लखनऊ शाखा पर IAS GS फाउंडेशन का नया बैच 23 दिसंबर से शुरू :   अभी कॉल करें
ध्यान दें:



एडिटोरियल

कृषि

प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना और इसका वास्तविक स्वरूप

  • 28 Apr 2018
  • 27 min read

संदर्भ
पिछले कुछ से दिनों देश में किसान आंदोलनों को लेकर चर्चा का माहौल गरम है। भले ही चाहे मुंबई में अन्नदाताओं द्वारा किये गए मार्च की बात की जाए या तमिलनाडु में हो रहे प्रदर्शन का उदाहरण लिया जाए, देश के प्रत्येक कोने में रहने वाले अन्नदाता की एक ही समस्या है ‘नीति-निर्माताओं का उपेक्षित व्यवहार’। देश की आर्थिक संवृद्धि सुनिश्चित करने के लिये सबसे ज़्यादा ज़रुरी यह जानना है कि आखिर क्या कारण है कि समूचे देश का पेट भरने वाला अन्नदाता आज अपना पेट भरने के लिये सरकार से मदद की गुहार लगा रहा है। आखिरकार इन विरोध प्रदर्शनों की असली वज़ह क्या है? ध्यातव्य है कि अन्नदाताओं के गौरव के संरक्षण हेतु सरकार द्वारा बहुत सी योजनाएँ एवं कार्यक्रम संचालित किये जा रहे हैं, बावजूद इसके इनका कोई ज़मीनी प्रभाव नज़र नहीं आ रहा है। इसी संदर्भ में इंडियन एक्सप्रेस के इस लेख के माध्यम से ऐसी ही एक महत्त्वाकांक्षी पहल ‘प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना’ (Pradhan Mantri Fasal Bima Yojana - PMFBY) के तहत निर्धारित लक्ष्यों और उनकी वास्तविक रूपरेखा का अवलोकन करने का प्रयास किया गया है।

प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना क्या है?

  • किसानों की समस्याओं का संज्ञान लेते हुए भारत सरकार ने वर्ष 2016 में एक महत्त्वाकांक्षी योजना प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना शुरू की, जिसका उद्देश्य कम पैदावार या पैदावार के नष्ट हो जाने की स्थिति में किसानों को मदद मुहैया कराना था। 
  • प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना के अंतर्गत, किसानों द्वारा बीमा कंपनियों को निश्चित दर पर प्रीमियम का भुगतान किया जाता है, लेकिन इसके लिये किसानों को पहले अपनी भूमि का पंजीकरण कराना होता है, बदले में बीमा कंपनियाँ उन्हें मुआवज़ा देती हैं।
  • इसमें न सिर्फ खड़ी फसल बल्कि फसल पूर्व बुवाई तथा फसल कटाई के पश्‍चात् जोखिमों को भी शामिल किया गया है।
  • इस योजना के तहत स्‍थानीय आपदाओं की क्षति का भी आकलन किया जाएगा तथा संभावित दावों का 25 प्रतिशत भुगतान तत्‍काल ऑनलाइन ही कर दिया जाएगा।

