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सबरीमाला मंदिर में प्रवेश का मुद्दा

  • 24 Oct 2017
  • 7 min read

संदर्भ

हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा केरल के सबरीमाला मंदिर में महिलाओं के प्रवेश से संबंधित मामले को पाँच न्यायाधीशों की एक संविधान पीठ के हवाले कर दिया गया है।

विदित हो कि मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता वाली एक पीठ का कहना है कि संविधान पीठ परीक्षण करेगी कि महिलाओं के प्रवेश पर यह प्रतिबंध, कहीं संविधान के अनुच्छेद 14 (कानून के तहत समानता) और अनुच्छेद 15 (धर्म, जाति आदि के आधार पर भेदभाव पर प्रतिबंध) के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन तो नहीं है?

सर्वोच्च न्यायालय वर्ष 2006 में एक गैर-लाभकारी संगठन ‘इंडियन यंग लॉयर्स एसोसिएशन’ द्वारा दायर जनहित याचिका पर सुनवाई कर रहा है, जिसमें सबरीमाला मंदिर में सभी महिलाओं और लड़कियों के प्रवेश की मांग की गई है। ध्यातव्य है कि मंदिर परिसर में मासिक धर्म की आयु की महिलाओं को प्रवेश की अनुमति नहीं दी जाती है।

किन प्रश्नों पर विचार करेगी संविधान पीठ?

धार्मिक आज़ादी के अधिकार और महिलाओं के साथ लिंग आधारित भेदभाव तथा मौलिक अधिकारों के हनन से संबंधित कई महत्त्वपूर्ण मुद्दों पर सर्वोच्च न्यायालय की पाँच न्यायाधीशों की संविधान-पीठ सुनवाई करेगी। न्यायालय यह देखेगा कि-

  • क्या शारीरिक बदलाव के चलते महिलाओं के प्रवेश पर रोक लगाने की प्रथा लिंग आधारित भेदभाव तो नहीं है?
  • क्या 10 से 50 वर्ष की महिलाओं को बाहर रखना अनुच्छेद 25 के तहत धार्मिक रीति रिवाज़ का अभिन्न हिस्सा माना जा सकता है?
  • क्या धार्मिक संस्था अपने मामलों का प्रबंधन करने की धार्मिक आज़ादी के तहत इस तरह के रीति, रिवाज़ों का दावा कर सकती है।
  • क्या अयप्पा मंदिर को धार्मिक संस्था माना जाएगा, जबकि उसका प्रबंधन विधायी बोर्ड, केरल और तमिलनाडु सरकार के बजट से होता है?
  • क्या ऐसी संस्था संविधान के अनुच्छेद 14, 15(3), 39(ए) और 51 ए(ई) के सिद्धांतों का उल्लंघन करते हुए इस तरह के प्रचलन को बनाए रख सकती है?
  • क्या कोई धार्मिक संस्था 10 से 50 वर्ष की महिलाओं के प्रवेश को ‘केरल हिन्दू प्लेस ऑफ पब्लिक वर्शिप रूल’, 1965 (Kerala Hindu Places of Public Worship Rules, 1965) के नियम संख्या 3 के आधार पर प्रतिबंधित कर सकती है?

प्रतिबंध के पक्ष में तर्क

दरअसल, इस मामले में संवैधानिक और सांस्कृतिक आयाम निहित हैं। वर्ष 1991 में सांस्कृतिक संवेदनशीलता का परिचय देते हुए केरल उच्च न्यायालय की एक खंडपीठ ने कहा था कि सबरीमाला में "एक विशिष्ट आयु से अधिक उम्र की महिलाओं का प्रवेश" असंवैधानिक नहीं है। इस प्रतिबंध के पक्ष में खड़े लोगों का कहना है कि-

  • सबरीमाला में भगवान अयप्पा की एक नास्तिक ब्रह्मचारी के रूप में पूजा की जाती है और यह दैवीय सिद्धांत की दृष्टि से एक तांत्रिक क्रिया है न कि वैदिक।
  • तांत्रिक व्यवस्था में यह मंदिर एक प्रार्थना कक्ष नहीं है बल्कि एक ऊर्जा केंद्र है, जहाँ देवता ईश्वर नहीं, बल्कि एक विशेष आध्यात्मिक ऊर्जा का स्रोत है।
  • प्रत्येक मंदिर की अपनी विशिष्टता है और यही विशिष्टता उस मंदिर की आत्मा भी है। इस दृष्टि से सबरीमाला की इस विशिष्टता को बनाए रखना होगा।
  • ऐसा नहीं है कि इस मंदिर में महिलाओं के प्रवेश पर रोक है, वास्तव में प्रतिवर्ष इस मंदिर में आने वाली महिला श्रद्धालुओं की संख्या लाखों में है, प्रतिबंध केवल उन्हीं महिलाओं के प्रवेश पर है जिनकी आयु 10 से 50 वर्ष के बीच है।

प्रवेश निषेध के विपक्ष में तर्क

सबरीमाला मंदिर में महिलाओं की प्रवेश को "शुद्धता" के एक तर्कहीन और अप्रचलित धारणा के आधार पर प्रतिबंधित करना स्पष्ट रूप से संविधान में वर्णित समानता के प्रावधानों के विरुद्ध है। इस प्रकार के प्रतिबंध लैंगिक समानता बहल करने की दिशा में प्रतिगामी कदम हैं।
यह प्रतिबंध एक पितृसत्तात्मक समाज और महिलाओं के प्रति पक्षपातपूर्ण दृष्टिकोण का परिचायक है।

  • यह प्रवेश निषेध अनुच्छेद 14 (समानता), अनुच्छेद 15 (लिंग आधारित भेदभाव की मनाही) और अनुच्छेद 17 (छुआछूत की मनाही) का उल्लंघन है।
  • साथ ही यह संविधान के अनुच्छेद 25 द्वारा प्रदत धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार का भी उल्लंघन है।
  • नारीत्व और इससे संबंधित जैविक विशेषताओं के आधार पर यह प्रवेश निषेध महिलाओं के लिये अनादरसूचक है, जबकि अनुच्छेद 51 ए (ई) में महिलाओं को गरिमामय जीवन सुनिश्चित करने पर ज़ोर दिया गया है।

निष्कर्ष

विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र भारत विभिन्न धर्मों, समुदायों एवं विभिन्न भाषाएँ बोलने वाले लोगों का देश है, फिर भी यह परस्पर सौहार्द की बेजोड़ मिसाल है। आस्था, गायन, नृत्य, वेश-भूषा, खान-पान आदि के तरीकों में अंतर के बाजजूद वह पारस्परिक सम्मान ही है जिसने भारत की समृद्ध विविधता को जीवंत बनाए रखा है।

  • उपरोक्त संदर्भ में धार्मिक संस्थानों के प्रबंधन की आड़ में कुछ लोगों को धार्मिक अधिकारों का एकाधिकार नहीं मिलना चाहिये।
  • जो भी धार्मिक अनुष्ठानों के प्रबंधकर्त्ता केवल एक वैध और उचित तरीके से संस्थानों का प्रबंधन कर सकते हैं, उन्हें दूसरों की स्वतंत्रता का प्रबंधन करने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिये।
  • अब जब सर्वोच्च न्यायालय द्वारा इस मुद्दे से संबंधित सभी पहलुओं पर विचार किया जा रहा है तो बेहतर यही होगा कि किसी प्रकार के ‘वाद’ से बचते हुए इसे धार्मिक आज़ादी बनाम लैंगिक स्वतंत्रता की बहस न बनाया जाए।
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