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एडिटोरियल

अंतर्राष्ट्रीय संबंध

नवाचार के विरोधाभास

  • 29 Jun 2017
  • 8 min read

सन्दर्भ

  • नवाचार के संदर्भ में हाल ही में कुछ अच्छी खबरें आई हैं। भारत वर्ष 2017 के वैश्विक नवाचार सूचकांक में एक साल पहले की तुलना में छह पायदान की वृद्धि कर 60वें स्थान पर आ गया है। यदि हम वर्ष 2015 में मिली 81वीं रैंक से तुलना करें तो भारत ने नवाचार के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण प्रगति की है।
  • त्रिनिदाद एंड टोबैगो, बोस्निया हर्जेगोविना और मोरक्को जैसे देश भी उस समय 140 से अधिक देशों की रैंकिंग में भारत से बेहतर स्थिति में थे। भारत में नवाचार के प्रयासों का अंदाज़ा अंतर्राष्ट्रीय पेटेंट के लिये दाखिल आवेदनों से भी लगाया जा सकता है। जिनेवा स्थित विश्व बौद्धिक संपदा संगठन के आँकड़ों के मुताबिक भारत की तरफ से दायर पेटेंट आवेदनों की संख्या 8.3 फीसदी बढ़कर 1,529 हो गई, जबकि एक साल पहले यह 1,423 थी। उपरोक्त आँकड़ों पर नज़र दौड़ाएँ तो यही प्रतीत होगा कि भारत नवाचार के मोर्चे पर दिन दूनी-रात चौगुनी प्रगति कर रहा है, हालाँकि ऐसा है नहीं। इस लेख में हम यह देखेंगे कि नवाचार के विरोधाभासों में क्या सम्मिलित है और कैसे इन्हें दूर किया जा सकता है? लेकिन, इससे पहले गौर करते हैं कुछ चिंताजनक आँकड़ों पर।

चिंताजनक आँकड़ें?

  • वैश्विक नवाचार सूचकांक में भारत के बेहतर प्रदर्शन से कुछ लोग तो इस कदर उत्साहित हैं कि वे भारत में बड़ी कंपनियों के साथ ही सुदूर ग्रामीण क्षेत्रों में भी नवाचार के बड़े पैमाने पर घटित होने का दावा करने लगे हैं। दुर्भाग्य से हाल ही में घोषित उच्च शिक्षण संस्थानों की टाइम्स रैंकिंग के अनुसार दुनिया के शीर्ष 100 शिक्षण संस्थानों की सूची में भारत का कोई भी विश्वविद्यालय जगह नहीं बना पाया है।
  • विदित हो कि पिछले ही साल भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (IIT) को एशिया के सर्वाधिक नवोन्मेषी विश्वविद्यालयों की रैंकिंग में निचला पायदान मिला था। ‘रॉयटर्स’ की एशिया के सर्वाधिक नवोन्मेषी विश्वविद्यालयों की सूची में आईआईटी 71वें स्थान पर था।
  • उपरोक्त सूची, विज्ञान को आगे बढ़ाने, नई तकनीकों की खोज और विश्व अर्थव्यवस्था के लिये मददगार तकनीकें ईजाद करने में एक पहल के आधार पर तैयार की गई थी। आईआईटी के अलावा भारतीय विज्ञान संस्थान, बेंगलूरु इस सूची में शामिल एक अन्य भारतीय संस्थान था, जिसे 72वां स्थान मिला था।
  • यहाँ सवाल यह है कि अपने उच्च शिक्षण संस्थानों के वैश्विक रैंकिंग में लगातार निराशाजनक प्रदर्शन करने वाले देश में नियमित तौर पर किस तरह का नवाचार चल रहा होगा? दरअसल, भारत में 70 फीसदी से भी अधिक पेटेंट आवेदन बहुराष्ट्रीय कंपनियों की ही तरफ से दाखिल किये गए हैं। इसमें भारतीय कंपनियों और विद्वानों की हिस्सेदारी केवल 30 फीसदी ही है।
  • अधिकांश भारतीय विश्वविद्यालयों में शोध पर उतना ध्यान नहीं दिया जाता है। फलस्वरूप, अंतर्राष्ट्रीय रैंकिंग में वे महज शिक्षा की दुकानें बनकर रह जाती हैं। यही वज़ह है कि भारत में शोध के मामले में केवल दो संगठन- आईआईटी और भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) ही प्रतिष्ठा हासिल कर पाए हैं। 
  • एक चिंतनीय तथ्य यह भी है कि भारत में प्रति लाख आबादी पर शोधकर्त्ताओं की संख्या महज़ 15 है।

क्या हैं नवाचार के विरोधाभास?