वर्तमान संदर्भ में

  • वर्तमान संदर्भ में यह योजना असफल साबित प्रतीत हो रही है। इसका कारण यह है कि देश के अधिकांश राज्यों द्वारा उनके प्रीमियम सब्सिडी शेयर का न तो समय पर भुगतान हो पाया है और न ही उन्होंने समय पर उपज की हानियों के आकलन के लिये आवश्यक क्रॉप कटिंग एक्सपेरिमेंटस (Crop Cutting Experiments - CCE) की प्रस्तुत किया है।
  • PMFBY के परिचालन दिशा-निर्देशों के तहत राज्य सरकारों को फरवरी के शुरू में बीमा कंपनियों के चयन के लिये बिड शुरू करनी होती है, यह प्रक्रिया नए फसल वर्ष शुरू होने से थोड़े पहले शुरू करने की व्यवस्था की जाती है।
  • इसके बाद सभी प्रासंगिक विवरणों को शामिल करने वाली एक अधिसूचना जारी की जाती, जिसके अंतर्गत फसलों सहित विभिन्न क्षेत्रों में परिचालन करने वाली कंपनियों, क्षतिपूर्ति के स्तर और औसत उपज (जिसके मुआवजे की गणना की जाती है), बीमा राशि, वास्तविक प्रीमियम दर एवं इस पर सब्सिडी आदि के ब्यौरे को मार्च (खरीफ के सीज़न) तथा सितंबर (रबी के सीज़न) के संदर्भ में तैयार किया जाता है।
  • किसानों से प्रीमियम प्राप्त करने के लिये कट ऑफ तिथियाँ, उन्हें बीमा के लिये पात्र बनाना, 31 जुलाई (खरीफ के लिये) और 31 दिसंबर (रबी) हैं।
  • इसके अतिरिक्त किसानों द्वारा चुकाए जाने वाले प्रीमियम की अंतिम तिथि जुलाई 31 (खरीफ के लिये) तथा दिसंबर 31 (रबी के लिये) निर्धारित की गई है।
  • राज्यों द्वारा अगस्त-सितंबर (खरीफ का सीज़न) में प्रीमियम सब्सिडी योगदान का पहला इंस्टालमेंट जारी किया जाता है तथा शेष राशि का 50 फीसदी भुगतान नवंबर-दिसंबर तक किया जाता है। इसी प्रकार क्रमशः जनवरी-फरवरी और अप्रैल-मई में संबंधित रबी सीज़न की पहली किश्त जारी करने की उम्मीद होती है।
  • इसके अलावा, उन्हें उपज के आकलन के लिये हर गाँव/ग्राम पंचायत में न्यूनतम चार, प्रत्येक तालुका/तहसील/ब्लॉक में 16 और प्रत्येक ज़िले में 24 सीसीई पूर्ण करने होते हैं। 
  • सीसीई आधारित उपज डेटा कटाई के एक महीने के भीतर बीमा कंपनियों को जमा किया जाता है, जो खरीफ फसल के लिये अक्तूबर-दिसंबर और रबी फसल के लिये अप्रैल-जून के दौरान तैयार किया जाता है।
  • बदले में, कंपनियाँ उपज डेटा प्राप्त होने के तीन हफ्तों में अंतिम दावों को अनुमोदित और भुगतान करने जैसे कार्य संपन्न करती हैं।
  • यदि राज्य खरीफ और रबी की फसल के लिये जनवरी और जुलाई तक प्रीमियम सब्सिडी के अपने पूरे हिस्से के साथ-साथ उपज डेटा उपलब्ध करा देते हैं तो किसान उचित समय के भीतर अपने फसल संबंधी दावों का भुगतान प्राप्त कर सकते हैं।
  • केंद्रीय कृषि मंत्रालय के एक शीर्ष अधिकारी द्वारा प्रदत्त जानकारी के अनुसार, बीमा कंपनियाँ तब तक इन दावों के विषय में कोई कार्यवाही नहीं करती हैं जब तक उन्हें अपना पूरा प्रीमियम भुगतान तथा फसल नुकसान के संबंध में उपज डेटा नहीं मिल जाता है।
  • दुर्भाग्य से, अधिकांश राज्यों द्वारा उपरोक्त "मौसमी अनुशासन" (seasonality discipline) का अनुपालन नहीं किया गया। उदाहरण के लिये, राजस्थान ने 22 जुलाई को खरीफ 2017 के लिये पीएमएफबीवाई योजना की अधिसूचना जारी की, इस समय तक फसल की बुवाई के एक बड़े हिस्से का काम पहले ही पूरा हो चुका था।
  • इसी प्रकार रबी सत्र के लिये भी 3 नवंबर को अधिसूचना जारी की गई, इस समय तक किसानों द्वारा अपनी सरसों की मुख्य फसल को बोने का कार्य समाप्त हो चुका था। 
  • स्पष्ट रूप से इस समय तक यदि फसल के अवलोकन का कार्य किया भी जाता है तो भी बुवाई में आने वाली बाधाओं/विफलताओं के कारण होने वाले घाटे का पूर्वानुमान नहीं लगाया जा सकता है। अर्थात् स्पष्ट रूप से यह किसानों को उनकी फसल के संबंध में हुए नुकसान हेतु मुआवज़े की मांग में असमर्थ बनाता है।
  • इस संबंध में गृह मंत्रालय द्वारा प्रदत्त जानकारी के अनुसार, किसानों को होने वाली इस असुविधा से बचाने के लिये राज्यों से आशा की जाती है कि वे 15 अप्रैल से पहले योजना की अधिसूचना जारी कर दें, ताकि योजना की कार्यान्वयन एजेंसियों (बीमा कंपनियों) और बैंकों को प्रीमियम डेबिट करने तथा व्यक्तिगत तौर पर बीमाकृत किसानों के विवरण अपलोड करने हेतु पर्याप्त समय मिल सके।

