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रॉयटर्स रिपोर्ट (Reuters report) और भारत में महिलाओं की सुरक्षा

  • 19 Jul 2018
  • 9 min read

संदर्भ

महिलाओं की सुरक्षा का मुद्दा एक बार फिर से चर्चा का विषय बना हुआ है क्योंकि थॉमस रॉयटर्स फाउंडेशन ने एक अंतर्राष्ट्रीय सर्वेक्षण रैंकिंग में भारत को महिलाओं के लिये सबसे खतरनाक जगह के रूप में प्रकाशित किया है। हालाँकि सर्वेक्षण की विश्वसनीयता पर सवाल उठाया गया है तथा इस मामले को राष्ट्रीय गौरव से जोड़ा जा रहा है फिर भी  इस तथ्य में कोई संदेह नहीं है कि भारत में महिलाएँ सड़क पर और यहाँ तक कि घर के अंदर भी स्वतंत्र और सुरक्षित नहीं हैं।

सर्वेक्षण के प्रमुख बिंदु

  • यह चुनाव "थॉमस रॉयटर्स फाउंडेशन" द्वारा आयोजित किया गया था जो दुनिया के प्रमुख समाचार संगठनों में से एक है।
  • महिलाओं से संबंधित मुद्दों के 548 विशेषज्ञों से 193 संयुक्त राष्ट्र के सदस्य देशों में महिलाओं की सुरक्षा के स्तर के बारे में पूछा गया था।
  • 548 विशेषज्ञों में से 43 भारतीय पृष्ठभूमि के थे।
  • जिन पैरामीटर पर उत्तरदाताओं ने मतदान किया गया था वे थे: 
    ♦ महिलाओं की स्वास्थ्य देखभाल, 
    ♦ महिलाओं के प्रति भेदभाव, 
    ♦ दमनकारी सांस्कृतिक परंपराएँ, 
    ♦ महिलाओं के खिलाफ यौन हिंसा,
    ♦ महिलाओं के खिलाफ उत्पीड़न 
    ♦ मानव तस्करी।
  • भारत सूची में सबसे ऊपर है, इसके बाद अफगानिस्तान और सीरिया हैं।
  • 2011 में आयोजित एक ऐसे ही सर्वेक्षण में भारत को अफगानिस्तान, कांगो और पाकिस्तान के बाद चौथे स्थान पर रखा गया था।

सर्वेक्षण की आलोचना

  • ऐसा कहा जा रहा है कि सर्वेक्षण केवल धारणाओं पर आधारित है और यह वास्तविक तस्वीर नहीं दिखाता है।
  • राष्ट्रीय महिला आयोग ने इस धारणा सर्वेक्षण को यह कहते हुए खारिज कर दिया है कि इस सूची में भारत के बाद आने वाले कुछ देश ऐसे हैं जहाँ महिलाओं को सार्वजनिक रूप से बात करने की इज़ाज़त भी नहीं है।
  • राष्ट्रीय महिला आयोग ने यह भी कहा है कि सर्वेक्षण का स्वरूप बहुत छोटा था और यह पूरे देश का प्रातिनिधित्व नहीं कर सकता।

भारत में महिला सुरक्षा का वर्तमान स्वरूप

विभिन्न दावों और इस संबंध में आवाज उठाए जाने के बावजूद भारत में महिलाओं की स्थिति चिंतनीय बनी हुई है।

