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‘आईपीवी’ समस्या के समाधान में एसएचजी और जेंडर बजटिंग की भूमिका

  • 27 Dec 2017
  • 10 min read

संदर्भ

अंतरंग साथी द्वारा हिंसा (Intimate partner violence-IPV)  एक गंभीर समस्या है जो महिला उत्पीड़न और घरेलू हिंसा को बढ़ावा देने का काम तो करती ही है, साथ में सार्वजानिक स्वास्थ्य की बेहतरी को भी प्रभावित करती है।

आईपीवी को बढ़ावा दरअसल उस पितृसत्तात्मक सोच से मिलता है जहाँ यह मान्यता है कि जो महिलाएँ अपने लिंग निर्धारित भूमिकाओं का पालन नहीं करती हैं वे पीटे जाने के योग्य हैं।

क्या है आईपीवी (Intimate partner violence-IPV) ?

महिलाओं का उनके अंतरंग साथी द्वारा शारीरिक, यौन, आर्थिक या भावनात्मक शोषण किया जाना या शोषण की धमकी देना ‘अंतरंग साथी द्वारा हिंसा’ (आईपीवी) कहलाती है।

यदि सूक्ष्म स्तर पर अवलोकन करें तो आईपीवी घरेलू हिंसा का ही एक रूप है। भारत में वैसी कोई भी हिंसा जो पीड़ित व्यक्ति के जैविक संबंधियों द्वारा की गई है घरेलू हिंसा कहलाती है।

 आईपीवी को बढ़ावा देने वाले कारक 

आँकड़े में आईपीवी

  • विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट:

⇒ विश्व स्वास्थ्य संगठन का अनुमान है कि पूरे विश्व में रिलेशनशिप (पति या पार्टनर के साथ) में रहने वाली लगभग एक तिहाई महिलाओं को उनके पति/पार्टनर द्वारा यौन हिंसा तथा शारीरिक हिंसा का सामना करना पड़ा है।

  • संयुक्त राष्ट्र पापुलेशन फण्ड रिपोर्ट:

⇒ संयुक्त राष्ट्र के पापुलेशन फण्ड रिपोर्ट के अनुसार लगभग दो-तिहाई विवाहित भारतीय महिलाएँ घरेलू हिंसा की शिकार हैं।
⇒ रिपोर्ट के अनुसार भारत में 15 से 49 वर्ष की आयु की 70 फीसदी विवाहित महिलाओं को मार-पीट और जबरन यौन संबंध का शिकार होना पड़ा है।

  • लांसेट रिपोर्ट:

⇒ वर्ष 2014 के अध्ययन पर आधारित लांसेट की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत उन देशों की सूची में निचले स्थानों पर स्थित है, जहाँ कि महिलाओं के खिलाफ यौन हिंसा की सबसे कम रिपोर्टिंग की जाती है।
⇒ रिपोर्ट में यह भी जिक्र किया गया है कि भारत में महिलाओं के विरुद्ध हिंसा के उदाहरण बौद्ध तथा जैन समुदायों में सबसे कम, जबकि मुस्लिमों में सर्वाधिक देखने को मिले हैं।
⇒ गौरतलब है कि जैनों एवं बौधों की तुलना में मुस्लिमों में शिक्षा का स्तर काफी कम है।

  • नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे की रिपोर्ट

⇒ नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे की हालिया रिपोर्ट के अनुसार कम से कम 59 मिलियन भारतीय महिलाओं को पिछले 12 महीनों में शारीरिक या यौन हिंसा का शिकार होना पड़ा है।
⇒ यह रिपोर्ट इस बात का भी जिक्र करती है कि उन परिवारों में जहाँ महिला अपने पति की तुलना में अधिक सफल या आर्थिक रूप अधिक संपन्न होती है वहाँ उसके घरेलू हिंसा के शिकार बनने की संभावना अधिक है।

इन रिपोर्टों से निकलने वाले निष्कर्ष

  • विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट से यह निष्कर्ष निकलता है कि आईपीवी एक वैश्विक चिंता है।
  • संयुक्त राष्ट्र पापुलेशन फण्ड की रिपोर्ट यह दिखाती है कि भारत में आईपीवी और घरेलू हिंसा एक अत्यंत ही गंभीर समस्या है।
  • लांसेट की रिपोर्ट से पता चलता है कि भारत में महिलाओं के विरुद्ध हिंसा के अधिकांश मामलों की रिपोर्टिंग नहीं की जाती है।
  • साथ ही लांसेट रिपोर्ट से यह भी निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि उचित शिक्षा-दीक्षा व्यक्ति को महिलाओं के प्रति संवेदनशील बनाती है।
  • नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे की रिपोर्ट से एक चौंकाने वाला निष्कर्ष निकल कर सामने आता है और वह यह कि आर्थिक तौर पर संपन्न महिलाओं को अधिक घरेलू हिंसा झेलनी पड़ती है।

किन सुधारों की है ज़रूरत?