खरीफ 2018 सीज़न के संदर्भ में बात करें तो

  • आपको बता दें कि आने वाले खरीफ 2018 सीज़न के लिये भी कुछ राज्यों जैसे कि - महाराष्ट्र, कर्नाटक और ओडिशा को छोड़कर अन्य राज्यों द्वारा अभी तक आवश्यक अधिसूचनाएँ जारी नहीं की गई हैं।
  • यदि समय से अधिसूचना जारी नहीं की जाती है और बीमा कंपनियों सहित बैंकों द्वारा अपने उत्तरदायित्व का ठीक से सही समय पर अनुपालन नहीं किया जाता है तो इसका सबसे अधिक प्रभाव किसान पर ही पड़ता है।
  • 2016-17 में बीमा कंपनियों का सकल प्रीमियम संग्रह (किसानों पर लगाए गए शुल्क और केंद्र/राज्यों से प्राप्त सब्सिडी दोनों रूप में) 22,180 करोड़ रुपए रहा। इसके विपरीत, इन कंपनियों से केवल 12,959 करोड़ रुपए के मुआवज़े के भुगतान का दावा किया गया। 
  • स्पष्ट रूप से प्रशासन की लापरवाही के परिणामस्वरूप वह पैसा जो किसान को उसकी फसल के नुकसान के मुआवज़े के तौर पर मिलना चाहिये था, बिना किसी मेहनत और प्रयास के बीमा कंपनियों की जेब में गया। 
  • यहाँ एक और महत्त्वपूर्ण पक्ष के विषय में विचार करने की आवश्यकता है, कि वर्ष 2016 एक सामान्य मानसून वर्ष रहा, इस वर्ष व्यापक स्तर पर फसल की क्षति होने या किसी प्रकार की हानि के संबंध में कोई रिपोर्ट प्राप्त नहीं हुई, फिर भी राज्य सरकारों द्वारा अनुमानित या बीमा कंपनियों द्वारा अनुमोदित मुआवज़े की तुलना में बहुत कम दावों का भुगतान किया गया। 
  • ठीक यही कहानी 2017-18 में भी दोहराई गई, जहाँ बीमा कंपनियों ने 24,450 करोड़ रुपए से अधिक की प्रीमियम रसीदें एकत्र कीं, जबकि इसमें राज्यों द्वारा सब्सिडी के भुगतान में देरी की गई।
  • इसकी तुलना में किसानों को कुल 402 करोड़ रुपए का ही भुगतान किया गया। आपको यह जानकर हैरानी होगी कि खरीफ फसल की कटाई के चार महीने बाद यह भुगतान राशि आवंटित की गई, जो इस बात का प्रतीक है कि राज्यों द्वारा उपज डेटा प्रस्तुत करने में अनुचित देरी की गई। 
  • इसके अलावा, CCE आधारित उपज बीमा कंपनियों द्वारा पूछताछ करने के लिये प्रवण/उन्मुख होती है, जो उनके द्वारा अनुमोदित दावों और राज्यों द्वारा अनुमानित हानियों (तालिका के साथ देखें) के बीच के अंतर के रुप में परिलक्षित होती है।
  • यहाँ एक बात तो स्पष्ट है कि PMFBY की सबसे कमज़ोर कड़ी CCE है। फसल हानि के संबंध में मूल्यांकन न केवल समय पर होना चाहिये, बल्कि बीमा कंपनियों के बीच विश्वास को प्रेरित करने के लिये उचित रूप से सटीक भी होना चाहिये।

नतीजा:

