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न्यायालय की अवमानना

  • 19 Oct 2023
  • 9 min read

प्रिलिम्स के लिये:

न्यायालय की अवमानना, सर्वोच्च न्यायालय (SC), NCLAT (राष्ट्रीय कंपनी कानून अपीलीय न्यायाधिकरण), कारण बताओ नोटिस, भारत का मुख्य न्यायाधीश (CJI), न्यायालय की अवमानना अधिनियम, 1971

मेन्स के लिये:

न्यायालय की अवमानना, कार्यपालिका और न्यायपालिका की संरचना, संगठन और कार्यप्रणाली

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस 

चर्चा में क्यों?

हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय ने NCLAT (राष्ट्रीय कंपनी कानून अपीलीय न्यायाधिकरण) के दो सदस्यों के खिलाफ न्यायालय की अवमानना की कार्यवाही शुरू की है।

  • न्यायालय ने फिनोलेक्स केबल्स मामले में यथास्थिति बनाए रखने के सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश के बावजूद निर्णय सुनाने के लिये सदस्यों को कारण बताओ नोटिस जारी किया है।

नोट: कारण बताओ नोटिस एक न्यायालय, सरकारी एजेंसी या किसी अन्य आधिकारिक निकाय द्वारा किसी व्यक्ति या संस्था को जारी की गई एक औपचारिक सूचना है, जिसमें उनसे अपने कार्यों, निर्णयों या व्यवहार को लेकर सफाई देने या उचित ठहराने के लिये कहा जाता है। कारण बताओ नोटिस का उद्देश्य प्राप्तकर्त्ता को विशिष्ट चिंताओं या कथित उल्लंघनों के संबंध में प्रतिक्रिया या स्पष्टीकरण प्रदान करने का अवसर देना है।

मामले का संदर्भ: 

  • सर्वोच्च न्यायालय ने पहले संवीक्षक को फिनोलेक्स केबल्स की आम वार्षिक बैठक के परिणाम घोषित करने का निर्देश दिया था और NCLAT को परिणाम की जानकारी मिलने के बाद अपना निर्णय सुनाने के लिये कहा था।
  • हालाँकि NCLAT ने कथित तौर पर सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश को स्वीकार किये बिना निर्णय घोषित कर दिया।
  • भारत के मुख्य न्यायाधीश (CJI) ने राष्ट्रीय कंपनी कानून अपीलीय न्यायाधिकरण (NCLT) और NCLT की कार्यप्रणाली पर चिंता व्यक्त की। उन्होंने कहा कि इन न्यायाधिकरणों में कुछ समस्या प्रतीत होती हैं तथा यह मामला उस समस्या का एक उदाहरण है।
  • सर्वोच्च न्यायालय ने मामले को संभालने के NCLAT के तरीके पर नाराज़गी व्यक्त की और कहा कि NCLAT को सर्वोच्च न्यायालय के आदेशों का पालन करना चाहिये था।

न्यायालय की अवमानना:

  • परिचय:
    • न्यायालय की अवमानना ​​न्यायिक संस्थानों को प्रेरित हमलों और अनुचित आलोचनाओं से बचाने तथा इसके अधिकार को कम करने वालों को दंडित करने के लिये एक कानूनी तंत्र के रूप में प्रयास करती है।
  • वैधानिक आधार:
    • जब संविधान को अपनाया गया, तो न्यायालय की अवमानना को भारत के संविधान के अनुच्छेद 19 (2) के तहत बोलने और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर प्रतिबंधों में से एक बना दिया गया।
    • अलग से संविधान के अनुच्छेद 129 ने सर्वोच्च न्यायालय को अपनी अवमानना ​​के लिये दंडित करने की शक्ति प्रदान की। अनुच्छेद 215 ने उच्च न्यायालयों को तदनुरूपी शक्ति प्रदान की।
    • न्यायालय अवमानना अधिनियम, 1971 इस विचार को वैधानिक समर्थन देता है।
  • न्यायालय की अवमानना के प्रकार:
    • सिविल अवमानना: यह किसी न्यायालय के किसी निर्णय, डिक्री, निर्देश, आदेश, रिट या अन्य प्रक्रिया की जान-बूझकर अवज्ञा या न्यायालय को दिये गए वचन का जान-बूझकर उल्लंघन है।
    • आपराधिक अवमानना: इसमें किसी भी ऐसे मामले का प्रकाशन या कोई अन्य कार्य शामिल है जो किसी अदालत के अधिकार को कम करता है या उसे बदनाम करता है या किसी न्यायिक कार्यवाही की उचित प्रक्रिया में हस्तक्षेप करता है या किसी अन्य तरीके से न्याय प्रशासन में बाधा डालता है।

