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अंतर्राष्ट्रीय संबंध

भारत - चीन सीमा विवाद

  • 07 Mar 2017
  • 8 min read

गौरतलब है कि हाल ही में बीजिंग की एक मैगज़ीन के लिये दिये गए अपने एक इंटरव्यू में भारतीय सीमाओं के संबंध में चीन के पूर्व विशेष प्रतिनिधि दाई बिंग्गुओ (Dai Bingguo) ने कहा कि यदि भारत चाहे तो वह चीन के साथ विद्यमान सीमा विवाद का हल निकाल सकता है| दाई ने स्पष्ट किया कि यदि भारत देश के पूर्वी छोर पर स्थित तवांग (Tawang) क्षेत्र को चीन को सौंपने के लिये राजी हो जाता है तो चीन भी भारत के पश्चिमी छोर पर स्थित अक्साई चीन (Aksai China) में भारत को कुछ छूट देगा|

प्रमुख बिंदु

  • गौरतलब है कि भारत-चीन सीमा विवाद के संबंध में दाई का यह बयान उस समय आया है जब दोनों देशों के मध्य आतंकी मसूद अज़हर, एनएसजी (Nuclear Suppliers Group) में भारत की सदस्यता तथा चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे (China-Pakistan Economic Corridor) जैसे विषय प्रमुख विचार - विमर्श का मुद्दा बने हुए हैं|
  • हालाँकि यहाँ स्पष्ट कर देना अत्यंत आवश्यक है कि दाई का यह बयान भारत तथा चीन सीमा विवाद का हल निकालने के बजाय सीमा विवाद के मुद्दे पर बीजिंग के रुख को दृष्टिगत करता  है| 
  • वस्तुतः चीन के साथ सीमा विवाद के समाधान हेतु तवांग क्षेत्र को चीन को सौंपे जाने की शर्त स्वीकार करना भारत के लिये कोई आसान बात नहीं है क्योंकि यह क्षेत्र भारत की पूर्ण सम्प्रभुता वाला क्षेत्र है|
  • सर्वप्रथम तो यह क्षेत्र भारत के संविधान को पूरी तरह से आत्मसात करते हुए भारत की दोनों विधायिकाओं (प्रदेश विधायिका तथा राष्ट्रीय संसद) के लिये अपना प्रतिनिधित्व प्रदान करता है| 
  • दूसरा, सीमा विवाद के समाधान हेतु प्रस्तुत किया गया यह सुझाव पूर्णतया अनुचित है| ध्यातव्य है कि इससे पहले भी तीन बार ऐसा हुआ है जब चीन के द्वारा इस तरह के बेबुनियादी सुझाव पेश किये गए हैं और हमेशा की भाँति भारत इन सुझावों को नकारता आया है|
  • उल्लेखनीय है कि वर्ष 1960 में चीन के प्रीमियर ज़्होऊ एनलाई द्वारा एक “पैकेज” सौदा पेश किया गया जिसके अंतर्गत अरुणाचल प्रदेश पर भारत की सम्प्रभुता तथा अक्साई चीन पर चीन के कब्ज़े को मान्यता प्रदान की गई थी|
  • हालाँकि इस बेहतरीन प्रस्ताव को तत्कालीन भारतीय प्रधानमंत्री श्री जवाहरलाल नेहरू द्वारा ठुकरा दिया गया| वस्तुतः उस समय इस संबंध में नेहरू की चिंता का मुख्य  कारण यह था कि देश का पश्चिमी छोर, जो कि न तो रणनीतिक रूप से भारत के लिये कुछ खास महत्त्वपूर्ण था और न ही भारत को यह जानकारी ही थी कि यह क्षेत्र भारत की सम्प्रभुता वाला क्षेत्र है भी अथवा नहीं|
  • नेहरू के इस रुख का ही परिणाम था जिसने इस प्रस्ताव के पेश किये जाने के ठीक दो साल बाद न केवल चीन के समक्ष भारत की निर्णय लेने संबंधी कमज़ोरी को उज़ागर किया वरन् चीन को भारत पर आक्रमण करने के लिये भी आमंत्रित किया|  