  • पेपर पर अच्छी दिखने वाली योजना अब केवल धोखा देने वाली योजना प्रतीत हो रही है। किसानों के लिये, सभी खरीफ सीज़न खाद्यान्नों और तिलहनों के लिये बीमा राशि की एकसमान 2 प्रतिशत प्रीमियम दर, जबकि रबी फसलों के लिये 1.5 प्रतिशत तथा वार्षिक व बागवानी फसलों के लिये 5 प्रतिशत का भुगतान करने का नियम है।
  • इस राशि को "वित्त के पैमाने" के बराबर किया जाता है (बैंकों द्वारा ऋण सीमा निर्धारित की जाती है, जिसके अंतर्गत फसल की अनुमानित उत्पादन लागत को कवर किया जाता है) तथा प्रत्येक चरण (बुवाई से लेकर फसल कटाई के बाद तक) में होने वाली हानि तक को इस योजना में शामिल किया जाता है, जो कि इसे और अधिक आकर्षक बनाता है।
  • 2016-17 में PMFBY के तहत 1.12 करोड़ किसानों को 12,959.10 करोड़ रुपए का कुल भुगतान किया गया। प्रति किसान यह मात्र 11,571 रुपए है। लेकिन यहाँ मुद्दा यह नहीं है कि कितनी राशि का भुगतान किया गया, बल्कि यह है कि भुगतान किये जाने के संदर्भ में समयबद्धता के पक्ष का अनुपालन क्यों नहीं किया गया।
  • यदि वर्षा की विफलता के कारण किसान के पास बेचने के लिये कम फसल होती है अथवा कोई फसल नहीं होती है (जैसा कि अक्सर होता है) और बीमा दावे के निपटारे में अनियमित देरी होती है, तो उसे हमेशा सूदखोर की चौखट पर दस्तक देनी होगी। अपना पेट पालने के लिये देश के अन्नदाता को दूसरों का मुँह ताकना होगा। भारत जैसे तेज़ी से प्रगति करते देश के लिये यह कितने दुःख की बात है।

केंद्रीय वित्त पोषित योजना बनाने का विकल्प

  • यदि इस योजना को पूरी तरह से केंद्रीय वित्त पोषित योजना बना दिया जाए, तो शायद इस स्थिति में काफी हद तक बदलाव किया जा सकता है।
  • वर्तमान में राज्यों को प्रीमियम सब्सिडी का 50 प्रतिशत भुगतान करना होता है, साथ ही CCE सहित प्रधानमंत्री के नाम से संबंधित एक योजना के लिये आवश्यक सभी आधारभूत कार्यों को भी पूरा करना होता है।
  • यदि केंद्र सरकार पूरी सब्सिडी लागत को वहन करना शुरू कर देती है तो बीमा कंपनियाँ कभी भी यह शिकायत नहीं करेंगी कि उनकी प्रीमियम राशि का भुगतान समय से हुआ है अथवा नहीं।
  • इतना ही नहीं, ऐसी किसी भी स्थिति में राज्यों के लिये भी प्रीमियम सब्सिडी जारी करने के लिये "मौसमी अनुशासन" का पालन उनकी मजबूरी हो जाएगी।

योजना की सबसे कमज़ोर कड़ी CCE

  • पारंपरिक रूप से कृषि उत्पादन के अनुमान के लिये विश्वसनीय औसत उपज दरों को प्राप्त करने हेतु CCE को आयोजित किया जाता है। अधिकतर राजस्व, अर्थशास्त्र और सांख्यिकी या संबंधित राज्य सरकारों के कृषि विभागों के ज़िला/उपविभाजन स्तर के अधिकारियों द्वारा यह कार्य किया जाता है।
  • वह क्षेत्र जहाँ CCE किया जाता है, को वैज्ञानिक नमूनाकरण (scientific sampling) के आधार पर चुना जाता है। इसके बाद इस चिह्नित क्षेत्र की फसल की कटाई, थ्रेसिंग, इसके छानने या पछोरने तथा इसके वज़न के मापन का कार्य किया जाता है। यदि उपज में नमी पाई जाती है, तो इसका वज़न करने से पहले इसे सूखना पड़ता है।
  • यह एक जाँची-परखी प्रकिया होती है और कृषि उत्पादित अनुमानों का सही आकलन करने के संबंध में उचित रूप से काम भी करती है। लेकिन जब इसका इस्तेमाल फसल बीमा दावों के भुगतान के लिये किया जाता है, तो यह दो कारणों से शायद ही सबसे अच्छी व्यवस्था हो।
  • पहला, बहुत सामान्य सी बात है कि स्वयं को देश में सबसे अधिक उत्पादन वाला राज्य प्रदर्शित करने के मामले में तो सभी राज्य चाहते हैं कि उपज की मात्रा काफी अधिक हो, जबकि दूसरे मामले में वे चाहते हैं कि ऐसा न हो। इसका कारण यह है कि दूसरी वाली स्थिति में उन्हें किसानों को कम-से-कम बीमा राशि का भुगतान करना होगा।
  • इस व्यवस्था की गैर-उपयुक्तता का दूसरा कारण यह है कि फसल बीमा योजना में बड़ी संख्या में CCE की आवश्यकता होती है, जिसका उद्देश्य औसत उपज आँकड़े तक पहुँचना नहीं होता है, बल्कि किसानों को फसल क्षति के कारण होने वाले नुकसान की भरपाई करना होता है ताकि मौसम के विपरीत रुख के कारण हुई देश के करोड़ों किसानों की व्यक्तिगत हानि का सटीक मूल्यांकन किया जा सके।
  • प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना के तहत राज्यों को प्रत्येक फसल के लिये प्रत्येक गाँव पंचायत में कम-से-कम चार सीसीई करने होते है और फसल कटाई के एक महीने के भीतर बीमा कंपनियों को उपज डेटा जमा करना होता है। 
  • यह देखते हुए कि भारत में लगभग 2.5 लाख ग्राम पंचायतें हैं, इसका मतलब है कि एक सीज़न में 10 लाख सीसीई का आयोजन किया जाएगा। साथ ही यदि एक ही गाँव में या एक ही किसान द्वारा एक से अधिक फसल उगाई जाती है, तो और अधिक CCE का आयोजन किया जाएगा।