नोट: न्यायिक कार्यवाही की निष्पक्ष और सटीक रिपोर्टिंग न्यायालय की अवमानना नहीं मानी जाएगी। न ही किसी मामले की सुनवाई और निपटारे के बाद न्यायिक आदेश की गुणवत्ता को लेकर कोई निष्पक्ष आलोचना की जाती है।

  • सज़ा:
    • न्यायालय की अवमानना अधिनियम 1971 के तहत दोषी को छह महीने तक की कैद या 2,000 रुपए का ज़ुर्माना या दोनों से दंडित किया जा सकता है।
      • बचाव के रूप में "सच्चाई और सद्भावना" को शामिल करने के लिये इसे वर्ष 2006 में संशोधित किया गया था।
      • इसमें यह जोड़ा गया कि न्यायालय केवल तभी सज़ा दे सकता है यदि दूसरा व्यक्ति कार्य में पर्याप्त हस्तक्षेप करता है या न्याय की उचित प्रक्रिया में हस्तक्षेप करने की प्रवृत्ति रखता है।

न्यायालय की अवमानना कार्यवाही की आलोचना:

  • भारत में ब्रिटिश उपनिवेशवाद के संस्मरण के रूप में इसकी आलोचना की जाती है क्योंकि यूनाइटेड किंगडम ने भी अवमानना ​​कानून समाप्त कर दिये हैं।
  • अवमानना को न्यायालय के निर्देशों/निर्णयों की केवल "स्वेच्छाचारी अवज्ञा" तक सीमित रखने और "न्यायालय को बदनाम करने" को प्रतिबंधित करने की मांग उठाई गई है।
  • यह भी कहा जाता है कि इसका परिणाम न्यायिक सीमा के परे भी जा सकता है।
  • विभिन्न उच्च न्यायालयों और सर्वोच्च न्यायालय में बड़ी संख्या में अवमानना के मामले लंबित हैं, जिससे पहले से ही अत्यधिक बोझ से दबी न्यायपालिका द्वारा न्याय प्रशासन में विलंब होता है।

आगे की राह 

  • अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता मौलिक अधिकारों में सबसे मौलिक है और उस पर प्रतिबंध न्यूनतम होने चाहिये।
  • न्यायालय की अवमानना पर कानून केवल वही प्रतिबंध लगा सकता है जो न्यायिक संस्थानों की वैधता को बनाए रखने के लिये आवश्यक हैं।
  • इसलिये स्वाभाविक न्याय और निष्पक्षता के सिद्धांतों को ध्यान में रखते हुए उस प्रक्रिया को परिभाषित करने वाले नियम एवं दिशा-निर्देश तैयार किये जाएँ जो आपराधिक अवमानना ​​पर कार्रवाई करते समय वरिष्ठ न्यायालयों को अपनाना चाहिये।

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न  

प्रश्न. निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये: (2022)

  1. एच.एन. सान्याल समिति की रिपोर्ट के अनुसरण में न्यायालय की अवमानना अधिनियम, 1971 पारित किया गया था।
  2. भारत का संविधान उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालयों को अपनी अवमानना के लिये दंड देने हेतु शक्ति प्रदान करता है।
  3. भारत का संविधान सिविल अवमानना और आपराधिक अवमानना को परिभाषित करता है।
  4. भारत में न्यायालय की अवमानना के विषय में कानून बनाने के लिये संसद में शक्ति निहित है।

उपर्युक्त कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं?

(a) केवल 1 और 2 
(b) 1, 2 और 4
(c) केवल 3 और 4 
(d) केवल 3

उत्तर: (b)

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