिक मुनाफा कमाने के लालच ने किसानों और नागरिकों को वर्तमान जल संकट की चपेट में ला खड़ा किया है।
  • यहाँ यह जानना बेहद आश्चर्यजनक है कि इस क्षेत्र के 80% जल संसाधनों का प्रयोग कर कुल कृषि योग्य भूमि के केवल 4% भाग पर गन्ना उगाया जाता है। परिणामस्वरुप मौसम चक्र में थोड़ा-सा भी परिवर्तन होने पर यहाँ गंभीर जल संकट की समस्या उत्पन्न हो जाती है।
  • एक जल विशेषज्ञ द्वारा इस क्षेत्र की भौगोलिक स्थिति का अध्ययन करने के बाद यह जानकारी सामने आई कि मराठवाड़ा में मरुस्थलीकरण की प्रक्रिया शुरू हो गई है। विशेषज्ञों के अनुसार, इस पारिस्थितिक अव्यवस्था से उबरने का एकमात्र तरीका गन्ने की खेती पर प्रतिबंध लगाना है।
  • वर्ष 1976 के महाराष्ट्र सिंचाई अधिनियम (Maharashtra Irrigation Act of 1976) के अंतर्गत यह प्रावधान निहित है कि जल संकट के समय या पानी की कमी की स्थिति में सरकार कमांड क्षेत्र (Command Area) के लोगों को गन्ने जैसी गहन फसलों हेतु आवश्यक सिंचाई की अनुमति नहीं दे सकती है।
  • हालाँकि, गन्ने की खेती को प्रतिबंधित करने और सूखा-प्रतिरोधी तिलहन और दलहन जैसी फसलों की ओर रूख करने के लिये सरकार की ओर से कोई प्रयास नहीं किये गये हैं।
  • मराठवाड़ा में गन्ना एक प्रकार की 'राजनीतिक फसल' (Political Crop) थी जो महाराष्ट्र में सत्ता प्राप्त करने की अचूक और आजमाई हुई विधि के रूप में कार्य करती थी।
  • सत्ताधारी वर्ग ने इस फसल का इस्तेमाल अपने वोट बैंक के निर्माण और उसे बनाए रखने के लिये एक शक्तिशाली साधन के रूप में किया है। कभी कृषि ऋण माफी तो कभी गन्ने के बढ़ते मूल्य, उप-उत्पादों के बाज़ारीकरण जैसी उम्मीदों और वादों के आधार पर इस फसल को एक राजनितिक उपकरण के रूप में इस्तेमाल किया गया।
  • राज्य में मौजूद 200 से अधिक चीनी कारखानों में से लगभग 50 मराठवाड़ा में स्थित हैं। गौर करने वाली बात यह है कि 1 किलो चीनी का उत्पादन करने के लिये 2,500 लीटर पानी की आवश्यकता होती है। यह राजनीतिक अभिजात वर्ग की चीनी फैक्ट्रियों को बनाए रखने के लिये इंसानों और पशुओं के जल के अधिकार को छीन लेने का प्रयास है। इन मिलों के कारण इस क्षेत्र के बाँध सूख गये हैं। जल की कमी के चलते लातूर ज़िले के कई हिस्से जनवरी में ही सूख गए।

वर्तमान में यहाँ 12 दिनों में एक बार जल की आपूर्ति होती है जो किसी अचानक हुई बर्फ़बारी की घटना से कम नहीं है। गन्ने की खेती पर प्रतिबंध लगाने, बेहतर जल-प्रबंधन, वर्षा जल के संचयन एवं मराठवाड़ा में संचालित कारखानों/मिलोंं में जल के दुरुपयोग को प्रबंधित करने जैसे उपायों पर गौर किये जाने की आवश्यकता है ताकि समय रहते इस समस्या का हल खोजा जा सके। सरकार द्वारा मरुस्थलीकरण की ओर बढ़ते मराठवाड़ा क्षेत्र के लिये एक बेहतर जल-प्रबंधन के क्रियान्वयन को बढ़ावा दिया जाना चाहिये।

स्रोत:द हिन्दू

close
एसएमएस अलर्ट
Share Page
images-2
images-2