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अंतर्राष्ट्रीय संबंध

क्यों भारत को चरम संरक्षणवाद से दूर रहना होगा?

  • 08 May 2017
  • 12 min read

सन्दर्भ

  • भारत की दूसरी सबसे बड़ी आईटी कंपनी इनफ़ोसिस ने घोषणा की है कि वह 10 हज़ार अमेरिकावासियों को नौकरी देगा। इनफ़ोसिस ने यह कदम इसलिये उठाया क्योंकि अमेरिकी प्रशासन का कहना है कि भारतीय कम्पनियाँ, वहाँ के स्थानीय निवासियों के रोज़गार छीन रही हैं।
  • अमेरिकी प्रशासन वीज़ा नियमों में परिवर्तन कर रहा है, फलस्वरूप भारतीय आईटी कंपनियों के लिये भारतीय कामगारों के साथ अमेरिका में काम करना मुश्किल सिद्ध होने जा रहा है।
  • अब भारत सरकार ने भी इस बात के संकेत दिये हैं कि भारत में काम करने वाली विदेशी कंपनियों के लिये वह ऐसे कानून बनाने जा रही है जिनसे कि इन कंपनियों के लिये भारत में विदेशी के नागरिकों को रोज़गार देना मुश्किल हो जाएगा।
  • दूसरे शब्दों में कहें तो भारत भी ट्रम्प प्रशासन के जैसे ही सरंक्षणवादी नीतियाँ बनाने जा रही है। हालाँकि विशेषज्ञों का मानना है कि भारत को ऐसी नीतियों से दूर रहना चाहिये।
  • क्यों भारत को चरम सरंक्षणवाद से की नीतियों की राह पर नहीं चलना चाहिये, इस पर गौर करने से पहले हम यह देखते हैं कि एच 1 वीज़ा विवाद है क्या?

क्या है एच 1 बी वीज़ा विवाद?
अमेरिका में डोनाल्ड ट्रम्प ने सत्ता सम्भालते ही एच 1 बी वीज़ा नियमों सुधार के लिये एक कार्यकारी आदेश पर हस्ताक्षर किया था। तत्पश्चात अमरीकी संसद में एच 1 बी वीज़ा विधेयक पेश किया गया है। इस विधेयक में वीज़ाधारकों को दिये जाने वाले न्यूनतम वेतन को दोगुना से अधिक करने का प्रस्ताव है। सरसरी तौर पर देखें तो यही प्रतीत होगा कि न्यूनतम वेतन में वृद्धि तो व्यावहारिक कदम है, फिर यह भारतीय कंपनियों के हितों को कैसे प्रभावित करेगा? कैसे यह सरंक्षणवाद को बढ़ावा देने वाला कदम है? इन सभी बातों को हम कुछ इस प्रकार से समझ सकते हैं: 

