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क्यों महत्त्वपूर्ण है जलवायु परिवर्तन पर पेरिस समझौता?

  • 09 Nov 2017
  • 11 min read

संदर्भ

  • जलवायु परिवर्तन को नियंत्रित करने के वैश्विक समझौते को लागू करने के उद्देश्य से जर्मनी के शहर बॉन में संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन (United Nations Framework Convention on Climate Change-UNFCCC) के दलों के 23वें सम्मेलन (23rd Conference of Parties-COP) का आयोजन किया जा रहा है। COP-23 की अध्यक्षता फिजी के प्रधानमंत्री फ्रैंक बैनिमारामा (Frank Bainimarama) द्वारा की जाएगी। अनुमान है कि इस सम्मलेन में दुनिया भर से बड़ी संख्या में लोग शामिल होंगे। लेकिन तमाम तैयारियों के बाद भी बॉन में होने वाले इस COP-23 के लिये वैसा उत्साह नज़र नहीं आ रहा है, जैसा पेरिस सम्मेलन में था।
  • दरअसल, इस सम्मलेन की सबसे बड़ी चुनौती पेरिस समझौते की तहत तय की गई प्रतिबद्धताओं की दशा और दिशा को तय करना है। जब भी जलवायु परिवर्तन या ग्लोबल वार्मिंग की बात होती है तो पेरिस समझौते का उल्लेख किया जाता है। इस लेख में हम चर्चा करेंगे कि पेरिस समझौता इतना महत्त्वपूर्ण क्यों है और क्या अमेरिका के अलग होने के बाद इसकी प्रासंगिकता में कोई परिवर्तन आया है?

क्या है ग्लोबल वार्मिंग?

  • प्राकृतिक संसाधनों के अत्याधिक दोहन और मानवीय क्रियाओं के कारण वायुमंडल में कार्बन-डाइऑक्साइड, मीथेन आदि गैसों की मात्रा बढ़ती जा रही है।
  • कार्बनडाई-ऑक्साइड जैसी गैसें ऊष्मा को रोककर पृथ्वी को गर्म रखने का कार्य करती हैं। यदि वायुमंडल में कार्बन-डाइऑक्साइड उपस्थित न होती तो पृथ्वी एक बर्फीले रेगिस्तान से अधिक और कुछ नहीं होती।
  • लेकिन, वायुमंडल में CO2 की मात्रा बढ़ने से जितनी ऊष्मा पृथ्वी को गर्म रखने के लिये चाहिये उससे कहीं ज़्यादा ऊष्मा CO2 द्वारा रोक ली जा रही है, जिसके कारण औसत तापमान में खतरनाक वृद्धि हुई है।
  • यही ग्लोबल वार्मिंग का बढ़ना है और जब ग्लोबल वार्मिंग बढ़ेगी तो ध्रुवों पर जमी बर्फ पिघलेगी, समुद्र का जल-स्तर बढ़ेगा और दुनिया के कई बड़े शहर जलमग्न हो जाएंगे।
  • विदित हो कि वर्ष 1880 में जब पहली बार औसत वार्षिक तापमान की गणना की गई थी, तब से तुलना करें तो वर्ष 2016 के औसत वार्षिक तापमान में 1.3 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि देखी गई है।
  • ऐसा अनुमान किया जाता है कि आज के तापमान और आखिरी हिमयुग के तापमान में 5 डिग्री सेल्सियस का अंतर है।
  • जलवायु परिवर्तन से निपटने का एक मात्र तरीका कार्बन-डाइऑक्साइड और मीथेन जैसी ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को कम करना है।

क्या है पेरिस समझौता?

  • यदि कम शब्दों में कहा जाए तो पेरिस समझौता जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिये एक अंतर्राष्ट्रीय समझौता है।
  • वर्ष 2015 में 30 नवंबर से लेकर 11 दिसंबर तक 195 देशों की सरकारों के प्रतिनिधियों ने पेरिस में जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिये संभावित नए वैश्विक समझौते पर चर्चा की।
  • ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को कम करने के लक्ष्य के साथ संपन्न 32 पृष्ठों एवं 29  लेखों वाले पेरिस समझौते को ग्लोबल वार्मिंग को रोकने के लिये एक ऐतिहासिक समझौते के रूप में मान्यता प्राप्त है।

पेरिस समझौते में तय लक्ष्य

  • पेरिस समझौते का मुख्य उद्देश्य वैश्विक  औसत तापमान को इस सदी के अंत तक औद्योगिकीकरण के पूर्व के समय के तापमान के स्तर से 2 डिग्री सेंटीग्रेड से अधिक नहीं होने देना है।
  • पेरिस समझौता मूलतः मानवीय गतिविधियों द्वारा उत्सर्जित ग्रीनहाउस गैसों की मात्रा को सीमित करने पर आधारित है।  साथ ही, यह समझौता उत्सर्जन को कम करने के लिये प्रत्येक देश के योगदान की समीक्षा करने की आवश्यकता का उल्लेख भी करता है।
  • इसके अंतर्गत ही राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान (Nationally Determined Contribution) की संकल्पना को प्रस्तावित किया गया है और  प्रत्येक राष्ट्र से यह अपेक्षा की गई है कि वह ऐच्छिक तौर पर अपने लिये उत्सर्जन के लक्ष्यों का निर्धारण करे।
  • पेरिस समझौते में प्रावधान है कि विकसित देशों को जलवायु परिवर्तन के अनुकूल और नवीकरणीय ऊर्जा को बढ़ावा देने के लिये गरीब देशों को "जलवायु वित्त" (Climate  Finance) प्रदान करके सहायता करनी चाहिये।
  • यद्यपि समझौते में रिपोर्टिंग की आवश्यकता जैसे कुछ बाध्यकारी तत्त्व हैं, परन्तु समझौते का अन्य  महत्त्वपूर्ण पक्ष जैसे उत्सर्जन का लक्ष्य निर्धारित करना, बाध्यकारी नहीं है।

