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अंतर्राष्ट्रीय संबंध

भारत को वैश्विक मूल्य श्रृंखलाओं की आवश्यकता क्यों है?

  • 06 Oct 2017
  • 13 min read

भूमिका

पिछले कुछ समय से सरकार निरंतर जीएसटी के कारण निर्यात के संबंध में आई परेशानी का हल करने के लिये काम कर रही है। इस संबंध में भारत सरकार द्वारा जीवीसी के संदर्भ में भी विचार किया जा रहा है। वस्तुतः निर्यात की दर में वृद्धि करने के लिये वैश्विक मूल्य श्रृंखला (Gobal Value Chains - GVCs) में सक्रिय भागीदारी निश्चित रूप से एक सफल एवं प्रभावी तरीका साबित हो सकती है।

  • जीवीसी मॉडल के तहत किसी उत्पाद के जीवन चक्र को कई कार्यों में विभाजित किया जाता है। इसमें भाग लेने वाले देश 'जस्ट इन टाइम' परिस्थितियों में क्रमबद्ध रूप से प्रत्येक कार्य को पूरा करते हैं। 
  • जीवीसी को समझने के लिये आईफ़ोन एक अच्छा उदाहरण है। अमेरिका द्वारा आईफोन का डिज़ाइन और प्रोटोटाइप तैयार किया जाता है, जबकि ताइवान और दक्षिण कोरिया द्वारा इसमें प्रयुक्त होने वाले एकीकृत सर्किट एवं प्रोसेसर जैसे महत्त्वपूर्ण इनपुट्स को तैयार किया जाता है। इसके पश्चात् चीन में अंतिम रूप प्रदान करके दुनिया भर में इसका विपणन किया जाता है। 

जीवीसी का विभाजन

  • जैसा कि हम जानते हैं कि खराब व्यापारिक बुनियादी ढाँचे से निर्यात लागत में तो वृद्धि होती ही है, साथ ही समय भी बहुत अधिक लगता है। लेकिन, ये सभी स्थितियाँ किसी देश को जीवीसी में भाग लेने से रोक सकती हैं अथवा नहीं, इसके विषय में स्पष्ट रूप से अधिक ज्ञात नहीं है।
  • भारत का मौजूदा निर्यात स्वरूप खराब व्यापारिक बुनियादी संरचना की भली-भाँति पुष्टि करता है।
  • वस्तुतः भारत के मौजूदा निर्यात प्रोफाइल के संबंध में इसकी कमज़ोर बुनियादी संरचना के प्रभाव को समझने के लिये वैश्विक वाणिज्यिक वस्तुओं के व्यापार को दो भागों में विभाजित करते हैं, एक छोटा भाग और एक बड़ा। 
  • इस छोटे भाग में ऐसे उत्पाद शामिल होते हैं जिनकी वैश्विक व्यापार में 30 प्रतिशत या 4.8 खरब डॉलर की भागीदारी होती है। जबकि बड़े भाग में शेष वैश्विक व्यापार को शामिल किया गया है।
  • एक ऐसा देश जो इस बड़े भाग से संबंधित उत्पादों का निर्यात करता है, उसके विकास में वृद्धि होने की संभावनाएँ छोटे भाग वाले की अपेक्षा अधिक होती है।
  • विडंबना यह है कि भारत के कुल निर्यात आय का लगभग 70 प्रतिशत हिस्सा इसी छोटे भाग वाले उत्पादों से संबद्ध हैं। 
  • उल्लेखनीय है कि निम्नलिखित उत्पादों के निर्यात में भारत की हिस्सेदारी काफी अधिक हैं- छोटे आकार के हीरे (19.8 प्रतिशत), आभूषण (12.9 प्रतिशत), चावल (39.3 प्रतिशत), भैंस का मांस (19.1 प्रतिशत), चिंपी (17.7 प्रतिशत) । इसके अतिरिक्त अन्य प्रमुख उत्पादों में पेट्रोलियम, कपास, धागा, महिलाओं के कपड़े, दवाएँ एवं ऑटो घटक शामिल हैं।
  • यदि इस संबंध में गहराई से विचार किया जाए तो ज्ञात होता है कि वैश्विक व्यापार का छोटा आकार भविष्य में देशों के विकास की संभावना को सीमित करता है। 
  • इसके अलावा, अधिकांश उत्पादों को कम लागत वाले देशों जैसे बांग्लादेश और वियतनाम से तीव्र प्रतिस्पर्धा का भी सामना करना पड़ता है। 
  • इस श्रेणी में शामिल उत्पाद कम कुशल व्यापारिक बुनियादी ढाँचे के प्रति सहिष्णु होते हैं। इस प्रकार के ज़्यादातर मामलों में निर्यातक खरीदार को छूट देने से बचते हैं।