क्या किया जाना चाहिये?

  • स्पष्ट रूप से फसल बीमा योजना को सफल बनाने के लिये बहुत कम समय के भीतर इतनी अधिक संख्या में CCE का आयोजन करना एक बेहद चुनौतीपूर्ण कार्य है। 
  • साथ ही बीमा कंपनी को संतुष्ट करने के लिये पर्याप्त डेटा अखंडता सुनिश्चित करना भी बहुत ज़रुरी है।
  • इसके लिये मानवीय स्तर पर कार्य करने से अच्छा "स्मार्ट सैंपलिंग" के रूप में सैटेलाइट आधारित रिमोट सेंसिंग तकनीक का उपयोग करना है। इसके ज़रिये त्रुटिरहित एवं अधिक सटीक आकलन किया जा सकता है। 
  • इसके अतिरिक्त सैटेलाइट रिमोट सेंसर द्वारा प्रदत्त सामान्यीकृत अंतर वनस्पति सूचकांक (normalised difference vegetation index – NDVI) मूल्यों के आधार पर फसल क्षेत्रों का भी चयन किया जा सकता है।
  • वर्तमान में इस प्रणाली के अंतर्गत बहुत अधिक तकनीकों का इस्तेमाल करने पर ध्यान केंद्रित नहीं किया गया है। इसके अंतर्गत भले ही यह संख्या में कम हों, लेकिन उच्च गुणवत्ता वाले CCE पर अधिक ध्यान केंद्रित किया जाना चाहिये। ऐसा इसलिये ताकि बीमा कंपनियाँ राज्य सरकार के अधिकारियों के साथ सह-निरीक्षण का कार्य कर सकें।
  • उपज अनुमानों की उपग्रह चित्रों, मिट्टी में मौजूद नमी और वर्षा डेटा के साथ भी पुष्टि की जा सकती है।
  • समय और तारीख मुद्रांकन के साथ मोबाइल फोन का उपयोग कर CCE सर्वेक्षण डेटा का संग्रहण एवं उसका प्रसार करने के लिये कृषि मंत्रालय के पास पहले से ही एक एंड्रॉइड आधारित एप है। इस एप की सहायता से समय पर प्रसंस्करण और दावों के भुगतान का कार्य किया जा सकता है।

