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एडिटोरियल

सामाजिक न्याय

राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण

  • 29 Nov 2021
  • 14 min read

यह एडिटोरियल 27/11/2021 को ‘द हिंदू’ में प्रकाशित “A Close Reading of the NFHS-5, the Health of India” लेख पर आधारित है। इसमें नवीनतम राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (NFHS-5) के प्रमुख निष्कर्षों और विभिन्न प्रमुख क्षेत्रों में सुधार की कमी के कारणों के संबंध में चर्चा की गई है।

संदर्भ

राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (National Family Health Survey- NFHS) संपूर्ण भारत में परिवारों के एक प्रतिनिधि नमूने के माध्यम से व्यापक पैमाने पर आयोजित किया जाने वाला एक बहु-स्तरीय सर्वेक्षण है।  

हाल में नवीनतम सर्वेक्षण (NFHS-5, 2019-21) के दूसरे चरण के प्रमुख परिणाम जारी किये गए हैं जो मिश्रित निष्कर्षों के रूप में सामने आए हैं। इनमें उत्साह और चेतावनी दोनों के ही तत्व पर्याप्त मात्रा में मौजूद हैं।  

ये निष्कर्ष बेहद महत्त्वपूर्ण हैं और इन पर उपयुक्त ध्यान दिया जाना चाहिये क्योंकि ये जल्दबाजी में तैयार किये जाते स्वास्थ्य स्थिति सूचकांक नहीं हैं, बल्कि ये भारत के जनसांख्यिकीय और स्वास्थ्य प्रक्षेपवक्र की स्थिति पर एक विस्तृत, व्यापक, बहु-आयामी रिपोर्ट कार्ड है। 

सर्वेक्षण के प्रमुख निष्कर्ष

  • NFHS 4 और 5—एक तुलना: NFHS-5 के रिपोर्ट कार्ड में कई सकारात्मक बिंदु हैं। 
    • शैक्षिक उपलब्धि, संस्थागत आपूर्ति, टीकाकरण, शिशु मृत्यु दर आदि कई आयामों में सुधार देखा गया है। 
    • इसकी गति कुछ भी रही हो, प्रगति की सराहना करनी होगी, विशेष रूप से भारत के स्वास्थ्य अवसंरचना की बदतर स्थिति को देखते हुए, जो कि COVID-19 महामारी के आगमन के समय से बेहद प्रकट है।
  • TFR में गिरावट—एक प्रमुख सकारात्मक उपलब्धि: समय के साथ कुल प्रजनन दर (Total Fertility Rate-TFR) में गिरावट आ रही है और यह अब 2.1 के प्रतिस्थापन दर से नीचे (2.0) आ गई है।     
    • यह स्थिति भारत के सभी राज्यों में नज़र आ रही है जिसका अर्थ यह है कि कुल जनसंख्या स्थिर हो गई है।
  • जन्म के समय और वयस्क आयु में लिंग अनुपात में अंतर: भारत में पहली बार वर्ष 2019-21 में प्रति 1,000 पुरुषों पर 1,020 वयस्क महिलाएँ मौजूद थीं।  
    • यद्यपि इस आँकड़े से इस तथ्य की अनदेखी नहीं होनी चाहिये कि भारत में अभी भी जन्म के समय लिंग अनुपात (Sex Ratio at Birth- SRB) नैसर्गिक SRB (प्रति 1000 बालक पर 952 बालिकाएँ) की तुलना में लड़कों की ओर अधिक झुकी हुई है।  
    • उत्तर प्रदेश, हरियाणा, पंजाब, राजस्थान, बिहार, दिल्ली, झारखंड, आंध्रप्रदेश, तमिलनाडु, ओडिशा, महाराष्ट्र निम्न SRB वाले प्रमुख राज्य हैं।
  • एनीमिया या रक्त की कमी से निपटने में बदतर प्रदर्शन: भारत के सभी राज्यों में 5 वर्ष से कम आयु के बच्चों (58.6 से 67%), महिलाओं (53.1 से 57%) और पुरुषों (22.7 से 25%) में एनीमिया की स्थिति और बदतर हुई है (20%- 40% को मध्यम स्तर माना जाता है)।     
    • केरल (39.4% पर) के अतिरिक्त अन्य सभी राज्य "गंभीर" (Severe) श्रेणी में हैं।
  • कुपोषण संकेतकों के प्रदर्शन: कुपोषण (Malnutrition) के तीन संकेतकों—स्टंटिंग (आयु अनुरूप कम ऊँचाई), वेस्टिंग (ऊँचाई अनुरूप कम वजन) और अंडरवेट (आयु अनुरूप कम वजन) में समग्र सुधार नज़र आया है।   
    • हालाँकि, यह समग्र सुधार एक विसंगति दर्शाता है, क्योंकि NFHS-5 के चरण 1 में कई राज्यों ने इनमें से एक या अधिक संकेतकों में बिगड़ती स्थिति का खुलासा हुआ था, जबकि चरण 2 में किसी भी राज्य ने बिगड़ती हुई स्थिति का प्रदर्शन नहीं किया है।
    • संभव है कि कोविड-19 के कारण चरण 2 का सर्वेक्षण प्रभावित हुआ हो और स्थिति का सही आकलन नहीं हो सका हो। 
    • इसके अतिरिक्त, अधिक वजन वाले बच्चों, महिलाओं और पुरुषों के अनुपात में वृद्धि देखी गई है और यह भी एक प्रकार के कुपोषण को दर्शाता है, जहाँ गैर-संचारी रोगों (NCDs) के रूप में गंभीर स्वास्थ्य परिणाम सामने आते हैं।   