  • अमेरिकी संसद की प्रतिनिधि सभा में एच1बी वीज़ा से संबंधित इस विधेयक में इस बात का प्रावधान किया गया है कि  न्यूनतम 1,30,000 डॉलर वेतन वाली नौकरियों के लिये ही ऐसा वीज़ा दिया जा सकता है।
  • विदित हो कि संशोधित वेतन मौजूदा न्यूनतम वेतन स्तर के दोगुने से भी ज़्यादा है और इसके लागू होने पर अमेरिकी कंपनियों के लिये अमेरिका में भारत सहित कई देशों के कर्मचारियों को नौकरी देना मुश्किल हो जाएगा।
  • दरअसल, यह पहल डोनाल्ड ट्रंप के चुनावी वादों और अमेरिकियों के लिये रोज़गार के अवसर बढ़ाने की पहल का एक हिस्सा है। हाई-स्किल्ड इंटेग्रिटी एंड फेयरनेस एक्ट-2017 (उच्च कुशल निष्ठा एवं निष्पक्षता अधिनियम-2017) के नाम से पेश किये गए इस विधेयक में उन कंपनियों को वीज़ा देने में प्राथमिकता देने का प्रस्ताव है जो बाज़ार औसत से दोगुना अधिक वेतन देने को तैयार हों।
  • गौरतलब है कि एच-1 बी वीज़ाधारकों का अभी सालाना न्यूनतम वेतन 60 हज़ार डॉलर है। नए बिल में इसे बढ़ाकर 1 लाख 30 हज़ार डॉलर करने का प्रस्ताव रखा गया है। पहली नज़र में ये अच्छी ख़बर लगती है कि वेतन बढ़ जाएंगे।
  • लेकिन भारतीय कंपनियों के लिये यह एक बुरी खबर है, क्योंकि इंफ़ोसिस, विप्रो, टाटा कंसल्टेंसी, एचसीएल टेक जैसी कंपनियों की आय का आधे से अधिक हिस्सा अमरीका से आता है।
  • मान लिया जाए कि एक अमरीकी कंपनी को खास किस्म का सॉफ्टवेयर इंजीनियर चाहिये जो भारत की कंपनियों मसलन टीसीएस या इंफोसिस में उपलब्ध है। जब इंफोसिस ऐसे इंजीनियर को भेजता है तो वो इंजीनियर जो अब तक न्यूनतम 60 हज़ार डॉलर (सालाना) पाता था नए विधेयक के तहत अब अमरीकी कंपनी को ऐसे किसी भारतीय इंजीनियर को न्यूनतम एक लाख 30 हज़ार डॉलर की रकम (सालाना) देनी होगी।
  • यानी कि अब अमरीकी कंपनियाँ इतने पैसे में अमरीका में ही ऐसे इंजीनियर खोजेंगी।

क्या है एच 1 बी वीज़ा?

  • गौरतलब है कि अमेरिका में रोज़गार के इच्छुक विदेशी नागरिकों को एच-1बी वीज़ा प्राप्त करना होता है।
  • एच-1बी वीज़ा वस्तुतः ‘इमीग्रेशन एण्ड नेशनलिटी ऐक्ट’ (Immigration and Nationality Act)  की धारा 101(a) और 15(h) के अंतर्गत संयुक्त राज्य अमेरिका में रोज़गार के इच्छुक गैर-अप्रवासी (Non-immigrants) नागरिकों को दिया जाने वाला वीज़ा है।
  • एच1बी वीज़ा ऐसे विदेशी पेशेवरों के लिये जारी किया जाता है जो किसी 'खास' कार्य में कुशल होते हैं। एच 1 बी वीज़ा के प्रावधान के पीछे उद्देश्य विशेषज्ञतापूर्ण कार्यों के लिये विदेशों से क्षमतावान लोगों को लाकर अमेरिका में रोज़गार देना था।
  • लेकिन आउटसोर्सिंग कंपनियों पर आरोप लगता रहा है कि वे वीज़ा का इस्तेमाल निचले स्तर की नौकरियों को भरने में भी करते हैं जिससे अमेरिका में रोज़गार का संकट उत्पन्न हो गया है।
  • गौरतलब है कि अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प अपने चुनावी अभियान के आरम्भ से ही इस मुद्दे को जोर-शोर से उठाते चले आ रहे हैं और तभी यह साफ हो चुका था कि ट्रम्प सत्ता में आते ही इस संबंध में कोई न कोई सख्त कदम ज़रूर उठाएंगे।

हाल ही में केन्द्रीय मंत्री निर्मला सीतारमन ने कहा है कि भारत भी अब अमेरिकी कम्पनियों पर नकेल कसने की तैयारी कर रहा है, हालाँकि विशेषज्ञों का मानना है कि भारत को इस प्रकार के सरंक्षणवादी नीतियों से दुरी बनाए रखनी होगी, क्योंकि:-