कमज़ोर वैश्विक भागीदारी

  • अब बात करते हैं वैश्विक व्यापार के बड़े हिस्से की, जिसके अंतर्गत भारत के कुल निर्यात का लगभग 30 प्रतिशत हिस्सा शामिल होता है। इसके तहत इलेक्ट्रॉनिक्स, दूरसंचार और उच्च स्तरीय इंजीनियरिंग उत्पादों को शामिल किया जाता है। 
  • इसके अतिरिक्त निम्नलिखित उत्पाद ऐसे भी हैं जिनमें भारतीय निर्यात की हिस्सेदारी बहुत निम्न है - मोबाइल फोन (0.19 प्रतिशत), एकीकृत सर्किट (0.01 प्रतिशत), कंप्यूटर (0.04 प्रतिशत), सौर-संचालित डायोड, ट्रांजिस्टर (0.14 प्रतिशत) तथा एलसीडी (0.04 प्रतिशत)।
  • उल्लेखनीय है कि चीन, जापान, दक्षिण कोरिया, थाईलैंड और मलेशिया गुणवत्तापूर्ण व्यापारिक बुनियादी ढाँचे के माध्यम से जीवीसी का हिस्सा बने हैं, जबकि भारत ऐसा करने में असफल रहा है। इसका एक अहम् कारण यह है कि भारत अभी तक जीवीसी हेतु आवश्यक महत्त्वपूर्ण मानकों (बंदरगाहों/सीमा शुल्क पर कुशलता पूर्वक प्रवेश/निकास संबंधी मानकों) को पूरा नहीं करता है।

जीवीसी में भाग कैसे लें? 

जीवीसी के अंतर्गत शामिल होने के लिये भारत को निम्नलिखित चार कदम उठाने होंगे – 

  • सर्वप्रथम भारत को जीवीसी के अनुमोदन/झुकाव वक्र संबंधी सभी पक्षों को लक्षित करने के लिये नीतिगत पहल शुरू करनी होगी। अनुमोदन/झुकाव वक्र जीवीसी में उत्पाद जीवन-चक्र का प्रतिनिधित्व करता है। 

♦  इसके अंतर्गत अवधारणा से लेकर प्रोटोटाइप के विकास, निर्माण तथा बिक्री के बाद की सेवाएँ शामिल होती हैं। 
♦  गौर करने वाली बात यह है कि इस वक्र के सबसे अंतिम छोर वाले देश जीवीसी भागीदारी से सबसे अधिक कमाई करते हैं।
♦  यही कारण है कि आर एंड डी विशेषज्ञता के साथ अमेरिका, जर्मनी, जापान, ताइवान और दक्षिण कोरिया इस वक्र के सबसे अंतिम छोर पर काबिज़ हैं, जबकि चीन, जहाँ उत्पाद को अंतिम रूप प्रदान किया जाता है, निचले स्थान पर आता है।
♦  स्पष्ट है कि जीवीसी के संबंध में अपनी भागीदारी सुनिश्चित करने के किये भारत को चयनित उत्पाद समूहों हेतु आवश्यक वक्र के सभी हिस्सों को लक्षित करना होगा। 
♦  इसके अंतर्गत आर एंड डी, सिस्टम डिज़ाइन एवं रोज़गार के अवसरों का सृजन करने के लिये विनिर्माण के अंतिम स्तर के साथ-साथ बड़े बाज़ार होने के कारण उच्च स्तरीय अनुभाग में अपनी विशेषज्ञता को उत्कृष्ट स्तर का निर्मित करना होगा। 
♦  इसके अतिरिक्त उपरोक्त कार्यों हेतु निवेश को आकर्षित करने के लिये आवश्यक नीति पैकेज भी तैयार किये जाने की आवश्यकता है।