फसल बीमा योजना की अन्य चुनौतियाँ

  • बड़े स्तर पर बीमा कवरेज के बावजूद बीमांकिक प्रीमियम (Actuarial premium) की राशि बढ़ती जा रही है, जबकि किसानों की समस्या को ध्यान में रखते हुए इसे कम-से-कम होना चाहिये। इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि बीमा कंपनियाँ अधिकतम फायदा लेने के चक्कर में प्रीमियम राशि बढ़ा देती हैं।
  • पूर्वी उत्तर प्रदेश, बिहार और असम के क्षेत्र, जहाँ के किसानों की फसलें बाढ़ के कारण खराब हुई हैं, वहाँ उनके नुकसान का आकलन ‘रिमोट सेंसिंग’ से न करके ‘मानवीय’ रूप से किया गया। ‘ड्रोन’ और ‘स्मार्टफोन’ की सुविधा अधिकारियों को उपलब्ध नहीं कराई गई।
  • इसके अतिरिक्त कई राज्य तो बीमा कंपनियों को अग्रिम प्रीमियम राशि का भुगतान करने में ही विफल हो रहे हैं। किसानों को मुआवज़ा मिलने में भी देरी हो रही है।
  • इस योजना के अंतर्गत जंगली जानवरों जैसे- हाथी, नील गाय, जंगली सूअर आदि द्वारा नष्ट की जाने वाली फसलों से संबंधित जोखिम और नुकसान को शामिल नहीं किया गया है। यह कुछ राज्यों के किसानों के लिये एक बड़ी समस्या है।
  • वर्तमान में ज़्यादातर राज्यों में इस योजना के तहत बीमा कवर के लिये बोली लगाई जाती है। बोली एक सीज़न (6 माह) या दो सीज़न (1 वर्ष) के लिये होती है। जो बीमाकर्त्ता कंपनी एक सीज़न के लिये बीमा कवर की बोली जीतती है उसे अगले सीज़न में आने के लिये बाध्य नहीं किया जा सकता। इससे होता यह है कि जिस साल मानसून बेहतर रहता है उस वर्ष बीमाकर्त्ता खूब लाभ कमाते हैं लेकिन जिस वर्ष मानसून के कमज़ोर होने की संभावना होगी उस वर्ष वे बीमा कवर की ज़िम्मेदारी ही नहीं लेंगे।

कैग ने किन-किन पक्षों पर प्रकाश डाला है?

  • राज्यों द्वारा प्रभावित किसानों को बीमा राशि प्रदान किये जाने में देरी के कारण किसानों तक समय से वित्तीय मदद पहुँचाने का लक्ष्य बाधित हुआ है।
  • बैंकों व अन्य वित्तीय संस्थानों द्वारा किसानों के खातों में बीमा राशि जमा कराने में अनियमितता की शिकायतें प्राप्त हुई हैं।
  • कृषि बीमा कंपनी (AIC), निजी कंपनियों को धनराशि देने के पहले उनके दावों के सत्यापन करने की प्रक्रिया में धीमी रही है।
  • कैग द्वारा जितने किसानों का सर्वेक्षण किया गया, उनमें से दो-तिहाई किसानों को इस योजना की जानकारी ही नहीं थी।
  • राज्य, योजना के क्रियान्वयन की निगरानी और नियमित मूल्यांकन रिपोर्ट तैयार करने के लिये स्वतंत्र एजेंसी का गठन करने में असफल रहे हैं।
  • प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना का देशव्यापी क्रियान्वयन न हो पाना भी कई किसानों को इसके लाभों से वंचित कर रहा है। दरअसल, इस योजना को राज्यों को अपनी स्वेच्छानुसार लागू करने की छूट दी गई है।

निष्कर्ष
आज भी भारत की एक बड़ी आबादी गाँवों में निवास करती है तथा कृषि पर निर्भर है। ऐसे में प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना का सफल क्रियान्वयन न केवल अन्नदाताओं के जीवन में खुशहाली ला सकता है, बल्कि आने वाली पीढ़ी को कृषि के मार्ग को अपनाने के लिये प्रेरित भी कर सकता है। अत: इस योजना के उद्देश्य की पूर्ति हेतु सरकार को योजना के समक्ष आने वाली उपरोक्त सभी चुनौतियों के संबंध में जल्द-से-जल्द समाधान का मार्ग तलाशना चाहिये ताकि किसानों के नुकसान की भरपाई करने के साथ-साथ एक विश्वसनीय माहौल तैयार किया जा सके। इसके लिये राज्यों को प्रबंधित करने के साथ-साथ बीमा कंपनियों पर सख्ती बरतने की आवश्यकता है। 

प्रश्न: प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना का परिचय देते हुए इसकी विशेषताओं का उल्लेख कीजिये। वर्तमान संदर्भ में क्या यह योजना सार्थक साबित हो रही है अथवा नहीं, विवेचना कीजिये।

close
एसएमएस अलर्ट
Share Page
images-2
images-2