संबद्ध मुद्दे

  • सूक्ष्म पोषक तत्वों का समावेशन नहीं: मानवशास्त्रीय उपायों (Anthropometric Measures) के अलावा उपयुक्त पोषण की कमी को सूक्ष्म पोषक तत्वों (Micronutrients) की कमी से भी मापा जाता है, अर्थात् विटामिन और खनिजों की कमी जो वृद्धि और विकास के लिये एंजाइम, हार्मोन और अन्य आवश्यक पदार्थों के उत्पादन जैसे शरीर के कार्यों के लिये आवश्यक हैं।    
    • NFHS के पास सूक्ष्म पोषक तत्वों पर आँकड़े का अभाव है। 
  • आहार ग्रहण की निगरानी के लिये ‘वन साइज़ फिट्स ऑल’ का दृष्टिकोण: भारतीय आहार एक समृद्ध विविधता प्रदर्शित करते हैं। कई पारंपरिक आहार स्थानीय जलवायु परिस्थितियों के साथ-साथ आवश्यक पोषक तत्वों (प्रोटीन, वसा आदि) के स्रोतों की बहुलता दोनों को दर्शाते हैं।
    • एक अप्राकृतिक एकरूपता लागू करने के माध्यम से आहारों पर नियंत्रण और भारतीयों के एक बड़े तबके (जो परंपरागत रूप से शाकाहारी नहीं हैं) को पशु प्रोटीन के उपयोग से वंचित करना सूक्ष्म पोषक तत्व विविधता को कम करने और बदतर स्वास्थ्य परिणाम लाने में योगदान कर सकते हैं।   
  • कोविड-19 ‘ब्लेम गेम’: तर्क दिया जा रहा है कि बदतर स्वास्थ्य परिणाम कोविड-19 के प्रभाव को दर्शाते हैं, क्योंकि NFHS-5 के चरण 2 के आँकड़े काफी हद तक कोविड-19 महामारी की अत्यधिक असामान्य स्थितियों के दौरान एकत्र किये गए हैं।    
    • लेकिन सार्वजनिक स्वास्थ्य संकेतकों में गिरावट के लिये पूरी तरह से महामारी को ज़िम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता है। 
    • महामारी ने भले ही बदतर सार्वजनिक स्वास्थ्य स्थिति को और बदतर किया हो, लेकिन इसे ही बदतर स्थिति का प्राथमिक कारक नहीं माना जा सकता।
  • महिलाओं के स्वास्थ्य को प्रभावित करने वाले अनैतिक प्रसव अभ्यास: सर्वेक्षण महिलाओं के सशक्तीकरण, स्वायत्तता और गतिशीलता संकेतकों पर केंद्रित है और महिलाओं के प्रजनन स्वास्थ्य पर प्रकाश डालता है। 
    • आँकड़ों के अनुसार, सिज़ेरियन जन्मों में नाटकीय रूप से वृद्धि हुई है और निजी स्वास्थ्य प्रतिष्ठानों में 47.5% जन्म (सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रतिष्ठानों में 14.3%) सी-सेक्शन द्वारा होते हैं।  
    • ये आँकड़े अत्यंत अस्वाभाविक हैं और निजी स्वास्थ्य प्रदाताओं के अनैतिक अभ्यासों को प्रश्नगत करते हैं जो महिलाओं के स्वास्थ्य की कीमत पर मौद्रिक लाभ को प्राथमिकता देते हैं।  
  • परिवार नियोजन में सीमित पुरुष संलग्नता: आंध्र प्रदेश (98%), तेलंगाना (93%), केरल (88%), कर्नाटक (84%), बिहार (78%) और महाराष्ट्र (77%) जैसे राज्यों में गर्भनिरोध की आधुनिक पद्धति के रूप में महिला नसबंदी का ही बोलबाला बना हुआ है।    
    • परिवार नियोजन में पुरुषों की संलग्नता सीमित बनी हुई है जो सभी राज्यों में कंडोम की कम खपत और पुरुष नसबंदी की निम्न स्थिति से प्रकट होती है।