  • हालाँकि जैसे-जैसे भारत में विकास की लहर तेज़ हुई इसने अपनी पश्चिमी सीमा को भारतीय क्षेत्र के रूप में अंकित करना आरंभ कर दिया जिसे मैकमोहन रेखा (McMahon Line) के रूप में जाना जाता है| ध्यातव्य है कि इसी मैकमोहन रेखा के निर्धारण के फलस्वरूप देश के उत्तर-पूर्व में स्थित अरुणाचल प्रदेश को भारत के एक अभिन्न हिस्से के रूप में दृष्टिगत किया गया|
  • भारत-चीन सीमा विवाद का समाधान निकालने हेतु पेश किये गए दूसरे प्रस्ताव को “एलएसी प्लस सोलुशन” (LAC Plus Solution) के रूप में जाना जाता है| विदित हो कि एलएसी (Line of Actual Control) भारत तथा चीन के मध्य सीमा निर्धारण के लिये खिंची गई एक अंतर्राष्ट्रीय रेखा है
  • उल्लेखनीय है कि इस प्रस्ताव की पेशकश उस समय की गई जब भारत के तत्कालीन राजदूत ए.पी. वेंकटेश्वरन (A.P. Venkateswaran) तथा तत्कालीन चीनी प्रीमियर ज़्होऊ ज़ियांग (Chinese Premier Zhao Ziyang) के मध्य बेकचैनल टॉक (Backchannel Talk) हो रही थी|
  • ध्यातव्य है कि इस प्रस्ताव में पहले की अपेक्षा कुछ नरमी बरतते हुए भारत के पूर्वी क्षेत्र की स्थिति को यथावत बने रहने देने तथा पश्चिमी क्षेत्र में चीन के कब्ज़े वाले क्षेत्र में कुछ रियायत देने का प्रस्ताव किया गया| यह और बात है कि भारत द्वारा इस प्रस्ताव को भी सिरे से नकार दिया गया|
  • तत्पश्चात् चीन ने अपने पुराने रुख की ओर वापसी करते हुए सीमा विवाद के संबंध में कड़ा रुख अपना लिया| 
  • वस्तुतः हमेशा से चीन की नज़र भारत के तवांग क्षेत्र पर रही है, अलग-अलग समय पर अलग-अलग रूप से यह भारत को तवांग क्षेत्र से पीछे हटने तथा इसके बदले देश के पश्चिमी क्षेत्र में हिस्सा लेने जैसे प्रस्ताव पेश करता रहा है|
  • हालाँकि इस संबंध में भारत के रुख से स्पष्ट होता है कि चीन के साथ सीमा विवाद का हल निकालने में भारत की अभी कोई विशेष रुचि नहीं है|

निष्कर्ष

स्पष्ट है कि इस संबंध में समाधान निकालने हेतु “एलएसी प्लस सोलुशन” सबसे अच्छा विकल्प होता| परन्तु एक ऐसे क्षेत्र के लोगों के भविष्य का निर्णय करना, जिनकी भारत के संविधान तथा इसकी व्यवस्था में पूर्ण आस्था है, सर्वथा अनुचित होगा| विदित हो कि भारत के संविधान में भी देश के किसी भी हिस्से को इससे पृथक किये जाने के सिद्धांत को पूर्णतया नकारा गया है| भारत किसी अन्य क्षेत्र का अधिग्रहण तो कर सकता है परन्तु अपने किसी क्षेत्र को मुख्य क्षेत्र से पृथक नहीं कर सकता है| साथ ही यह इसलिये भी मुमकिन नहीं है क्योंकि अरुणाचल प्रदेश का क्षेत्रफल अक्साई चीन की तुलना में दोगुना अधिक है| ऐसे में ज़मीन की अदला-बदली का निणर्य भारत के लिये तो घाटे का सौदा ही साबित होगा|

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