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भारतीय समाज

सार्वभौमिक विवाह योग्य आयु का निर्धारण

  • 21 Aug 2020
  • 13 min read

इस Editorial में The Hindu, The Indian Express, Business Line आदि में प्रकाशित लेखों का विश्लेषण किया गया है। इस लेख में सार्वभौमिक विवाह योग्य आयु का निर्धारण व उससे संबंधित विभिन्न पहलुओं पर चर्चा की गई है।आवश्यकतानुसार, यथास्थान टीम दृष्टि के इनपुट भी शामिल किये गए हैं।


संदर्भ

स्वतंत्रता दिवस के उपलक्ष्य पर लालकिले की प्राचीर से प्रधानमंत्री ने घोषणा की थी कि सरकार महिलाओं के लिये विवाह की न्यूनतम आयु बढ़ाने पर विचार कर रही है, जो वर्तमान में 18 वर्ष निर्धारित है। प्रधानमंत्री ने कहा कि महिलाओं के लिये विवाह की न्यूनतम आयु सीमा पर पुनर्विचार करने हेतु एक समिति का भी गठन किया गया है। केंद्र सरकार समिति द्वारा रिपोर्ट प्रस्तुत करने के पश्चात् इस विषय पर निर्णय लेगी।

भारत में विवाह की न्यूनतम आयु खासकर महिलाओं के लिये विवाह की न्यूनतम आयु सदैव एक विवादास्पद विषय रहा है, और जब भी इस प्रकार के नियमों में परिवर्तन की बात की गई है तो सामाजिक और धार्मिक रुढ़िवादियों का कड़ा प्रतिरोध देखने को मिला है। यह समिति महिलाओं के लिये विवाह योग्य न्यूनतम आयु की समीक्षा करने के साथ ही मातृत्व स्वास्थ्य पर इसके निहितार्थों का अध्ययन करेगा तथा अपनी सिफारिशें सरकार को प्रस्तुत करेगा। बज़ट भाषण के दौरान वित्तमंत्री ने सार्वभौमिक विवाह योग्य आयु के विषय पर चर्चा करते हुए कहा कि वर्ष 1978 में पूर्ववर्ती शारदा अधिनियम द्वारा निर्धारित विवाह योग्य आयु को 14 वर्ष से बढ़ाकर 18 वर्ष कर दिया गया था। जून, 2020 को केंद्रीय महिला एवं बाल विकास मंत्रालय ने मातृत्त्व की आयु, मातृ मृत्यु दर और महिलाओं के पोषण स्तर में सुधार से संबंधित मुद्दों की जाँच करने के लिये एक टास्क फोर्स का गठन किया था। सामाजिक कार्यकर्त्ता और समता पार्टी की पूर्व अध्यक्ष जया जेटली की अध्यक्षता में गठित इस टास्क फोर्स में नीति आयोग के सदस्य और कई सचिव स्तर के अधिकारी शामिल हैं।

ऐतिहासिक पृष्ठभूमि

  • नेटिव मैरिज एक्ट (Native Marriage Act)
    • विवाह सुधार की दिशा में प्रथम प्रयास बाल विवाह के तीव्र विरोध के रूप में प्रारंभ हुआ। समाज सुधारकों के दबाव में बाल विवाह पर प्रतिबंध लगाने के लिये वर्ष 1872 में नेटिव मैरिज एक्ट पारित किया गया।
    • इस एक्ट में 14 वर्ष से कम आयु की कन्याओं का विवाह वर्जित कर दिया गया।
  • सम्मति आयु अधिनियम (Age Consent Act)
    • नेटिव मैरिज़ एक्ट विवाह सुधार की दिशा में बहुत प्रभावी नहीं हो सका, अतः एक पारसी समाज सुधारक वी. एम. मालाबारी के प्रयत्नों के परिणामस्वरूप वर्ष 1891 में सम्मति आयु अधिनियम पारित किया गया।
    • इस अधिनियम में 12 वर्ष से कम आयु की कन्याओं के विवाह पर रोक लगा दी गई।
  • शारदा अधिनियम (Sharda Act)
    • समाज सुधारक हर विलास शारदा के अथक प्रयासों से वर्ष 1930 में शारदा अधिनियम पारित किया गया।
    • इस अधिनियम द्वारा 18 वर्ष से कम आयु के बालक तथा 14 वर्ष से कम आयु की बालिका के विवाह को अवैध घोषित कर दिया गया।
  • बाल विवाह निरोधक (संशोधन) अधिनियम
    • इस अधिनियम में बालक की विवाह योग्य आयु 18 वर्ष से बढ़ाकर 21 वर्ष एवं बालिका की आयु 14 वर्ष से बढ़ाकर 18 वर्ष कर दी गई।
    • अधिनियम में बाल विवाह करने वालों के विरुद्ध दंड का भी प्रावधान है।


क्या है संवैधानिक दृष्टिकोण?

