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एडिटोरियल

अंतर्राष्ट्रीय संबंध

बजट एवं उसकी निर्माण प्रक्रिया

  • 09 Feb 2017
  • 10 min read

पृष्ठभूमि

केंद्रीय बजट 2017-18 में वित्त मंत्री अरुण जेटली द्वारा जिन दस मुख्य बिन्दुओं को प्रमुखता से शामिल किया गया है उनमें किसानों एवं ग्रामीण आबादी को अधिक महत्त्व दिया गया है| इसके अतिरिक्त, इनमें गरीबों एवं वंचितों के लिये आवश्यक सुरक्षा संजाल को भी शामिल किया गया है| ध्यातव्य है कि बजट में किसानों की आय को पाँच वर्षों में दोगुना करने की प्रतिबद्धता व्यक्त की गई है| इस सन्दर्भ में, इस लेख में किसानों और ग्रामीण लोक से संबंधित मुख्य बजटीय प्रावधानों का विश्लेषण किया गया है| 

  • वस्तुतः आगामी पाँच वर्षों में किसानों की आय दोगुनी करने के लिये यह गणना करना अत्यंत आवश्यक है कि (i) किस वित्तीय वर्ष को इसके तहत आधार वर्ष के रूप में तय किया जाएगा, तथा (ii) आधार वर्ष के रूप में अधिसूचित किये जाने वाले वित्तीय वर्ष में प्राप्त हुई न्यूनतम आय  को आधार बनाया जाएगा अथवा वास्तविक आय को|
  • इसके लिये आवश्यक है कि सबसे पहले हमें वित्तीय वर्ष 2015-16 में किसानों की आय के स्तर के विषय में सटीक जानकारी होनी चाहिये ताकि आगामी पाँच वर्षों में किसानों की आय दोगुनी करने के सपने को साकार करने हेतु एक उचित आधार वर्ष का चयन किया जा सके|
  • गौरतलब है कि मोदी सरकार के शुरुआती तीन वर्षों में वास्तविक रूप में कृषि की औसत जीडीपी विकास दर 1.7% के स्तर पर विद्यमान रही है| स्पष्ट है कि विकास दर के आधार पर अगले पाँच वर्षों में किसानों की आय में अप्रत्याशित वृद्धि करना असंभव प्रतीत होता है|

क्या बजट ऐसा कर सकता है? 

  • यहाँ सबसे महत्त्वपूर्ण प्रश्न यह है कि क्या बजट में उल्लिखित इन लक्ष्यों को पूरा किया जा सकता है? यदि हाँ, तो कैसे?
  • इस सन्दर्भ में बजट का अध्ययन करने पर ज्ञात होता है कि केंद्रीय बजट के अंतर्गत कृषि, खाद्य तथा ग्रामीण क्षेत्रों से संबंधित विभागों को आवंटित की जाने वाली धनराशि का एक बड़ा भाग खाद्य सब्सिडी (1,45, 339 करोड़ रुपए ) तथा मनरेगा (48,000 करोड़ रुपए ) पर खर्च हो जाता है| यह और बात है कि ये दोनों ही घटक देश की गरीब आबादी के लिये अनिवार्य रूप से आवश्यक कार्यक्रम हैं|
  • ध्यातव्य है कि कृषि के व्यय का एक बड़ा हिस्सा उर्वरक सब्सिडी (70,000 करोड़ रुपए), ऋण (15,000 करोड़ रुपए) तथा फसल बीमा (9,000 करोड़ रुपए) के रूप में खर्च होता है| यानि कुल मिलाकर 94,000 करोड़ रुपए खर्च होता है|
  • इसके विपरीत, बजट में आवंटित की जाने वाली धनराशि के अंतर्गत कृषि क्षेत्र से संबद्ध कुछ विशेष योजनाओं को भी शामिल किया गया है, जिनमें प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना, प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना, दीन दयाल उपाध्याय ग्राम ज्योति योजना तथा कृषि क्षेत्र में विस्तार हेतु कुछ अन्य उप-मिशनों के साथ-साथ कृषि क्षेत्र में शिक्षा तथा शोध को बढ़ावा देने हेतु तकरीबन 38,903 करोड़ रुपए आवंटित किये गए हैं|
  • यह गौर करने योग्य बात यह है कि केंद्रीय बजट के अंतर्गत तकरीबन 88 फीसदी धनराशि का आवंटन केवल सुरक्षा घटकों तथा कृषि सब्सिडी के तहत प्रदान किया जाता है जबकि मात्र 12 फीसदी धनराशि का आवंटन कृषि-उत्पादन में वृद्धि करने हेतु किया जाता है| 
  • ऐसे में सबसे अहम प्रश्न बनता है कि आखिर किस आधार पर देश के नीति-निर्माता कृषि क्षेत्र में उत्पादकता को बढ़ावा देने एवं सतत् विकास के आधार पर कृषि के क्षेत्र में प्रगति के मुद्दे को बल प्रदान करते हुए आगामी पाँच वर्षों में किसानों की आय को वर्तमान के स्तर से बढ़ाकर दोगुना करने पर विचार कर रहे हैं?
  • हालाँकि इस बजट में प्रतिवर्ष कृषि की दर में तकरीबन 4 फीसदी की स्थाई वृद्धि करने हेतु नाबार्ड (National Bank for Agriculture and Rural Development - NABARD)के माध्यम से सार्वजनिक निवेश के विकल्प पर विशेष बल दिया गया है|
  • परन्तु, बजट में सम्मिलित उक्त निवेश बढ़ाने वाली पहलों के साथ-साथ कुछ अन्य मध्यम तथा वृहद सिंचाई परियोजनाओं (20,000 करोड़ रुपए), सूक्ष्म सिंचाई परियोजनाओं (5,000 करोड़ रुपए) तथा एक डेयरी प्रसंस्करण बुनियादी ढाँचागत कोष (Dairy processing infrastructure corpus) (8,000 करोड़ रुपए) को किर्यान्वित करने के बावजूद इस क्षेत्र की मौलिक तस्वीर में कोई विशेष परिवर्तन होता नज़र नहीं आ रहा है|