  • अंडररिपोर्टिंग: रिपोर्ट किये गए मामलों की संख्या में वृद्धि आमतौर पर अपराधों की उच्च दर से जुड़ी होती है। हालाँकि, ऐसा नहीं है। 
  • आँकड़ों से पता चलता है कि शहरी और अपेक्षाकृत प्रगतिशील समाजों में महिलाओं के खिलाफ अपराध के मामलों की संख्या अधिक है क्योंकि यहाँ सामाजिक गतिरोध के मामले कम हैं। दूसरी तरफ, उन समाजों में जहाँ अपराधियों की बजाय महिलाओं को शर्मिंदा किया जाता है, ऐसे मामले पर कोई रिपोर्ट दर्ज नहीं की जाती है।
  • गलत रिपोर्टिंग: "यौन अपराध" के तहत दर्ज़ किये गए कई मामलों में "अंतर-जातीय" या "अंतर-धार्मिक" जोड़े के बीच सहमति से यौन संबंध बनाने के मामले भी शामिल थे। 
  • अक्सर महिलाओं के परिवारों की उत्तेजना के आधार पर पर पुलिस द्वारा पुरुषों को हिरासत में लिया जाता है और कई वर्षों के लिये उन्हें जेल में डाल दिया जाता है।
  • #मी टू अभियान : #MeToo अभियान के तहत सैकड़ों महिलाओं सार्वजनिक रूप से व्यापार, सरकार और मनोरंजन के क्षेत्र से जुड़े शक्तिशाली पुरुषों पर यौन दुर्व्यवहार के आरोप लगाए हैं तथा इस अभियान में शामिल होकर यौन उत्पीड़न या दुर्व्यवहार की हज़ारों कहानियों को साझा करने का कार्य किया है। 
  • वैवाहिक बलात्कार: लगभग सभी (98 प्रतिशत) यौन हिंसा की शिकार महिलाओं ने उन सर्वेक्षणकर्त्ताओं से कहा कि सबसे अधिक यौन उत्पीडन उनके पतियों द्वारा किया गया है। यहाँ ध्यान देने वाली बात यह है कि वैवाहिक बलात्कार अभी भी भारत में "यौन अपराध" के दायरे से बाहर हैं।
  • न्यायिक देरी : ऐसे मामलों में न्याय मिलने में सालों लगते हैं। निर्भया जैसे संवेदनशील मामलों में भी न्याय मिलने में 4 साल से अधिक का समय लगा। बहुत सी महिलाएँ आरोपी, समाज तथा न्याय मिलने में देरी के चलते अपने मुक़दमे बीच में ही छोड़ देती हैं।
  • सरकार और नौकरशाहों द्वारा किये गए प्रयासों में कमी : निर्भया कोष, महिलाओं की गरिमा और सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिये बनाया गया है, सरकार ने इस कोष के लिये 2013 से प्रतिवर्ष 1000 करोड़ रुपए आवंटित किये हैं लेकिन इसका अधिकांश भाग अभी तक खर्च नहीं किया गया है।
  • कई राज्यों की संस्कृति (या इसकी कमी) कंगारू अदालतों, ऑनर किलिंग,  बाल विवाह और जबरन विवाहों को मान्यता देती है। इसके अलावा, स्वास्थ्य देखभाल, खराब कानून-व्यवस्था शामिल है, जो सभी महिलाओं को उनकी निम्न सामाजिक स्थिति की वज़ह से अधिक प्रभावित करते हैं।

हम इस रिपोर्ट को किस रूप में देखते हैं?

  • हालाँकि, इस रिपोर्ट को कई लोगों द्वारा भारत में महिलाओं के खिलाफ बढ़ती हिंसा के साक्ष्य के रूप में देखा जा रहा है लेकिन इसके लिये एक आशावादी दृष्टिकोण अपनाने की भी आवश्यकता है। क्योंकि बहुत सी महिलाएँ यौन अपराध और भेदभाव के खिलाफ आवाज़ उठा रही हैं।
  • सर्वेक्षण में नियोजित पद्धति पर उँगली उठाना या देश में व्याप्त इस गंभीर स्थिति को स्वीकार करने से सीधे इनकार करना संयुक्त रूप से महिलाओं के प्रति घृणित दृष्टिकोण का संकेतक है। इसी तरह इसे राष्ट्रीय गौरव का मुद्दा बनाने से भी कुछ हासिल नहीं होगा। इस रिपोर्ट की आतंरिक जाँच करने की बजाय महिलाओं के प्रति हो रही हिंसा के कारणों की जाँच करना ज़रूरी है। 
  • इसी तरह  यह भी महत्त्वपूर्ण है कि विद्यालयों में नैतिक शिक्षा और यौन शिक्षा को अनिवार्य कर देना चाहिये ताकि अगली पीढ़ी को महिलाओं और सामाजिक निषेधों  के प्रति पितृत्ववादी दृष्टिकोण से मुक्त किया जा सके जो महिलाओं को कमज़ोर करता है।
  • संक्षेप में पुलिस और न्यायपालिका को महिलाओं के मुद्दों के प्रति संवेदनशील होना चाहिए ताकि कोई भी महिला पुलिस या अदालतों से संपर्क करने में भय न महसूस करें। यह उन महिलाओं के लिये अधिक-से-अधिक कानून लाने से अधिक प्रभावी साबित होगा जो कि शायद ही कभी लागू किये जाते हैं।

निष्कर्ष

  • थॉमस रॉयटर्स फाउंडेशन की रिपोर्ट ने भारत में महिलाओं की स्थिति से संबंधित मुद्दों को केवल हवा दी है। हालाँकि, इस पर बल दिया जाना चाहिये कि महिलाओं को "सुरक्षित" बनाने पर भाषण खत्म नहीं होना चाहिये साथ ही महिलाओं की "सुरक्षा" और "स्वतंत्रता" संबंधी पितृसत्तात्मक विचारों को फिर से परिभाषित करना चाहिए। 
  • यह भी महत्त्वपूर्ण है कि बलात्कार, महिला भ्रूणहत्या और भेदभाव जैसे भावनात्मक मुद्दों पर आधारित संवादों को बढ़ावा दिया जाए।
  • इस प्रकार, हमें महिलाओं के उत्पीड़न को रोकने के लिये व्यवस्थित और सामाजिक आधार को साहसपूर्वक चुनौती देने की आवश्यकता है।
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