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एडिटोरियल

अंतर्राष्ट्रीय संबंध

कृषि संकट का मूल कारण

  • 20 Jun 2017
  • 7 min read

संदर्भ

  • देश के कुछ राज्यों में और विशेष रूप से भाजपा शासित राज्यों में किसानों  के असंतोष एवं हिंसक प्रदर्शन से केंद्र सरकार सकते में है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लोक सभा चुनाव के समय किसानों  से अच्छे दिनों का वादा किया था। परन्तु वह अभी तक पूरा नहीं हुआ है। किसान आज भी अच्छे दिनों की प्रतीक्षा कर रहें है। किसान अपने-आप को ठगा महसूस कर रहे हैं।  
  • इस आलेख में कृषि लागत और मूल्य आयोग द्वारा निर्धारित की गई कीमतों तथा न्यूनतम समर्थन मूल्य से उसकी तुलना करके यह समझाने का प्रयास किया गया है कि आखिर सरकार द्वारा निर्धारित  फसल की कीमत एवं किसानों के असंतोष के बीच इतना अंतर क्यों है? तथा खेती की व्यवहार्यता एक गंभीर समस्या है जिसका अभी तक पूर्ण रूप से समाधान नहीं हुआ है। 

विश्लेषण

  • सरकार  ने पाँच साल में किसानों  की आय दुगनी करने तथा उपज की खरीद कीमत को उसके उत्पादन लागत का पचास फीसदी तक करने का वादा किया था। लेकिन  तीन साल बीत चुके हैं अभी तक किसानों  की आय दुगनी नहीं हुई है। उधर विमुद्रीकरण के प्रभाव के फलस्वरूप ग्रामीण आय में नकदी की कमी का प्रभाव भी किसानों  की आय पर पड़ा है। पिछले वर्ष मानसून सामान्य रहने के बावजूद भी किसान इसके लाभ से वंचित रहे हैं।  
  • किसानों  की मुख्य मांगे ऋण बोझ से तत्काल राहत तथा फसल की लाभदायक कीमत की प्राप्ति है। इस इस समस्या को समझने के लिये कई सारे अन्य कारकों पर भी विचार करना होगा।  
  • इस सरकार ने पिछले तीन वर्षों में खेती के कुल लागत के पचास फीसदी से अधिक पर उपज का क्रय नहीं किया है। कारण जो घोषित न्यूनतम समर्थन मूल्य है वह वादे के स्तर का नहीं है एवं सरकारी खरीद में इनके अपर्याप्त  क्रियान्वयन का अर्थ है कि उन्होंने कृषि बाज़ार के लिये सतह कीमत की तरह भी संचालन नहीं किया है।

 उपज के लागत की गणना

  • यह ध्यान देने की बात है कि उपज के लागत की गणना भारित औसत के आधार पर की जाती है जिसके तहत वह कभी- कभी कुछ राज्यों में न्यूनतम समर्थन मूल्य तक नहीं पहुँच पाती है। उदाहरण के लिये   गेंहूँ  के मामले में कृषि लागत और मूल्य आयोग की औसत लागत 1203 रुपए है जो पंजाब में प्रति क्विन्टल 1100 रूपए  से लेकर पश्चिम बंगाल में 2200 रुपए जैसी  ऊँची कीमतों को भी कवर करता है। महाराष्ट्र में फसल बोने की लागत 1900 रुपए प्रति क्विन्टल है जो न्यूनतम समर्थन मूल्य से अधिक है। 
  • रबी के मौसम के लिये कृषि लागत और मूल्य आयोग की रिपोर्ट वर्ष 2017-18 यह स्वीकार करती है कि मूल्य निर्धारण नीति उपज लागत से अधिक के प्रयास में निहित नहीं होती, क्योंकि यह अन्य कारकों  जैसे अंतर-फसल समानता पर भी विचार करता है। हालाँकि लागत इसका एक महत्वपूर्ण निर्धारक है।
  • वर्तमान में उपज के लिये सिफारिश की गई कीमत फसल उत्पादन के कुल लागत के पचास प्रतिशत के अधिक करीब नही दिखती है। यह भी एक मुद्दा है कि  क्या सिफारिश की गई न्यूनतम समर्थन मूल्य उस बाज़ार कीमत के सतह की तरह कार्य करते हैं जिसका सामना किसान को करना पड़ता है। यह विभिन्न राज्यों में खरीद-नीति की प्रभाव-शून्यता को दर्शाता है। 
  • किसान आन्दोलन भाजपा शासित राज्यों में हो रहे हैं परन्तु इसके पीछे कोई षडयंत्र नहीं है जैसा कि  आरोप लगाया जा रहा है। दरअसल इन राज्यों की सरकारें बाज़ार कीमतों को न्यूनतम समर्थन मूल्य के बराबर या अधिक बनाए  रखने में असफल  रही हैं जो कि खरीद नीति की एक विशेष प्रक्रिया है । 

मंडियों में कीमतें

  • महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश में, जहाँ सरकार को किसानों  के क्रोध का सामना करना पड़ा है, वहीं  मंडियों में उपज की कीमत औसत कीमत से कम रही है। 31 मई से 15 जून तक के आँकड़ो के आधार पर, मध्य प्रदेश की अनेक मंडियों में गेंहूँ की बाज़ार कीमत, न्यूनतम समर्थन मूल्य से कम रही है। महाराष्ट्र में भी लगभग यही हाल रहा है। इस तरह विभिन्न मंडियों में अलग-अलग कीमतों के कारण किसानों को कई ज़िलों में कम कीमतों का सामना करना पड़ा है। 
  • दोनों राज्यों में एक तरफ जहाँ चने का भाव औसत से अधिक रहा तो, वहीं मध्य प्रदेश में मसूर की कीमत ने किसानों  को निराश किया। मध्य प्रदेश की सभी मंडियों में इसकी कीमत औसत से नीचे थी । ज्ञात हो कि  मध्य प्रदेश में देश का 44% मसूर पैदा किया जाता है। 
  • हाल के प्रदर्शन के केंद्र में रहा मध्य प्रदेश का मंदसौर ज़िले में भी इसकी कीमत 650 रूपए प्रति क्विन्टल  थी जो कि न्यूनतम समर्थन मूल्य से काफी कम थी।  
  • यही हाल सोयाबीन और कपास की फसल का भी है जिनकी कीमतें पिछले मौसम में घोषित न्यूनतम समर्थन मूल्य  से नीचे चल रही है। विमुद्रीकरण से उपजी नकदी की समस्या के कारण शीघ्र नष्ट होने वाली सब्जियों एवं फलों की कीमतें भी नीचे आ गई हैं।

निष्कर्ष
इस तरह यह स्पष्ट है कि किसानों के क्रोध का कारण उचित है। कोई भी त्वरित तथा अविवेकी ऋण माफी उनके आफत या क्रोध को राहत नहीं देगा।

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