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एडिटोरियल

भारतीय अर्थव्यवस्था

आर्थिक वृद्धि के लिये कींस के विचारों की आवश्यकता

  • 04 Jul 2019
  • 18 min read

इस Editorial में The Hindu, Indian Express, Business Line, India Today, आदि में प्रकाशित लेखों का विश्लेषण किया गया है, जो भारत की जीडीपी वृद्धि दर से संबंधित है। जीडीपी की कमी के कारणों एवं इसको तीव्र करने के उपायों पर इस आलेख में चर्चा की गई है तथा आवश्यकतानुसार यथास्थान टीम दृष्टि के इनपुट भी शामिल किये गए हैं।

संदर्भ

भारत की जीडीपी वृद्धि दर पिछली तिमाही के लिये 5.8 प्रतिशत रही है। यह दर अपने अनुमान की तुलना में काफी कम है। गिरती आर्थिक वृद्धि दर ने भारत के नीति निर्माताओं और अर्थशास्त्रियों के लिये एक चिंतन की परिस्थिति उत्पन्न कर दी है।

आर्थिक मोर्चे पर मिले-जुले परिणाम

पिछले कुछ वर्ष भारत के लिये मिले-जुले परिणामों वाले रहे हैं-

  • भारत में वर्तमान में बेरोज़गारी की दर पिछले 45 वर्षों में सबसे अधिक है।
  • भारत की GDP (Nominal) वर्ष 2009 में 1.32 ट्रिलियन से बढ़कर वर्ष 2019 में 2.74 ट्रिलियन हो गई है जो मामूली रूप से 7.5 प्रतिशत की वृद्धि दर थी, अब पिछली तिमाही में घटकर 5.8 प्रतिशत पर आ गई है।
  • भारत ने अगले 5 वर्षों में जीडीपी का आकार 5 ट्रिलियन करने का लक्ष्य बनाया है। सरकार के आर्थिक सर्वेक्षण-2019 के अनुसार, इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिये जीडीपी में 8 प्रतिशत की वृद्धि दर आवश्यक होगी।
  • ‘एक देश एक कर’ के रूप में वस्तु एवं सेवा कर (GST) का सफलता पूर्वक क्रियान्वयन किया गया है।
  • राजकोषीय घाटा वर्ष 2018-19 में 3.4 प्रतिशत रहा है।
  • इनसॉल्वेंसी एंड बैंकरप्सी कोड (IBC) संहिता को क़ानूनी रूप देने में सरकार ने सफलता हासिल की है।

उपर्युक्त बिंदु भारत की आर्थिक स्थिति को प्रदर्शित करते हैं जिससे महत्त्वपूर्ण रूप से महसूस होता है कि भारत की आर्थिक वृद्धि दर आवश्यक बिंदु से नीचे है जिसमें वृद्धि अपेक्षित है।

मौद्रिक नीति एवं इसके उद्देश्य

मौद्रिक नीति का मुख्य उद्देश्य आर्थिक वृद्धि को ध्यान में रखते हुए मूल्य स्थिरता बनाए रखना है, क्योंकि मूल्य स्थिरता संधारणीय विकास की अनिवार्य शर्त है।

किसी अर्थव्यवस्था में मुद्रास्फीति के अधिक होने का अर्थ है आवश्यक चीज़ों के दामों में बढ़ोतरी। यह इस बात का संकेतक होता है कि महँगाई तेज़ी से बढ़ रही है।

मुद्रास्फीति में कमी लाने के लिये मौद्रिक नीति में सबसे महत्त्वपूर्ण है रेपो रेट । यदि रिज़र्व बैंक चाहता है कि बाज़ार में पैसे की आपूर्ति और तरलता बढ़े तो वह बैंक रेट को कम कर देता है।

यदि बाज़ार में पैसे की आपूर्ति और तरलता कम करनी है तो वह रेपो रेट को बढ़ा देता है। मुद्रास्फीति बढ़ने पर केंद्रीय बैंक सामान्यतः रेपो रेट बढ़ा देता है और मुद्रास्फीति घटने पर कम कर देता है।

कह सकते हैं कि मौद्रिक नीति एक प्रकार का अस्त्र है, जिसके आधार पर बाज़ार में मुद्रा की आपूर्ति को नियंत्रित किया जाता है। मौद्रिक नीति ही यह तय करती है कि रिज़र्व बैंक किस दर पर बैंकों को क़र्ज़ देगा और किस दर पर उन बैंकों से पैसा वापस लेगा।

