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अंतर्राष्ट्रीय संबंध

कितने व्यावहारिक हैं नकदी से भरे हुए बैंक ?

  • 07 Jan 2017
  • 6 min read

पृष्ठभूमि

  • “यदि घोड़े को प्यास लगी है तो उसे तालाब में उतारने की बजाय किनारे से पानी पिलाना उचित है।“ विमुद्रीकरण और बैंकों में जमा अकूत नकदी के संबंध में यह उक्ति एकदम सटीक बैठती है। गौरतलब है कि विमुद्रीकरण के बाद से अब तक देश के निजी और सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों की हज़ारों शाखाओं में उल्लेखनीय रूप में नकदी जमा की गई है।
  • क्या बैंकों का नकदी से भर जाना ही अर्थव्यवस्था के लिये शुभ संकेत है? ध्यातव्य है कि स्टेट बैंक सहित कई बैंकों ने अपनी ऋण दरों में कटौती की है तो क्या इन सबसे भारतीय अर्थव्यवस्था पटरी पर दौड़ने लगेगी? आइये, इन सभी प्रश्नों का उत्तर अर्थशास्त्र की तकनीकी भाषा में नहीं बल्कि सरल एवं साधारण शब्दों में जानने का प्रयास करतें हैं।

बैंक में अत्याधिक नकदी होने के मायने

  • गौरतलब है कि पिछले वर्ष 8 नवम्बर को विमुद्रीकरण की घोषणा के साथ ही यह तय हो गया था कि इसमें बैंकों की भूमिका महत्त्वपूर्ण होने वाली है। देश भर के लोगों ने एक जनांदोलन की भाँति कतारों में लगकर अपनी नकदी बैंको में जमा कराई। एक अनुमान के मुताबिक भारतीय रिज़र्व बैंक के पास 94 प्रतिशत विमुद्रीकृत मुद्रा वापस आ चुकी है। बैंकों में जमा नकदी के संबंध में मुख्य रूप से तर्क दिया जा रहा है कि बड़ी मात्रा में बैंको में नकदी की उपलब्धता से बैंको को ऋण देने में मदद मिलेगी जिससे निवेश बढ़ेगा।

यह तर्क व्यावहारिक क्यों नहीं हैं? 

  • विदित हो कि जब तक बैंक ऋण न देने की अवस्था तक नहीं पहुँच जाते अर्थात ऋण और बैंकों में जमा मुद्रा का अनुपात अनुमेय स्तर तक नहीं पहुँच जाता, तब तक कितनी राशी ऋण के तौर पर उपलब्ध कराई जाएगी, इस बात का निर्धारण बैंक ऋण की मांग के अनुसार करते हैं। यहाँ तक कि ऋण दरों का कम होना भी इस बात की गारंटी नहीं है कि ऋण की मांग में बढ़ोतरी होगी।
  • गौरतलब है कि 1930 में अमेरिका में बैंकों ने अपनी ऋण दरों में उल्लेखनीय कटौती की थी, फिर भी ऋण की मांग नहीं बढ़ी; तब प्रसिद्ध अर्थशास्त्री जे.एम. कीन्ज़ ने कहा था कि “मौद्रिक नीतियों के सहारे अर्थव्यवस्था में सुधार करने का प्रयास करना अर्थव्यवस्था को एक धागे से खींचने के जैसा है।
  • एक सम्भावित ऋण ग्राहक इस बात पर विचार करता है कि बाज़ार की परिस्थितियाँ कैसी हैं? जिस दर पर वह ऋण ले रहा है, क्या वह उसके अनुमानित लाभांश के अनुरूप है?
  • यदि स्पष्ट और सरल शब्दों में कहें तो ‘चाहे ऋण दरें कितनी भी घटा दी गई हों, चाहे बैंकों में नगदी भरी पड़ी हो, ऋण की मांग में तभी वृद्धि होगी जब निवेश की परिस्थितियाँ अनुकूल हों।

वर्तमान आर्थिक परिस्थितियों पर एक नज़र

  • वैसे, विमुद्रीकरण के पहले से ही भारत में ऋण की मांग को लेकर उत्साहजनक वातावरण नहीं था। निजी पूंजी निर्माण पिछले दो वर्ष से कम होता जा रहा है, यही कारण है कि वर्ष 2016 में भारतीय रिज़र्व बैंक ने नीतिगत दरों में दो बार कटौती की थी।
  • ध्यान देने वाली बात है कि पिछले साल विश्व बैंक ने कहा था कि भारत में सार्वजनिक क्षेत्र निवेश कर रहा है और निजी क्षेत्र उपभोग कर रहा है। विश्व बैंक का यह कहना इस बात का द्योतक है कि भारत में ऋण लेने को लेकर निजी क्षेत्र में उत्साह नहीं है।

निष्कर्ष

  • वस्तुतः  निवेशक तब तक बैंकों से ऋण की मांग नहीं करेगा जब तक उसे बाज़ार निवेश के अनुकूल नहीं दिखता, अतः लोगों के हाथ से पैसा खींचकर बैंको तक पहुँचाने का सरकार का यह कदम उतना व्यावहारिक तो नहीं कहा जा सकता।
  • हालाँकि, अब ध्यान इस बात पर देना है कि वर्तमान परिस्थितियों में क्या किया जाए? किसी भी अर्थव्यवस्था को गति देने में उस देश की बजटीय नीतियों का सर्वाधिक योगदान होता है। ध्यातव्य है कि अगले माह आगामी वित्त वर्ष (2017-18) के लिये बजट पेश होना है और आवश्यक सुधारों के लिये यह सरकार के पास उपयुक्त मंच है।
  • सरकार को चाहिये कि लोक-लुभावन घोषणाओं की बजाय राजकोषीय घाटा कम करने के उपाय करे, विमुद्रीकरण के नकारात्मक प्रभावों को दूर करने का प्रयास करे। बैंको में जमा पैसा ऋण के रूप में तभी बाहर आ पाएगा, जब निवेश के लायक परिस्थितियाँ बनाई जाएंगी।
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