आगे की राह

  • स्वास्थ्य संबंधी चिंताओं को दूर करने के लिये नीतिगत हस्तक्षेप: सर्वेक्षण ने स्वास्थ्य परिणामों में गहरी असमानताओं को उजागर किया है। समग्र साक्ष्य इस बात की आवश्यकता जताते हैं कि स्वास्थ्य राष्ट्रीय और राज्य स्तर पर सरकारों के लिये चिंता का विषय होना चाहिये। 
    • भारत की स्वास्थ्य आवश्यकताओं में सुधार के लिये एक कार्ययोजना की आवश्यकता है जिसे समावेशी, अपनी प्रतिबद्धता में दृढ़ और ठोस संसाधनों द्वारा समर्थित भी होना चाहिये।  
  • NFHS से सबक: NFHS के निष्कर्ष बालिकाओं की शिक्षा में व्याप्त अंतराल को समाप्त करने और महिलाओं एवं बच्चों की दयनीय पोषण स्थिति को संबोधित करने की तत्काल आवश्यकता की ओर ध्यान दिलाते हैं।    
    • महामारी के प्रभाव को भी दर्ज किया जा सकता है, जहाँ बच्चों के लिये संतुलित पोषण जैसी सेवाओं में आये व्यवधान को स्वीकार किया जाना चाहिये। 
    • इस तरह के परिदृश्य कठिनतम परिस्थितियों में भी आपूर्ति एवं वितरण में सक्षम लचीले और दृढ़ प्रणालियों के निर्माण की आवश्यकता को रेखांकित करते हैं।  
  • स्वास्थ्य क्षेत्र में सहयोग: वर्तमान समय में सभी स्वास्थ्य संस्थानों, शिक्षाविदों और स्वास्थ्य देखभाल सेवाओं से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से संबद्ध अन्य भागीदारों की ओर से एकीकृत और समन्वित प्रयासों की आवश्यकता है, ताकि बुनियादी एवं उन्नत दोनों ही स्वास्थ्य सेवाओं को सभी के लिये सुलभ, वहनीय और स्वीकार्य बनाया जा सके।     
  • व्यवहार-परिवर्तन संचार रणनीति: सरकार को यह सुनिश्चित करने के लिये एक लक्षित सामाजिक और व्यवहार-परिवर्तन संचार रणनीति (Behaviour-Change Communication Strategy) अपनानी चाहिये कि पुरुष भी परिवार नियोजन का उत्तरदायित्व ग्रहण करें। 

निष्कर्ष

दशकीय जनगणना द्वारा प्रदत्त वृहत आँकड़ों के बाद NFHS ही दूसरा सबसे महत्त्वपूर्ण स्रोत है, जो वस्तुस्थिति के आँकड़े उपलब्ध कराता है। इसका भारत के नीति-निर्माण में एक महत्त्वपूर्ण मोड़ लाने के लिये इस्तेमाल किया जाना चाहिये।

राज्यों के साथ-साथ केंद्र की वृहत सोच यह होनी चाहिये कि वे इसे आगे के कार्य और विकास संकेतकों में सुधार के लिये एक महत्त्वपूर्ण मैट्रिक्स के रूप में चिह्नित करें।

अभ्यास प्रश्न: ‘‘दशकीय जनगणना द्वारा प्रदत्त वृहत आँकड़ों के बाद NFHS ही दूसरा सबसे महत्त्वपूर्ण स्रोत है जो वस्तुस्थिति के आँकड़े उपलब्ध कराता है। इसका भारत के नीति-निर्माण में एक महत्त्वपूर्ण मोड़ लाने के लिये इस्तेमाल किया जाना चाहिये।’’ टिप्पणी कीजिये।

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