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आर्थिक आधार पर मिलेगा 10% आरक्षण

  • 08 Jan 2019
  • 12 min read

8 जनवरी को केंद्र सरकार ने लोकसभा में गरीब अगड़ों को 10 फीसदी आरक्षण देने वाला संविधान संशोधन विधेयक पेश किया। इसके लिये सरकार ने राज्यसभा का सत्र भी बढ़ा दिया है। यह आरक्षण आर्थिक रूप से पिछड़े सभी धर्मों के लोगों को मिलेगा। सरकार के इस फैसले के पीछे राजनीतिक जानकार तीन राज्यों की विधानसभाओं के लिये हुए हालिया चुनावों को ज़िम्मेदार मान रहे हैं। केंद्र में सत्तारूढ़ भाजपा का यह मानना है कि सवर्णों की नाराज़गी के कारण इन चुनावों में उसकी हार हुई; और इस फैसले को सवर्णों का रुख अपनी ओर मोड़ने के प्रयास के तौर पर देखा जा रहा है।

क्या है इस आरक्षण का उद्देश्य?


आरक्षण देने का उद्देश्य केंद्र और राज्य में शिक्षा के क्षेत्र, सरकारी नौकरियों, चुनाव और कल्याणकारी योजनाओं में हर वर्ग की हिस्सेदारी सुनिश्चित करना है।

किसको माना गया है आर्थिक रूप से पिछड़ा?

  • परिवार की आय आठ लाख रुपए सालाना से कम
  • यह OBC आरक्षण में लागू क्रीमीलेयर की सीमा है
  • जिनकी कृषि योग्य भूमि पाँच एकड़ से कम
  • आवासीय घर एक हजार वर्ग फीट से कम
  • अधिसूचित नगरपालिका में 100 गज़ से कम का प्लॉट
  • गैर अधिसूचित नगरपालिका इलाके में आवासीय प्लॉट की सीमा 200 गज़

फिलहाल क्या है आरक्षण की व्यवस्था?


मौजूदा कानून के तहत कुल 49.5 फीसद आरक्षण की व्यवस्था है। इसमें अनुसूचित जाति (SC) को 15 फीसद, अनुसूचित जनजाति (ST)  को 7.5 फीसद और अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) को 27 फीसद आरक्षण दिया जाता है।

आरक्षण और मंडल आयोग


1979 में केंद्र सरकार ने आरक्षण के मुद्दे पर बिहार के पूर्व मुख्य मंत्री बी.पी. मंडल की अध्यक्षता में 6 सदस्यीय पिछड़ा वर्ग आयोग (Backward Class Commission) का गठन किया था। इस आयोग ने अपनी रिपोर्ट 1980 में दी। मंडल आयोग ने जातियों को आरक्षण के सूत्र में बांधने के लिये 1931 की जातिगत जनगणना को अपनी रिपोर्ट का आधार बनाया था। इसमें 3743 जातियाँ तथा समुदाय शामिल थे, जिन्हें OBC का दर्जा देकर 27 फीसद आरक्षण देने का सुझाव दिया गया था। 13 अगस्त, 1990 को आयोग की सिफारिशों के आधार पर पिछड़े वर्गों को सरकारी नौकरियों में 27 फीसद आरक्षण देने की अधिसूचना जारी हुई़। तमाम विरोधों के बीच यह मामला भी सुप्रीम कोर्ट में पहुँचा, जहाँ अंततः 9 न्यायाधीशों वाली संविधानिक पीठ ने 16 नवंबर,1992 को कोर्ट ने मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू करने के फैसले को सही ठहराया। इसके बाद केंद्र सरकार ने 8 सितंबर, 1993 को केंद्र की नौकरियों में पिछड़े वर्गों को 27 फीसदी आरक्षण देने की अधिसूचना जारी की।