  • वर्ष 2010 के बाद से दुनिया की सभी बड़ी अर्थव्यवस्थाओं की धीमी वृद्धि दर, लोगों की औसत आय में धीमी वृद्धि, और संरचनात्मक श्रम बाज़ारों में उत्पन्न व्यवधान, कुछ ऐसे कारण हैं जिनकी वज़ह से दुनिया के लगभग सभी देशों में ऐसे राजनीतिक वर्ग का उदय हुआ जो सरंक्षणवादी नीतियों की वकालत करते थे। अमेरिका ही नहीं बल्कि न्यूज़ीलैण्ड, ऑस्ट्रेलिया और ब्रिटेन भी सरंक्षणवादी नीतियों पर बल दे रहे हैं।
  • ऐसे में यदि भारत इस प्रकार की कोई भी नीति बनाता है तो इन देशों से होने वाले विदेशी निवेश पर भी अंकुश लग सकता है। वस्तुतः भारत में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) को आर्थिक विकास का एक अहम् हिस्सा माना जा रहा है अतः भारत को ऐसा कोई भी कदम नहीं उठाना चाहिये जिससे कि निवेश प्रभावित हो।
  • “अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक संबंधों पर अनुसंधान के लिये भारतीय परिषद” ने वर्ष 2015 में प्रकशित अपनी एक रिपोर्ट में यह दिखाया है कि अमेरिका से प्राप्त विदेशी निवेश का लाभ भारत ने महत्त्वपूर्ण ढंग से उठाया है। वर्ष 1991 के आर्थिक सुधारों के बाद अमेरिका ही नहीं बल्कि दुनिया की तमाम बड़ी अर्थव्यवस्थाओं से पारस्परिक लाभ सृजन हुआ है, ऐसे में भारत के पास एफडीआई को नज़रंदाज़ करते हुए सरंक्षणवाद की तरफ कदम बढ़ाने का कोई तुक नहीं है।

क्या हो आगे का रास्ता?

  • यहाँ जैसे का तैसा जवाब देने के बजाय, भारत को द्विपक्षीय और बहुपक्षीय दोनों मंचों पर इन प्रतिबंधों के प्रति चिंता व्यक्त करते हुए आक्रामक ढंग से अपनी आवाज उठानी चाहिये।
  • गौरतलब है कि वर्तमान में विश्व व्यापार एवं निवेश ठहराव की स्थिति में है और बहुपक्षीय व्यापार प्रणाली प्रभावित हो रही है। आर्थिक वैश्वीकरण को झटके लगे हैं तथा कुछ देशों की नीतियों में संरक्षणवादी प्रवृतियों एवं वैश्वीकरण विरोधी सोच का उभार देखा जा रहा है।
  • उल्लेखनीय है कि विश्व भर के नेताओं ने 2008 के वित्तीय संकट के बाद वैश्विक अर्थव्यवस्था को रक्षात्मक नीतियों का पालन करने से रोकने में अहम् भूमिका निभाई थी।
  • अब समय है कि बहुपक्षीय मंचों के माध्यम से वर्ष 2008 के जैसे ही एक वैश्विक आम सहमति बनाने में भारत सक्रिय भूमिका निभाए।
  • यदि ऐसा न हुआ तो बढ़ता संरक्षणवाद,वैश्विक व्यापार में अब तक की प्रगति पर पानी फेरने का काम कर सकता है।

निष्कर्ष

  • विदित हो कि भारत ने पिछले साल मार्च में एच-1 बी वीज़ा से जुड़े नियमों को लेकर डब्लूटीओ में एक आपत्ति दाखिल कराई थी। हाल ही में अमेरिकी कांग्रेस की एक रिपोर्ट में यह चेतावनी दी गई थी कि अगर एच-1बी और एल-1 वीज़ा विवाद का निपटारा विश्व व्यापार संगठन (World Trade Organization - WTO) करता है, तो अमेरिका के खिलाफ जवाबी कार्रवाई की जा सकती है।
  • अमेरिका में एच 1 बी वीज़ा पर काम करने वाले अधिकांशतः पेशेवरों के साथ उनका परिवार भी अमेरिका में ही रहने आ जाता है। चूँकि उनका यह परिवार किसी न किसी व्यवसाय से जुड़ा होता है इसलिये अमेरिका की अर्थव्यवस्था में अहम् भूमिका निभाता है। वीज़ा नियमों के माध्यम से अमेरिका न केवल विदेशों से आने वाले  पेशवरों को रोक रहा है बल्कि अपने अर्थव्यवस्था की प्रगति पर भी विराम लगा रहा है।
  • अमेरिका सहित तमाम देशों को यह समझना होगा कि सरंक्षणवाद के नकारात्मक प्रभावों से वे भी अछूते नहीं रह सकते हैं।
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