  • विशेष विवाह अधिनियम, 1954 और बाल विवाह निषेध अधिनियम, 2006 भी महिलाओं और पुरुषों के लिये विवाह की न्यूनतम आयु क्रमशः 18 और 21 वर्ष निर्धारित करते हैं।
  • कानून विवाह की न्यूनतम आयु के माध्यम से बाल विवाह और नाबालिगों के अधिकारों के दुरुपयोग को रोकते हैं। विवाह के संबंध में विभिन्न धर्मों के व्यक्तिगत कानूनों के अपने मानक हैं, जो अक्सर रीति-रिवाजों को दर्शाते हैं।
  • इस्लाम में यौवन प्राप्ति को नाबालिगों के विवाह के लिये व्यक्तिगत कानून के तहत वैध माना जाता है।
  • हिंदू धर्म में हिंदू विवाह अधिनियम 1955 की धारा 5 (iii) के तहत वर और वधु की न्यूनतम आयु क्रमशः 21 और 18 वर्ष निर्धारित की गई थी। इस अधिनियम के अनुसार बाल विवाह गैरकानूनी नहीं था लेकिन विवाह में नाबालिग के अनुरोध पर इस विवाह को शून्य घोषित किया जा सकता था।

विवाह योग्य आयु से संबंधित चुनौतियाँ

  • पुरुषों और महिलाओं के लिये विवाह की अलग-अलग आयु का प्रावधान कानूनी विमर्श का विषय बनता जा रहा है। इस प्रकार के कानून रीति-रिवाजों और धार्मिक प्रथाओं का एक कोडीकरण है जो पितृसत्ता में निहित हैं।
  • विवाह की अलग-अलग आयु, संविधान के अनुच्छेद 14 ( समानता का अधिकार) और अनुच्छेद 21 (गरिमा के साथ जीवन जीने का अधिकार) का उल्लंघन करती है।
  • विधि आयोग ने वर्ष 2018 मे परिवार कानून में सुधार के एक परामर्श पत्र में तर्क दिया कि पति और पत्नी की अलग-अलग कानूनी आयु रूढ़िवादिता को बढ़ावा देती है।
  • विधि आयोग के अनुसार, पति और पत्नी की आयु में अंतर का कानून में कोई आधार नहीं है क्योंकि पति या पत्नी का विवाह में शामिल होने का तात्पर्य हर तरह से समान है और वैवाहिक जीवन में उनकी भागीदारी भी समान होती है।
  • महिला अधिकारों हेतु कार्यरत कार्यकर्त्ताओं ने भी तर्क दिया है कि समाज के लिये यह केवल एक रूढ़ि मात्र है कि एक समान आयु में महिलाएँ, पुरुषों की तुलना में अधिक परिपक्व होती हैं और इसलिये उन्हें कम आयु में विवाह की अनुमति दी जा सकती है।
  • महिलाओं के खिलाफ भेदभाव के उन्मूलन संबंधी समिति (Committee on the Elimination of Discrimination against Women- CEDAW) जैसी अंतर्राष्ट्रीय संस्थाएँ भी ऐसे कानूनों को समाप्त करने का आह्वान करती हैं जो पुरुषों की अपेक्षा महिलाओं में अलग भौतिक और बौद्धिक परिपक्वता संबंधी विचारों से घिरे हैं।