अन्य महत्त्वपूर्ण बिंदु

  • सब्सिडी तथा मनरेगा जैसे कार्यक्रमों विशेषकर मनरेगा को संसाधन का अधिक खपत करने वाला कारक समझा जाता है| वस्तुतः इनका अनुपालन भी अक्षमता तथा भ्रष्टाचार से ग्रसित है| यही कारण है कि उक्त सब्सिडी तथा मनरेगा के तहत संसाधनों का बहुतायत में दुष्प्रयोग किया जाता है|
  • दुर्भाग्य से इस बजट के अंतर्गत भी उक्त सभी समस्याओं के समाधान हेतु आवश्यक उपायों की उपेक्षा की गई है| 
  • ध्यातव्य है कि वित्तीय वर्ष 2011-12 तथा वर्ष 2014-15 में जीडीपी में कृषि क्षेत्र में वास्तविक पूँजी निर्माण में क्रमशः 18.3 फीसदी तथा 16.2 फीसदी तक की गिरावट दर्ज़ की गई| परन्तु, न तो बजट में और न ही आर्थिक सर्वेक्षण में इस दिशा में कोई विशेष पहल की गई|
  • ध्यातव्य है कि वर्ष 2017-18 में कृषि क्षेत्र में 10 लाख तक के ऋण की उपलब्धता सुनिश्चित किये जाने से इस समस्या का कोई स्थाई हल निकलना संभव नहीं है| इसका कारण यह है कि इस समस्त राशि का तकरीबन 80 फीसदी हिस्सा तो केवल फसल ऋणों को चुकता करने में ही व्यय हो जाएगा| स्पष्ट है कि मात्र 20 फीसदी हिस्से को कृषि क्षेत्र में निवेश हेतु प्रयोग किया जा सकेगा|
  • स्पष्ट है कि भारत की कृषि नीति अभी भी “दान आधारित” तथा “उपभोक्ता समर्थक” नीति बनी हुई है, यह और बात है कि देश के किसान को अभी भी सरकार से बहुत सी उम्मीदें हैं|
  • उक्त विश्लेषण से स्पष्ट है कि यदि सरकार का कृषि की ओर यही रुख रहा तो वह समय दूर नहीं है जब शनैः शनैः कृषि अपना दम तोड़ देगी| इसके लिये सरकार को इस क्षेत्र में  में आवश्यक सुधार करने हेतु कुछ विशेष प्रभावकारी कदम उठाने की आवश्यकता है| 
  • वस्तुतः इसके लिये बेहतर लक्ष्यों को निर्धारित करने के साथ-साथ सब्सिडी को तर्कसंगत बनाने हेतु आवश्यक है कि कृषि क्षेत्र में निवेश को और अधिक बढ़ावा प्रदान किया जाए| 

निष्कर्ष

ध्यातव्य है कि यदि खाद्य सामग्री तथा उर्वरक सब्सिडी को सीधे प्रत्यक्ष लाभ हस्तांतरण से संबद्ध कर दिया जाता है तो मात्र इन दोनों से तक़रीबन 50,000 करोड़ रुपए के रिसाव को रोका जा सकता है| इस प्रकार इस धनराशि का कृषि बाज़ारों, सिंचाई, कृषि से संबंधित शोध कार्यों इत्यादि में निवेश किया जा सकता है| सम्भवतः निवेश की गई इस धनराशि के बलबूते न केवल दीर्घावधि के लिये खाद्य सुरक्षा को सुनिश्चित किया जा सकता है वरन् किसानों की आय में वृद्धि करने हेतु कुछ बेहतर विकल्प भी तैयार किये जा सकते है| अंततः यही आशा व्यक्त की जा सकती है सम्भवतः सरकार बजट में तो किसानों के लिये कुछ खास कर नहीं पाई परन्तु शायद इससे इतर कुछ कर सके|

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