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गर्भपात का विषय मात्र चंद हफ्तों का प्रश्न नहीं

  • 29 Jul 2017
  • 10 min read

संदर्भ
गौरतलब है कि पिछले कुछ दिनों से एक अति संवेदनशील मुद्दे ने समस्त मीडिया का ध्यान अपनी ओर खींचा हुआ है| मुद्दा यह है कि कुछ दिनों पहले सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष एक 10 वर्षीय बलात्कार की शिकार 32 सप्ताह की गर्भवती लड़की के गर्भपात का मामला सामने आया| उक्त मामले में डॉक्टरों ने जाँच के पश्चात् यह पाया कि यदि इस अवस्था में  लड़की का गर्भपात नहीं किया जाता है तो यह इसके जीवन के लिये खतरा उत्पन्न कर सकता है| परंतु, मामले की सुनवाई के पश्चात् सर्वोच्च न्यायालय द्वारा इस गर्भपात की याचिका को नकार दिया गया|

  • विवादास्पद बात यह है कि सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिया गया यह निर्णय कुछ समय पहले दिये गए इसके अपने एक अन्य निर्णय के पूर्णतया विपरीत है| इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने एक वयस्क माँ को अपने 20 सप्ताह के भ्रूण को गिराने की अनुमति प्रदान की थी|
  • हालाँकि ऐसा पहली बार नहीं हुआ है कि न्यायालय ने किसी मामले में अपने पूर्व में दिये गए निर्णय के विपरीत निर्णय दिया हो| वस्तुतः गर्भपात से संबंधित मामलों में डॉक्टरों द्वारा प्रस्तुत रिपोर्ट बहुत अहम् होती है| 

निर्णय का आधार

  • ध्यातव्य है कि एम.टी.पी.ए. (The Medical Termination of Pregnancy Act) के प्रावधानों के तहत 20 सप्ताह तक के गर्भपात को कानूनी रूप से अनुमति प्रदान की गई है|
  • गर्भपात के संबंध में सलाह देते समय चिकित्सक इस बात का मूल्याँकन करते हैं कि क्या यह गर्भपात माँ के जीवन के लिये कोई खतरा तो उत्पन्न नहीं कर रहा है अथवा माँ को किसी प्रकार की गंभीर शारीरिक या मानसिक चोट तो नहीं पहुँचा रहा है| 
  • वैकल्पिक रूप से, गर्भपात के संबंध में निर्णय लेते समय इस बात का भी ध्यान रखा जाता है कि क्या गर्भ में पल रहे बच्चे में कोई शारीरिक अथवा मानसिक असामान्यता तो नहीं है| 
  • इस अधिनियम के तहत इस बात पर भी विशेष रूप से ध्यान दिया गया है कि यदि उपरोक्त में से कोई भी चिकित्सकीय घटना घटने की संभावना प्रतीत होती है तो माँ के वास्तविक एवं निकट भविष्य के पक्ष को भी ध्यान में रखा जाना चाहिये|

पक्ष - विपक्ष

  • यदि अधिनियम में वर्णित सभी प्रावधानों के संबंध में गहराई से चिंतन किया जाए तो प्रतीत होता है कि यह 20 सप्ताह की समयावधि स्वयं में विवादास्पद है, जिसकी कई बार आलोचना भी की गई है| 
  • वस्तुतः इन आलोचनाओं का आधार यह है कि गर्भावस्था के 18-22 सप्ताहों के दौरान किये गए अल्ट्रासाउंड में (यह गर्भावस्था की वह स्थिति होती है, जिसमें भ्रूण को पूर्ण रूप से विकसित माना जाता है) भ्रूण के विकार के विषय में कोई विशेष जानकारी प्राप्त नहीं हो पाती है| 
  • परंतु एक ऐसे देश में, जहाँ आज भी गर्भवती महिलाएँ किसी प्रशिक्षित डॉक्टर से सलाह लेने की बजाय किसी दाई (Midwives) अथवा आशा (Accredited Social Health Activists - ASHA) से सलाह लेती हैं, वहाँ अल्ट्रासाउंड तभी कराया जाता है, जब किसी प्रकार के संदेह की आशंका उत्पन्न होती है| 
  • इसी बात को ध्यान में रखते हुए भारत सरकार द्वारा वर्ष 2016 में प्रधानमंत्री सुरक्षित मातृत्व अभियान (Pradhan Mantri Surakshit Matritva Abhiyan) का शुभारंभ किया गया| 
  • इस अभियान के तहत निजी एवं सरकारी क्षेत्र के सभी डॉक्टरों के लिये प्रत्येक माह की नौ तारीख़ को जन्म पूर्व नि:शुल्क सुविधा प्रदान करने की व्यवस्था की गई है| इस व्यवस्था के अंतर्गत नि:शुक्ल अल्ट्रासाउंड की भी व्यवस्था की गई है|
  • इस प्रोग्राम को लाने से पूर्व सरकार ने मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेगनेंसी (अमेंडमेंट) बिल (Medical Termination of Pregnancy (Amendment) Bill) प्रस्तुत किया था, जिसके तहत गर्भपात की समय-सीमा को 20 से 24 सप्ताह तक बढ़ाने का प्रस्ताव रखा गया| 
  • इस विधेयक के अंतर्गत ‘पर्याप्त भ्रूण असामान्यता’ का विचार प्रस्तुत किया गया था, जिसमें ऐसी किसी अवस्था में गर्भपात संबंधी समय-सीमा को अप्रासंगिक माना गया| 
  • इस विधेयक के अंतर्गत “पंजीकृत स्वास्थ्य देखभाल देयता” का हवाला देते हुए यह कहा गया था कि गर्भपात की समय-सीमा में परिवर्तन किया जाना चाहिये| 
  • इसके लिये आयुर्वेद, यूनानी एवं होम्योपैथी जैसी चिकित्सकीय पद्धतियों का इस्तेमाल किया जा सकता है| दुर्भाग्यवश, यह विधेयक अभी तक अनुमोदित नहीं किया गया है|