मौद्रिक नीति और आर्थिक वृद्धि

विभिन्न कारणों (विनिर्माण और कृषि क्षेत्र की निम्न वृद्धि) से भारत में आर्थिक वृद्धि की दर कम रही है। जिसमें एक महत्त्वपूर्ण कारण भारत की मौद्रिक नीति (Monetary Policy) को माना जा सकता है। पिछले कुछ वर्षों से भारत के केंद्रीय बैंक (भारतीय रिज़र्व बैंक) की मौद्रिक नीति का मुख्य बल मुद्रास्फीति (Inflation) को नियंत्रित करने पर रहा है। प्रायः मुद्रास्फीति और आर्थिक वृद्धि दर में व्युत्क्रमानुपाती संबंध (Inverse Relation) होता है। यह ध्यान देने योग्य है कि भारतीय रिज़र्व बैंक मुद्रास्फीति के नियंत्रण के लिये मौद्रिक नीति के माध्यम से बैंकिग व्यवस्था में तरलता (Liquidity) को कम कर देता है। तरलता के कम होने से लोगों की ऋण लेने की क्षमता कम हो जाती है, परिणामतः मुद्रास्फीति में गिरावट आती है। लेकिन इस व्यवस्था का एक बड़ा प्रतिप्रभाव है कि यह आर्थिक वृद्धि दर को भी कम कर देती है। ज्ञात हो कि बैंकिंग व्यवस्था में तरलता के कम होने से व्यापार और व्यवसाय के लिये भी ऋण लेना कठिन हो जाता है क्योंकि ब्याज की दरें अधिक होती हैं। अतः अर्थव्यवस्था में घरेलू निवेश की कमी के कारण अर्थव्यवस्था की गति धीमी हो जाती है। कुछ विद्वानों का मानना है कि RBI ने मुद्रास्फीति के नियंत्रण पर अधिक जोर दिया जिससे लोगों की क्रय क्षमता में कमी आई। और जिसका परिणाम मुद्रास्फीति की कमी के साथ साथ आर्थिक वृद्धि दर की कमी के रूप में सामने आया है।

राजकोषीय घाटा (Fiscal deficit)

सामान्य बोलचाल की भाषा में किसी वित्तीय वर्ष में कुल सरकारी आय और कुल सरकारी व्यय का अंतर राजस्व घाटा कहलाता है, जबकि किसी वित्तीय वर्ष के राजस्व घाटे और सरकार द्वारा लिये गए ऋण पर ब्याज तथा अन्य देयताओं के भुगतान का योग राजकोषीय घाटा कहलाता है। और सरल शब्दों में कहें तो सरकार की कुल आय और व्यय में अंतर को राजकोषीय घाटा कहा जाता है। इससे पता चलता है कि सरकार को कामकाज चलाने के लिये कितनी उधारी की ज़रूरत होगी। कुल राजस्व का हिसाब-किताब लगाने में उधारी को शामिल नहीं किया जाता।

राजकोषीय घाटा आमतौर पर राजस्व में कमी या पूंजीगत व्यय में अत्यधिक वृद्धि के कारण होता है।

राजकोषीय नीति तथा आर्थिक वृद्धि

वर्ष 2008 की वैश्विक आर्थिक मंदी के पश्चात् भारत का राजकोषीय घाटा जीडीपी के 6.2 प्रतिशत के आसपास पहुँच गया था। इसके कारण भारत को आर्थिक मंदी से उबारने के लिये सरकारी खर्च में वृद्धि की जानी थी। इस घाटे को कम करने के लिये विभिन्न सरकारों ने राजकोषीय घाटे में कटौती की जिसका परिणाम सरकारी खर्च की कमी के रूप में सामने आया। साथ ही सरकारी खर्च में कटौती ने लोगों के खर्च करने की क्षमता को भी प्रभावित किया जिसके कारण अर्थव्यवस्था में मांग में कमी आ गई। उपर्युक्त प्रक्रिया ने विभिन्न उद्योगों को भी प्रभावित किया, परिणामस्वरूप यह जीडीपी की कमी के रूप में सामने आया।

भारत के लिये कींस के सिद्धांत की आवश्यकता

वर्ष 1930 की महान आर्थिक मंदी से निपटने में जॉन मेनार्ड कींस (John Maynard Keynes) के सिद्धांतों का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा था। कींस महोदय के अनुसार, यदि आर्थिक मंदी की स्थिति है तो सरकारी खर्च में बढ़ोतरी तथा टैक्स में कमी करनी चाहिये। भारत की अर्थव्यवस्था वर्तमान में गिरावट (Slowdown) के लक्षण प्रदर्शित कर रही है जिससे निपटने के लिये कींस के विचारों को अपनाया जा सकता है।