  • नवाचार के मोर्चे पर पहला विरोधाभास यह है कि स्टार्टअप को प्रोत्साहन देने के मामले में भारत दुनिया का तीसरा बड़ा देश बन चुका है, लेकिन यहाँ अभी भी कामयाब नवाचारों का अभाव है। बड़ी संख्या में भारतीय उद्यमी नाकाम हो रहे हैं।
  • दूसरा विरोधाभास यह है कि भारत दवाओं के भरोसेमंद एवं किफायती विनिर्माता के तौर पर स्थापित हो गया है और दुनिया भर में 20 फीसदी जेनेरिक दवाओं की आपूर्ति कर रहा है, लेकिन स्वास्थ्य संबंधी सतत विकास लक्ष्यों की प्राप्ति के मोर्च पर यह 188 देशों में 143वें स्थान के साथ निराशाजनक स्थिति में है।
  • एक और विरोधाभास यह है कि शोध एवं विकास कार्यों पर कर रियायतें देने के मामले में भारत शीर्ष पर है। इसके बावजूद भारत की गिनती शोध के मामले में पिछड़े देश के तौर पर ही होती है।

क्या हो आगे का रास्ता?

  • भारत में करीब 90 फीसदी स्टार्टअप कामकाज शुरू होने के पाँच वर्षों के दौरान ही असफल हो जाते हैं। ऐसा इसलिये है क्योंकि वे नवाचार की अहमियत को नकारते रहे हैं। अतः यह आवश्यक है कि स्टार्टअप नवाचार के महत्त्व को पहचाने और अपने काम-काज में इनका प्रमुखता से उपयोग करें।
  • भारत सहयोगपूर्ण शोध एवं विकास टैक्स क्रेडिट (शोध संकायों, विश्वविद्यालयों और राष्ट्रीय प्रयोगशालाओं में शोध के लिये दी जाने वाली रकम) और नवाचार के वाणिज्यिक इस्तेमाल को प्रोत्साहन देने के मामले में पिछड़ा हुआ है। हमें अपने नीति-निर्माताओं से यह उम्मीद करनी चाहिये कि वे इस ओर ध्यान केन्द्रित करें।
  • ध्यातव्य है कि प्रत्येक पाँच भारतीय विनिर्माता कंपनियों में से केवल एक ही कंपनी काम के दौरान प्रशिक्षण देती है, जबकि चीन में 92 फीसदी और दक्षिण कोरिया में 42 फीसदी कंपनियाँ ऐसा करती हैं। अतः प्रशिक्षण को बढ़ावा देना चाहिये, ताकि नवाचार को प्रोत्साहन मिल सके।

निष्कर्ष
दरअसल, भारतीय शोध एवं शैक्षणिक संस्थानों की खराब स्थिति के चलते लगभग प्रत्येक क्षेत्र में आज प्रतिभाओं का अकाल सा पड़ गया है। इसका नतीज़ा यह हुआ है कि पिछले 60 वर्षों में भारत कोई भी यादगार आर्थिक प्रभाव डालने लायक अनूठा नवाचारी विचार पेश नहीं कर पाया है।

आज़ादी के बाद से कोई भी भारतीय नागरिक तकनीकी क्षेत्र में नोबेल नहीं जीत पाया है। वर्ष 1930 में सी. वी. रमन ने विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी का नोबेल जीता था। चीन और अमेरिका जहाँ नवाचार के मामले में उल्लेखनीय प्रगति कर रहे हैं, वहीं अभी भी भारतीयों का पसंदीदा विषय 'जुगाड़' ही है। यहाँ तक कि प्रबन्धन के गुर सिखाने वाली कई किताबों में प्रचलित ‘भारतीय जुगाड़ तकनीक’ की तारीफ की गई है। यही वे कारण हैं, जिनकी वज़ह से छोटे व्यवसाय नई तकनीक में निवेश से परहेज़ करते हैं। नवाचार को बढ़ावा देने के लिये जनमानस को भी अपनी जुगाड़ू मानसिकता में बदलाव लाना होगा।

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