कानूनी प्रतिबंधों के लिये नकारात्मक पक्ष

  • ध्यातव्य है कि इस संबंध में विश्व स्वास्थ्य संगठन के मतानुसार, गर्भपात के विषय में कानूनी प्रतिबंधों की व्यवस्था न तो गर्भपात के मामलों में कोई विशेष कमी लाती है और न ही जन्म दर में कोई महत्त्वपूर्ण वृद्धि करती है| 
  • इसके विपरीत, सुरक्षित गर्भपात से संबंधित कानून और नीतियाँ अवश्य इस दिशा में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं| गर्भपात की दर या संख्या में वृद्धि नहीं करते हैं| 
  • वस्तुत: गर्भपात को कानूनी रूप से प्रतिबंधित कर देने से गर्भपात की संख्या में तो संभवतः कोई कमी न आए, परंतु इससे अवैध और असुरक्षित गर्भपात की संख्या में अवश्य वृद्धि होने की संभावना है, जिससे बहुत से रोगों एवं मृत्यु दर में वृद्धि होने की संभावना है| 
  • डब्लू.एच.ओ. की एक रिपोर्ट के अनुसार, गर्भपात से संबंधित कानूनों एवं नीतियों के तहत गर्भवती महिला के स्वास्थ्य एवं मानवाधिकारों की सुरक्षा सुनिश्चित की जानी चाहिये| 
  • इसके अतिरिक्त वैसी विनियामक, नीतिगत और कार्यक्रमबद्ध बाधाएँ जो सुरक्षित गर्भपात की पहुँच के मार्ग में समस्या उत्पन्न करती हैं, को हटा दिया जाना चाहिये| 

अन्य पक्ष

  • न्यायालय के लिये गर्भपात के मामलों के संबंध में निर्णय लेना इसलिये भी कठिन होता है, क्योंकि यहाँ प्रश्न केवल माँ के जीवन से संबंधित नहीं होता है, बल्कि प्रश्न बच्चे के जीवन से संबंधित भी होता है| 
  • संभवतः यही कारण है कि गर्भपात की अनुमति केवल उन्ही मामलों में प्रदान की जाती है, जिनमें स्थिति संभलने योग्य नहीं रह जाती है|
  • तथापि इस संबंध में यदि एक महिला के अधिकारों के पक्ष से गौर किया जाए तो प्रश्न यह उठता है कि एक ऐसी स्थिति में जिसमें भ्रूण के असामान्य होने की संभावना है भी और नहीं भी, में क्या महिला को यह अधिकार प्राप्त नहीं होना चाहिये कि वह उस बच्चे को जन्म देने की इच्छुक है अथवा नहीं? 
  • क्या गर्भपात के संबंध में उस महिला की देखभाल करने वाले व्यक्तियों (जैसा कि इस 10 वर्षीय लड़की के मामले में हुआ) की इच्छा – अनिच्छा को महत्त्व नहीं दिय जाना चाहिये? इत्यादि|

निष्कर्ष 
उपरोक्त विवेचन के पश्चात् यह कहना गलत नहीं होगा कि समस्त संसार में गर्भपात एक अत्यधिक संवेदनशील मुद्दा है| प्रत्येक देश में गर्भपात की अपनी अलग समय-सीमा है| हालाँकि, अधिकतर देशों में यह समय-सीमा 20 सप्ताह के स्तर पर ही तय की गई है| यह हमारे लिये सुकुन की बात है कि विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी के विकास की परिणिति के तौर पर आज हम मात्र एक अल्ट्रासाउंड के माध्यम से नवजात शिशु में पल रही बीमारी अथवा किसी असामान्य शारीरिक कमी की आसानी से जाँच कर सकने में सक्षम हैं| दुर्भाग्यवश अल्ट्रासाउंड के विनियमन के विषय में कोई प्रभावीकारी नियम कानून अभी तक नहीं बनाए जा सकें हैं| हालाँकि यदि इस संबंध में बेहतर नियम व्यवस्था को व्यवस्थित किया जाता है तो संभवतः भविष्य में ऐसी बहुत सी कठिन परिस्थितियों का आसानी से सामना किया जा सकता है| साथ ही नवजात शिशु के साथ-साथ होने वाली माँ की भी बेहतर ढंग से देखभाल की जा सकती है|

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