प्रायः यह विचार सामने आता रहा है कि सरकारी खर्च में कमी करके ही सरकारी घाटे को कम किया जा सकता है। किंतु विमल जालान (RBI के पूर्व गवर्नर) के अनुसार, राजकोषीय नीति दोराही सड़क (Two way street) के समान है जिसमें सरकारी खर्च को कम करने के बजाय कर संग्रहण (Tax Collection) को कुशल बनाकर सरकारी घाटे की पूर्ति की जा सकती है। भारत में पिछले कुछ वर्षों में टैक्स-जीडीपी अनुपात (Tax-GDP ratio) में वृद्धि हुई है। किंतु यह दक्षिण अफ्रीका एवं अन्य OECD (Organisation for Economic Co-operation and Development) देशों से अभी भी काफी कम है। कर संग्रहण में कुशलता इस अनुपात की वृद्धि में सहायक हो सकती है।

Tax to GDP ratio

सरकार ने प्रधानमंत्री किसान सम्मान योजना की शुरुआत की है, इस योजना में किसानों को एक वित्त वर्ष में तीन हिस्सों में 6000 रुपए की आर्थिक सहायता देने का प्रावधान है। यह योजना किसानों की स्थिति को सुधारने के साथ-साथ मांग में वृद्धि पर भी बल देगी जिससे अर्थव्यवस्था को लाभ होगा।

राजकोषीय घाटा प्रायः किसी अर्थव्यवस्था के लिये नकारात्मक समझा जाता है। लेकिन कुछ विद्वानों का मानना है कि राजकोषीय घाटे पर सरकारों को कठोर नीति बनाने से बचना चाहिये। यदि अर्थव्यवस्था में मांग में कमी आ रही हो और मंदी की स्थिति आने की संभावना हो तो सरकारी खर्च को बढ़ाकर अर्थव्यवस्था को प्रोत्साहित किया जा सकता है। ऐसी स्थिति में घाटे में वृद्धि अवश्य होगी किंतु अर्थव्यवस्था की दृष्टि से निकट भविष्य में ही इसके सकारात्मक परिणाम दिखाई दे सकते हैं। वहीं दूसरी ओर यदि अर्थव्यवस्था की सेहत संतोषजनक हो तथा मुद्रास्फीति वृद्धि पर हो, तो सरकारी घाटे की एक सीमा तय की जा सकती है। यह प्रणाली कुशल एवं लचीली राजकोषीय नीति के द्वारा ही संभव है।

अधिक राजस्व की आवश्यकता एवं उपाय

सरकार की कुछ योजनाएँ जैसे- प्रधानमंत्री किसान सम्मान योजना, आयुष्मान योजना आदि के लिये भारत को अधिक कोष की आवश्यकता होगी। भारतमाला परियोजना, गंगा सफाई योजना, गोदावरी-पेन्नार नदी जोड़ो परियोजना आदि के चलते सरकारी खर्च के साथ-साथ गहन रोज़गार के सृजन की भी संभावना है। इन योजनाओं से भारतीय अर्थव्यवस्था को बल मिलेगा।

उपर्युक्त योजनाओं के लिये सरकारी खर्च में वृद्धि हेतु सरकार ने कुछ उपाय किये हैं-

  • सरकार ने आयकर तथा GST की चोरी करने वालों के खिलाफ कार्यवाही की है।
  • कर विभाग से जुड़े अक्षम तथा भ्रष्ट अधिकारियों की सेवाएँ समाप्त की जा रही हैं।
  • गंभीर कर चोरी से जुड़े मामलों में समझौते के प्रावधानों को समाप्त किया जा रहा है।
  • आधार क्षरण एवं लाभ हस्तांतरण (Base Erosion and Profit Shifting) में लिप्त बहुराष्ट्रीय कंपनियों (MNC) की समस्या से निपटने के लिये G-20 के स्तर पर भी प्रयास किये जा रहे हैं। इस समस्या से निपटने के लिये OECD के साथ एक समझौते पर भारत ने भी सहमति दे दी है।

आधार क्षरण एवं लाभ हस्तांतरण

(Base Erosion and Profit Shifting)