क्यों नाकाफी साबित हो रहे हैं उपरोक्त सुधार?

  • आपराधिक न्याय समाधान (criminal justice solutions), सामाजिक वंचना झेल रही महिलाओं की पहुँच के बाहर रहा है। इन परिस्थितियों में कोई बाह्य सुधार तभी सुचारू ढंग से कार्य कर पाएगा जब आंतरिक सुधार की दशा और दिशा तय हो।
  • ऐसे में समूह-आधारित समाधान तंत्र अधिक समावेशी विकल्प प्रमाणित हो सकता है। महिलाओं के ‘स्वयं सहायता समूहों’ (self help groups-SHG) की इसमें महत्त्वपूर्ण भूमिका हो सकती है।
  • किसी भी कार्यक्रम या योजना की सफलता बहुत हद इस बात पर निर्भर करती है कि उसके उद्देश्यों की प्राप्ति हेतु उसे कैसी वित्तीय सहायता दी जा रही है।
  • अतः सामूहिक प्रयास और जेंडर बजटिंग अत्यंत ही महत्त्वपूर्ण साबित हो सकते हैं।

सरकार के प्रयास

  • दरअसल, ऐसा नहीं है कि इन बातों की पहचान नहीं की गई है। ऐसे कई महत्त्वपूर्ण सुधार किये गए हैं, जिनकी मदद से महिलाओं को कानूनी पचड़ों में उलझाए बिना उनकी समस्यायों का निदान किया जा रहा है। ऐसे कुछ महत्त्वपूर्ण सुधार हैं:

⇒ विभिन्न राज्यों में नारी अदालतों (womens courts) की स्थापना
⇒ राजस्थान में महिला संसाधन केंद्र की स्थापना
⇒ पश्चिम बंगाल में ‘शालिनी’ योजना की शुरुआत
⇒ दिल्ली में महिला पंचायतों का शुभारंभ

  • गौरतलब है कि इन संस्थाओं ने आईपीवी को व्यक्तिगत समस्या न मानकर एक सार्वजनिक मुद्दे के रूप में चिन्हित किया है।

आगे की राह 

  • बेहतर हो स्वयं सहायता समूह

⇒ महिलाओं के खिलाफ हिंसा समाज में लैंगिक असमानता का एक स्पष्ट उदहारण है और यह मौलिक मानवाधिकारों का गंभीर उल्लंघन भी है।
⇒ महिलाएँ स्वयं के ऊपर हो रहे अत्याचारों के बारे में बात भी नहीं कर पाती हैं, ऐसे में महिलाओं के स्वयं सहायता समूह वैसे मंच साबित होंगे, जहाँ महिलाएँ शोषण की पहचान और इनसे निपटने की योजना बना सकती हैं।
⇒ इसके लिये स्वयं सहायता समूहों को कुछ इस तरह से विकसित करना होगा जहाँ कि महिलाओं की आर्थिक और सामाजिक चिंताओं को प्राथमिकता मिल सके।
⇒ महिलाओं के विरुद्ध हिंसा के उन्मूलन को महिला सशक्तीकरण का एक आवश्यक घटक बनाना होगा।
⇒ अधिकांश महिलाओं को यह समझने में वक्त लगता है कि हिंसा अस्वीकार्य है, उन्हें सक्षम बनाने हेतु एक  विशिष्ट प्रशिक्षण कार्यक्रम चलाना होगा।

  • बेहतर जेंडर बजटिंग की ज़रूरत

⇒ लैंगिक समानता के लिये कानूनी प्रावधानों के अलावा किसी देश के बजट में महिला सशक्तीकरण तथा शिशु कल्याण के लिये किये जाने वाले धन आवंटन के उल्लेख को जेंडर बजटिंग कहा जाता है।
⇒ दरअसल, जेंडर बजटिंग शब्द विगत दो-तीन दशकों में वैश्विक पटल पर उभरा है। इसके ज़रिये सरकारी योजनाओं का लाभ महिलाओं तक पहुँचाया जाता है।
⇒ महिलाओं के खिलाफ होने वाले भेदभाव को समाप्त करने और लैंगिक समानता को बढ़ावा देने के लिये 2005 से भारत ने औपचारिक रूप से वित्तीय बजट में जेंडर उत्तरदायी बजटिंग (Gender Responsive Budgeting- GRB) को अंगीकार किया था।
⇒ जीआरबी का उद्देश्य है- राजकोषीय नीतियों के माध्यम से लिंग संबंधी चिंताओं का समाधान करना है। हाल के कुछ वर्षों में देखा गया है कि जीआरबी के तहत या तो कम राशि का आवंटन हुआ है या सभी वर्षों में यह राशि समान ही रही है। हमें यहाँ कंजूसी बरतने से बचना होगा।
⇒ जीआरबी के तहत आने वाले मंत्रालयों की संख्या बढ़ानी होगी और महिला कल्याण हेतु होने वाले आवंटन के अतिविकेंद्रीकरण की स्थिति को टालना होगा।

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