भारत का राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान (india’s Nationally Determined Contribution)

  • भारत ने राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान (Nationally Determined Contribution-NDC) के तहत वर्ष 2030 तक अपनी उत्सर्जन तीव्रता को 2005 के मुकाबले 33-35 फीसदी तक कम करने का लक्ष्य रखा है।
  • भारत ने वृक्षारोपण और वन क्षेत्र में वृद्धि के माध्यम से 2030 तक 2.5 से 3 बिलियन टन CO2 के बराबर कार्बन सिंक बनाने का वादा किया है।
  • भारत कर्क और मकर रेखा के बीच अवस्थित सभी देशों के एक वैश्विक सौर गठबंधन के मुखिया (anchor of a global solar alliance) के तौर पर कार्य करेगा।

क्यों महत्त्वपूर्ण है पेरिस समझौता?

  • ग्रीनहाउस गैस-उत्सर्जन से संबंधित वर्तमान प्रतिबद्धता (क्योटो प्रोटोकॉल)  2020 में समाप्त हो जाएगी। अतः पेरिस समझौते से ही तय होगा कि वर्ष 2020 के बाद क्या किया जाना चाहिये।
  • भारत ने अपनी उत्सर्जन तीव्रता को कम करने का लक्ष्य रखा है। इसके लिये कृषि, जल संसाधन, तटीय क्षेत्रों, स्वास्थ्य और आपदा प्रबंधन के मोर्चे पर भारी निवेश की ज़रूरत है और इसके लिये समझौते में प्रावधान किया गया है कि विकसित देश अपने विकासशील समकक्षों को सालाना 100 बिलियन डॉलर देंगे।
  • पेरिस समझौता भारत के लिये इस संदर्भ में महत्त्वपूर्ण है कि यहाँ भारत विकासशील और विकसित देशों के बीच अंतर स्थापित करने में कामयाब रहा है।
  • हालाँकि यही वे बिंदु हैं जिनका हवाला देते हुए अमेरिका खुद को पेरिस समझौते से अलग करने की घोषणा कर चुका है।

पेरिस समझौते का आलोचनात्मक पक्ष

  • संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि यदि सभी देशों द्वारा कार्बन उत्सर्जन में कटौती के दावों को पूरा कर लिया जाता है तो भी, वैश्विक तापमान वृद्धि को 2 डिग्री सेल्सियस के अंदर रखने के लक्ष्य को पूरा करना संभव नहीं होगा।
  • समझौते के अधिकांश प्रावधान "वादे" तथा गैर-बाध्यकारी लक्ष्यों पर आधारित हैं, जबकि ज़रूरत दृढ़ प्रतिबद्धताओं की है।
  • उत्सर्जन कटौती कम करने का एक मात्र ज़रिया देशों का राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान (Nationally Determined Contribution-NDC) ही है। अतः वैश्विक बाध्यकारी नियमों के बिना उत्सर्जन में कटौती एक दुष्कर कार्य होगा।

महत्त्वपूर्ण है बॉन सम्मलेन

  • अमेरिका जैसे देश का पेरिस समझौते से बाहर हो जाना स्वाभाविक तौर पर बहुत बड़ा झटका है। हालाँकि बॉन सम्मलेन में यह सुनिश्चित किया जाना चाहिये कि अमेरिका की अनुपस्थिति जलवायु परिवर्तन के लक्ष्यों से समझौता करने का कारण नहीं बन सकती।
  • दरअसल, जलवायु परिवर्तन से जुड़े इन सम्मेलनों से अब तक बहुत कुछ हासिल किया गया है। 1992 में रियो में हुए पहले सम्मेलन के बाद से दुनिया में अब तक कार्बन उत्सर्जन घटाने की दिशा में ठीक-ठाक प्रगति हुई है।
  • बॉन सम्मेलन को सर्वाधिक उपस्थिति वाला कॉप सम्मेलन माना जा रहा है। ऐसा इसलिये कि अब निजी क्षेत्र, स्थानीय और क्षेत्रीय सरकारों के प्रतिनिधि भी इसमें हिस्सा ले रहे हैं। COP सम्मेलनों ने अप्रयत्क्ष ढंग से तमाम सेक्टरों के लिये रास्ते खोले हैं।
  • कार्बन उत्सर्जन की समस्या का निदान उत्सर्जन कम करते हुए हरित तकनीकों को बढ़ावा देने से हो सकता है, जिसके लिये विकासशील देशों को मज़बूत वित्तीय सहायता की आवश्यकता होगी और बॉन सम्मलेन में इसकी पहचान करनी होगी।

(COP की 23वीं बैठक अभी जारी है, इस बैठक के परिणामों का विश्लेषण हम अलग से प्रस्तुत करेंगे। इस संबंध में और पढ़ें: कितना प्रासंगिक होगा बॉन सम्मेलन?

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