BEPS का तात्पर्य ऐसी टैक्स प्लानिंग रणनीतियों से है जिनके तहत टैक्स नियमों में अंतर और विसंगतियों का लाभ उठाकर कम्पनियाँ अपने लाभ को किसी ऐसे स्थान या क्षेत्र में हस्तांतरित कर देती हैं जहाँ या तो टैक्स होता ही नहीं और यदि होता भी है तो बहुत कम अथवा नाम-मात्र। इन क्षेत्रों में आर्थिक गतिविधियाँ या तो नहीं होती हैं या मामूली आर्थिक गतिविधियाँ होती हैं। ऐसे में संबंधित कंपनी द्वारा या तो कोई भी कॉरपोरेट टैक्स‍ अदा नहीं किया जाता है अथवा मामूली कॉरपोरेट टैक्‍स का ही भुगतान किया जाता है।

जून 2017 में भारत ने पेरिस स्थित OECD के मुख्‍यालय में आयोजित एक समारोह में आधार क्षरण एवं लाभ स्‍थानांतरण (BEPS) की रोकथाम हेतु कर संधि से संबंधित उपायों को लागू करने के लिये बहुपक्षीय समझौते पर हस्‍ताक्षर किये थे।

इस समझौते का उद्देश्य‍ कृत्रिम ढंग से कर अदायगी से बचने की प्रवृत्ति पर रोक लगाना, संधि के दुरुपयोग की रोकथाम सुनिश्चित करना और विवाद निपटान की व्‍यवस्‍था को बेहतर करना है।

उपर्युक्त प्रयासों के अतिरिक्त कुछ अन्य उपाय भी किये जा सकते हैं-

  • भविष्य में होने वाले GST सुधारों में कर के स्लैब को कम करना तथा दरों में कटौती का प्रावधान किया जा सकता है।
  • लोगों के लाभांश की मात्रा के अनुसार करों का निर्धारण किया जाना चाहिये।
  • जब भी करारोपण की चर्चा होती है सरकारें सरचार्ज के माध्यम से करों में वृद्धि करती हैं। सरकार करोड़पतियों के लिये एक 40 प्रतिशत के टैक्स स्लैब पर भी विचार कर सकती है।
  • सरकार ने बजट में जो वादे किये हैं उनको भी पूरा किया जाना चाहिये क्योंकि बजट के कुछ प्रावधान अर्थव्यवस्था को गति देने में सहायक हो सकते हैं।
  • सरकार को सट्टेबाज़ी पर कर लगाने पर विचार करना चाहिये। ज्ञात हो कि सुप्रीम कोर्ट द्वारा इस मुद्दे पर गठित SIT सट्टेबाजी पर कर लगाने की सिफारिश कर चुकी है। SIT ने FICCI और KPMG की रिपोर्ट के हवाले से बताया कि इससे 3 लाख करोड़ रुपए की राशि को टैक्स के दायरे में लाया जा सकता है और 20 प्रतिशत की दर से कर लगाकर 12 हज़ार से 19 हज़ार करोड़ रुपए के बीच राजस्व की प्राप्ति हो सकती है।

सरकार उपर्युक्त उपायों से संसाधन जुटा सकती है। तथा विभिन्न रोज़गारोन्मुखी योजनाओं का क्रियान्वयन करके अर्थव्यवस्था की गति तीव्र की जा सकती है।

निष्कर्ष

भारतीय अर्थव्यवस्था के समक्ष अपनी गति को तीव्र करने की प्रमुख चुनौती है, साथ ही भारत ने अगले 5 वर्षों में 5 ट्रिलियन के आकार की अर्थव्यवस्था बनने की योजना बनाई है। पिछली तिमाही में भारत की जीडीपी वृद्धि दर 5.8 प्रतिशत थी एवं नवीन आर्थिक सर्वेक्षण में भी वित्त वर्ष 2020 के लिये 7 प्रतिशत की दर से जीडीपी में वृद्धि होने की संभावना जताई गई है। ज्ञात हो कि 5 ट्रिलियन अर्थव्यवस्था बनने के लिये भारत को 8 प्रतिशत की वास्तविक जीडीपी को बनाए रखना ज़रूरी होगा। ऐसी स्थिति में भारत को अपनी राजकोषीय नीति को कींस के विचारों से ज़ोड़कर क्रियान्वित करना होगा। ताकि अर्थव्यवस्था का मांग पक्ष मज़बूत हो जिससे जीडीपी की वृद्धि दर नियोजित रूप से वृद्धि कर सके।

प्रश्न: भारत की अर्थव्यवस्था की गति वर्तमान में अधिक तीव्र नहीं है, आपके विचार में धीमी आर्थिक वृद्धि दर के क्या कारण हैं? चर्चा कीजिये।

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