सामजिक मान्यताएँ

  • समाज में ऐसी मान्यता बनी हुई है कि बालिका का विवाह जल्दी कर देने से उसे पथ-भ्रष्ट होने से बचाया जा सकता है।
  • महिलाएँ पूर्ण रूप से परिवार की देखभाल करने तथा बच्चों को जन्म देने के लिये ही बनी हैं इसलिये उनका शीघ्र ही विवाह कर देना चाहिये।
  • वर्ष 2018 में परिवार कानून में सुधार के संदर्भ में विधि आयोग ने तर्क दिया कि विवाह योग्य अलग-अलग कानूनी मानक होने से "उन रूढ़िवादी मान्यताओं को बल मिलता है जो पत्नियों को पति से कमतर आँकती हैं"
  • महिला अधिकार कार्यकर्त्ताओं ने यह भी तर्क दिया है कि कानून इस रूढ़ि को बनाए रखता है कि महिलाएँ समान आयु के पुरुषों की तुलना में अधिक परिपक्व होती हैं और इसलिये उन्हें जल्द विवाह करने की अनुमति दी जा सकती है।

न्यूनतम आयु में परिवर्तन की आवश्यकता क्यों?

  • यूनिसेफ (UNICEF) के आधिकारिक आँकड़े बताते हैं कि विश्व भर में पाँच वर्ष से कम उम्र के सभी बच्चों में प्रत्येक पाँचवें बच्चे की मृत्यु भारत में होती है। इन आँकड़ों से पता चलता है कि भारत में शिशु मृत्यु दर (IMR) काफी खतरनाक स्तर पर पहुँच गई है।
  • संयुक्त राष्ट्र के शिशु मृत्यु दर के अनुमान से संबंधित आँकड़ों के अनुसार, वर्ष 2018 में संपूर्ण भारत में कुल 721,000 शिशुओं की मृत्यु हुई थी, जिसके अर्थ है कि इस अवधि में प्रति दिन औसतन 1,975 शिशुओं की मौत हुई थी।
  • वर्ष 2015-16 के राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (National Family Health Survey-NFHS) के अनुसार, 20-24 आयु वर्ग की महिलाओं में से 48 प्रतिशत का विवाह 20 वर्ष की उम्र में हो जाता है, इतनी छोटी सी उम्र में विवाह होने के पश्चात् गर्भावस्था में जटिलताओं और बाल देखभाल के बारे में जागरूकता की कमी के कारण मातृ और शिशु मृत्यु दर में वृद्धि देखने को मिलती है।
  • ध्यातव्य है कि भारत में वर्ष 2017 में गर्भावस्था और प्रसव से संबंधित जटिलताओं के कारण कुल 35000 महिलाओं की मृत्यु हुई थी।
  • भारत में जिस समय महिलाओं को उनके भविष्य और शिक्षा की ओर ध्यान देना चाहिये, उस समय उन्हें विवाह के बोझ से दबा दिया जाता है, 21वीं सदी में इस रुढ़िवादी प्रथा में बदलाव की आवश्यकता है, जो कि महिला सशक्तीकरण की दिशा में एक महत्त्वपूर्ण कदम साबित हो सकता है।
  • विशेषज्ञ मानते हैं कि महिलाओं के विवाह की न्यूनतम आयु को बढ़ाने से महिलाओं के पास शिक्षित होने, कॉलेजों में प्रवेश करने और उच्च शिक्षा प्राप्त करने हेतु अधिक समय होगा।
  • इस निर्णय से संपूर्ण भारतीय समाज खासतौर पर निम्न आर्थिक वर्ग पर इस निर्णय का खासा प्रभाव देखने को मिलेगा।

निष्कर्ष

  • उल्लेखनीय है कि महिलाओं के विवाह की उम्र को बढ़ाना महिला सशक्तीकरण और महिला शिक्षा की दिशा में एक महत्त्वपूर्ण कदम हो सकता है, हालाँकि यह भी आवश्यक है कि नियम बनाने के साथ-साथ उनके कार्यान्वयन पर भी ध्यान दिया जाए, क्योंकि भारत में पहले से ही महिलाओं के विवाह की न्यूनतम सीमा 18 वर्ष तय है, किंतु आँकड़े बताते हैं कि अधिकांश क्षेत्रों में इन नियमों का पालन नहीं हो रहा है।

प्रश्न- महिलाओं की विवाह योग्य आयु के निर्धारण में ऐतिहासिक पृष्ठभूमि का संक्षेप में उल्लेख करते हुए न्यूनतम विवाह योग्य आयु में परिवर्तन की आवश्यकता का विश्लेषण कीजिये।

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