संविधान संशोधन प्रस्ताव


सरकार ने इसके लिये आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग हेतु संवैधानिक संशोधन विधेयक, 2018 (Constitution Amendment Bill to Provide Reservation to Economic Weaker Section 2018) के ज़रिये संविधान के अनुच्छेद 15 व 16 में संशोधन करने का प्रस्ताव किया है। यह 124वाँ संविधान संशोधन विधेयक है।

संविधान का अनुच्छेद 15 और 16


अनुच्छेद 15 सभी नागरिकों को समानता का अधिकार देता है। अनुच्छेद 15 (1) के अनुसार, राज्य किसी नागरिक के विरुद्ध धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग, जन्मस्थान या इनमें से किसी के आधार पर कोई अंतर नहीं करेगा। अनुच्छेद 15 (4) और 15 (5) में सामाजिक तथा शैक्षणिक दृष्टि से पिछड़े वर्गों या अनुसूचित जाति और जनजाति के लिये विशेष उपबंध की व्यवस्था की गई है। लेकिन यहां कहीं भी आर्थिक शब्द का इस्तेमाल नहीं किया गया है। इसीलिये सवर्णों को आरक्षण देने के लिये सरकार को इस अनुच्छेद में आर्थिक रूप से कमज़ोर शब्द जोड़ने के लिये संविधान संशोधन की ज़रूरत पड़ेगी।

अनुच्छेद 16 सरकारी नौकरियों और सेवाओं में समान अवसर प्रदान करने की बात करता है। लेकिन 16(4) 16(4)(क), 16(4)(ख) तथा अनुच्छेद 16(5) में राज्य को अधिकार दिया गया है कि वह पिछड़े हुए नागरिकों के किन्हीं वर्गों को सरकारी नौकरियों में आरक्षण दे सकता है। यहाँ भी आर्थिक शब्द का जिक्र कहीं नहीं है। इसलिये सरकार को गरीब सवर्णों को आरक्षण देने के लिये संविधान के इन दो अनुच्छेदों में संशोधन करना होगा।

सुप्रीम कोर्ट में कई बार जा चुका है आरक्षण का मामला


श्रीमती चंपकम (1951):
1921 में मद्रास प्रेसीडेंसी ने एक जातिगत सरकारी आज्ञापत्र जारी किया, जिसमें गैर-ब्राह्मणों के लिये 44 फीसद, ब्राह्मणों के लिये 16 फीसद, मुसलमानों के लिये 16 फीसद, एंग्लो-इंडियन/ ईसाइयों के लिये 16 फीसद और अनुसूचित जातियों के लिये आठ फीसद आरक्षण दिया गया था। इस आदेश को 1951 में चुनौती दी गई और सुप्रीम कोर्ट ने इसे असंवैधानिक घोषित कर दिया।

एम.आर. बालाजी (1963): 1963 के इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने व्यवस्था दी कि पिछड़े वर्ग का वर्गीकरण करना असंवैधानिक है। कोई विशेष वर्ग पिछड़ा वर्ग है या नहीं, इसके निर्धारण के लिये व्यक्ति की जाति ही एकमात्र कसौटी नहीं हो सकती। इसके निर्धारण के लिये आर्थिक दशा, निर्धनता, पेशा, निवास स्थान आदि पर भी ध्यान देना चाहिये।

टी. देवदासन (1963): इस संबंध में सुप्रीम कोर्ट ने 1963 में बालाजी बनाम मैसूर राज्य मामले में सरकार के एक आदेश को ज़रूरत से ज़्यादा मानते हुए खारिज कर दिया। इसमें अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़े वर्गों के लिये 68 फीसदी आरक्षण का प्रावधान किया गया था। सर्वोच्च न्यायालय ने व्यवस्था दी कि कुल आरक्षण की सीमा 50 फीसदी से अधिक नहीं होनी चाहिये।