  • सभी निर्यात-आयात संबंधी दिशा-निर्देशों के ऑनलाइन अनुपालन हेतु एक राष्ट्रीय व्यापार नेटवर्क (National Trade Network - NTN) स्थापित किया जाना चाहिये। इसके अंतर्गत निर्यातकों को एक ही स्थान पर सभी सूचनाओं/दस्तावेज़ों को ऑनलाइन जमा करने की अनुमति प्रदान की जानी चाहिये। इसमें सीमा शुल्क, डीजीएफटी, शिपिंग कंपनियों, समुद्री बंदरगाहों तथा हवाई अड्डों के साथ-साथ बैंकों से अलग से निपटने की कोई व्यवस्था नहीं होनी चाहिये।

♦  इसके अलावा, एक अंतर्निहित बुद्धिमत्ता व्यवस्था (inbuilt system intelligence) द्वारा उपयुक्त एजेंसियों को आवश्यक जानकारियों का आदान-प्रदान भी किया जाना चाहिये।
♦  इसके अतिरिक्त सभी संगठनों को एक सेवा अनुबंध के तहत शामिल किया जाना चाहिये, ताकि किसी भी प्रकार की प्रतिक्रिया के संबंध में कम-से-कम 2-5 घंटों के भीतर जवाब दिया जा सकें तथा उपयोगकर्त्ताओं को ऑनलाइन अनुमतियाँ प्राप्त करने में सक्षम बनाया जा सकें। 
♦  भारत को एक नए व्यापारिक डिज़ाइन और प्रक्रिया प्रवाह के साथ-साथ NTN को स्थापित करने के विकल्प पर गंभीरता से विचार करना चाहिये।

  • इसके अतिरिक्त भारत द्वारा वैश्विक सर्वोत्तम मापदंडों के साथ जहाज़ों के टर्नअराउंड समय का मिलान किया जाना चाहिये, ताकि अनावश्यक रूप से होने वाली देरी के संबंध में प्रभावी रूप से कार्य किया जा सके। इससे न केवल जहाजों की कतारों में कमी आएगी,  बल्कि लेन देन की प्रक्रिया में भी तेज़ी आएगी। साथ ही बुनियादी सुविधाओं का अधिक से अधिक बेहतर उपयोग भी सुनिश्चित किया जा सकेगा। शिपिंग कंपनियों, बंदरगाह ऑपरेटरों और सीएफएस के साथ व्यापारी इंटरफेस के संबंध में भी ध्यान दिये जाने की ज़रूरत है।

♦ अक्सर निर्यातकों की यह शिकायत रहती है कि कई शिपिंग कंपनियाँ नित नए शुल्क अधिरोपित करती रहती है। जब तक इन शुल्कों का भुगतान नहीं कर दिया जाता है तब तक सामान का विमोचन (release) होने में देरी होती रहती है। स्पष्ट है कि इस संदर्भ में एक नियामक स्थापित करके इस समस्त प्रणाली में पारदर्शिता सुनिश्चित की जानी चाहिये। 

  • भारतीय कंपनियों को जीवीसी संबंधी आवश्यकताओं को पूरा करने के लिये उत्पादन प्रक्रियाओं और उत्पाद की गुणवत्ता का उन्नयन करना होगा। भारत को इस संबंध में अपने मानकों को विकसित करने, विश्व स्तर पर मान्यता प्राप्त परीक्षण प्रयोगशालाओं की स्थापना करने तथा सहयोगी देशों के साथ म्युचुअल रिकॉग्निशन एग्रीमेंट्स (Mutual Recognition Agreements - MRA) पर हस्ताक्षर करने के लिये एक संस्था बनाने की ज़रूरत है, ताकि इस संबंध में आवश्यक कार्यवाही की जा सके।

निष्कर्ष

यदि भारत उपरोक्त सभी पक्षों के संबंध में कार्यवाही करता है तो निश्चित तौर पर देश में निर्यात के संदर्भ में आने वाली लागत और समय में तो कमी आएगी ही साथ ही प्रतिस्पर्धा में भी वृद्धि होगी। इससे जहाँ एक ओर घरेलू और विदेशी फर्मों के लिये जीवीसी में भागीदारी हेतु आवश्यक सुविधाओं में निवेश करने के अवसर उत्पन्न होंगे, वहीं दूसरी ओर वैश्विक व्यापार में भारत की स्थिति में भी सुधार होगा। 

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