इंदिरा साहनी (1992): आरक्षण के मुद्दे पर इस मामले में दिये गए सुप्रीम कोर्ट के फैसले को मील का पत्थर माना जाता है। सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में केंद्रीय सरकारी नौकरियों में अन्य पिछड़े वर्गों के लिये अलग से आरक्षण लागू करने को सही ठहराया। इस मामले में पहली बार यह व्यवस्था की गई कि अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति के अधिकारियों और कर्मचारियों के लिये प्रमोशन में रिजर्वेशन अनुमन्य नहीं होगा। संसद ने इस पर विचार किया और संविधान में 77वाँ संशोधन किया गया। इस संशोधन में यह प्रावधान किया गया कि राज्य सरकार और केंद्र सरकार को यह अधिकार है कि वह प्रमोशन में भी आरक्षण दे सकती है। लेकिन यह मामला फिर सुप्रीम कोर्ट में चला गया। तब न्यायालय ने यह व्यवस्था दी कि आरक्षण दिया जा सकता है, लेकिन वरिष्ठता नहीं मिलेगी। इसके बाद 85वाँ संविधान संशोधन हुआ और यह कहा गया कि परिणामी ज्येष्ठता (Consequential Seniority) भी दी जाएगी। इस मामले में सुप्रीम कोर्ट में 11 जजों वाली संविधानिक पीठ ने संविधान के अनुच्छेद 16(4) के तहत अनुसूचित जाति एवं जनजाति के लिये सरकारी सेवाओं में पदोन्नति में आरक्षण को सही नहीं माना तथा यह आदेश दिया कि इन वर्गों को पदोन्नति में आरक्षण केवल अगले 5 वर्ष तक ही जस-का-तस रखा जाए।

एम. नागराज (2006): इस मामले में सुप्रीम कोर्ट में 77वें व 85वें संविधान संशोधनों को सामान्य वर्ग के अभ्यर्थियों द्वारा चुनौती दी गई। न्यायालय ने अपने निर्णय में इन संवैधानिक संशोधनों को तो सही माना, लेकिन साथ ही यह भी कहा कि सरकार अनुसूचित जाति, जनजाति के कर्मियों को पदोन्नति में आरक्षण देना चाहती है तो इसके लिये उसे इन वर्गों के पिछड़ेपन, राजकीय सेवाओं में अपर्याप्त प्रतिनिधित्व एवं सरकार के काम की दक्षता पर प्रभाव के संबंध में आँकड़े जुटाकर आधार तैयार करना होगा। राज्य सरकार और केंद्र सरकार को अगर प्रमोशन में आरक्षण देना है, तो तीन बातों का ध्यान रखना होगा- 1. इन वर्गों के लोगों में आज भी पिछड़ापन है या नहीं? 2. इस वर्ग के लोगों का सेवाओं में सक्रिय प्रतिनिधित्व है या नहीं? 3. यदि अनुसूचित जाति, जनजाति के अधिकारी और कर्मचारियों को प्रमोशन में आरक्षण दिया जाता है, तो यह भी देखना होगा कि प्रशासन पर प्रतिकूल प्रभाव तो नहीं पड़ेगा?

आर्थिक रूप से कमज़ोर अगड़ी जातियों को सरकारी सेवाओं में आरक्षण देने का मुद्दा कोई नया नहीं है। लेकिन यह पहली बार है जब किसी वर्ग की आर्थिक हैसियत को आरक्षण से जोड़ा गया है। अभी तक देश में जो भी और जैसा भी आरक्षण दिया जा रहा है, उसमें आर्थिक आधार कोई पैमाना नहीं है। दरअसल, आरक्षण को दलितों, आदिवासियों तथा अन्य पिछड़े वर्गों का सशक्तीकरण कर उन्हें सामाजिक प्रतिष्ठा दिलाने वाला एक ‘टूल’ माना जाता है। आरक्षण को कभी भी आर्थिक पिछड़ापन दूर करने का ‘टूल’ नहीं माना गया। अब सरकार ने इस दिशा में एक नई पहल की है तो यह कदम समाज के एक बड़े वर्ग की लंबे समय से चली आ रही मांग को पूरा करने वाला माना जाएगा।

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