लखनऊ शाखा पर IAS GS फाउंडेशन का नया बैच 23 दिसंबर से शुरू :   अभी कॉल करें
ध्यान दें:



एडिटोरियल

अंतर्राष्ट्रीय संबंध

‘बुक सेंसरशिप’ और अभिव्यक्ति की आज़ादी

  • 17 Aug 2017
  • 9 min read

औपनिवेशिक सरकार उन किताबों और समाचार पत्रों को प्रतिबंधित करने के लिये कुख्यात थी, जिनमें उनके अत्याचारों को बताया जाता था। यहाँ तक कि ब्रिटिश सरकार की आलोचना में लिखी गई किताबें, लेख और पत्रों को भी सरकार रातों-रात प्रतिबंधित कर देती थी और लेखक को जेल की सलाखों के पीछे पहुँचा दिया जाता था। वर्ष 1947 में हमें आज़ादी मिल गई और वर्ष 1950 में गणों को तंत्र मिल गया यानी हमें गणतंत्र की प्राप्ति हो गई। लेकिन आज इतने वर्षों के बाद भी निहित स्वार्थों के कारण ‘बुक सेंसरशिप’ (book censorship) यानी किताबों का प्रतिबंधित होना जारी है।

बुक सेंसरशिप की हालिया घटनाएँ

  • हाल ही में झारखंड सरकार ने संथाली महिलाओं के अश्लील चित्रण का आरोप लगाते हुए साहित्य अकादमी पुरस्कार विजेता हंसदा सोवेन्द्र शेखर की किताब ‘आदिवासी विल नॉट डांस’ पर बैन लगा दिया है।
  • वहीं दिल्ली की एक स्थानीय अदालत ने हाल ही में योग गुरु बाबा रामदेव पर लिखी गई एक किताब पर अंतरिम रोक लगा दी है। किताब का नाम ‘गॉडमैन टू टाइकून: दि अनटोल्ड स्टोरी ऑफ बाबा रामदेव’ है। दरअसल बाबा रामदेव ने ही खुद पर लिखी किताब पर रोक लगवाने के लिये अदालत में गुहार लगाई थी।

बुक सेंसरशिप दुर्भाग्यजनक घटनाक्रम क्यों ?

हाल ही में देश ने आज़ादी की वर्षगाँठ धूमधाम से मनाई है। स्वतंत्रता दिवस, औपनिवेशिक शासन से स्वतंत्रता का जश्न मनाने का अवसर है, उस औपनिवेशिक शासन से जो भारतीयों पर न केवल आर्थिक और राजनीतिक बंधन की बेड़ियों के समान थी, बल्कि बिना किसी डर के स्वतंत्र सोच, असहमति प्रदर्शित करने और अभिव्यक्त की स्वतंत्रता के लिये भी बाधक थी।

हमने आर्थिक और राजनितिक बंधनों को तो तोड़ दिया, लेकिन अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को समय-समय पर दबाया जाता रहा है। ऐसा नहीं है कि ‘आदिवासी विल नॉट डांस’ और ‘गॉडमैन टू टाइकून’ पहली ऐसी घटनाएँ हैं, बल्कि इससे पहले भी किताबों को प्रतिबंधित किया जाता रहा है।

दरअसल, अपने राजनैतिक तुष्टिकरण के लिये सरकारें पहले भी ऐसे कदम उठाती रही हैं। कुछ दिनों पहले तमिलनाडु में भी ठीक ऐसा ही एक उदाहरण देखने को मिला है।

हमारे देश में न्यायपालिका के सुस्थापित निर्णयों के बावजूद लेखकों को अब आए दिन सुपरिभाषित अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिये न्यायिक संघर्ष भी करना पड़ रहा है।

चिंताजनक परिस्थितियाँ

गौरतलब है कि हमारे यहाँ बुक सेंसरशिप को अंजाम देना बहुत ही आसान है। दरअसल, भारतीय कानूनी प्रणाली कुछ इस तरह से बनी हुई है कि कानून के माध्यम से किसी भी किताब को सेंसर करना बहुत ही आसान है। अतः कोई भी व्यक्ति, संस्था या सरकार अपने निहित स्वार्थपूर्ति के लिये किताबों को प्रतिबंधित करा देती है।

दूसरी समस्या भी कानूनी पक्ष से ही संबंधित है। मसलन, न्यायपालिका के सभी स्तरों पर एक मज़बूत न्यायिक प्रतिरोध की मदद से ही अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता बहाल की जा सकती है, लेकिन यह दुर्भाग्यजनक है कि यह न्यायिक प्रतिरोध अनुपस्थित है।

क्या हो आगे का रास्ता ?

सरकार या न्यायपालिका को इस संबंध में क्या करना चाहिये यह समझने से पहले हमें यह जानना होगा कि कैसे बुक सेंसरशिप को अंजाम दिया जाता है।

  • आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 95 (Section 95 of the Code of Criminal Procedure) राज्य सरकारों को किसी भी अख़बार, किताब या दस्तावेज़ की प्रतियों को ज़ब्त करने के लिये अधिकृत करता है, जो कि भारतीय दंड संहिता के कुछ प्रावधानों जैसे कि धारा 124ए, धारा 153ए और बी, धारा 292 और धारा 295ए का उल्लंघन करते हैं।
  • विदित हो कि भारतीय दंड संहिता की धारा 124ए से राजद्रोह से, धारा 153ए और बी सांप्रदायिक या वर्ग असंतोष भड़काने से, धारा 292 अश्लीलता फ़ैलाने से और धारा 295ए धार्मिक मान्यताओं के अपमान से संबंधित है।
  • धारा 95 सरकार को यह शक्ति देती है वह केवल एक हस्ताक्षर द्वारा किसी बुक को सेंसर कर दे और प्रायः सरकारें इसका अनुचित फायदा उठाती हैं। एक बार यदि बुक सेंसर हो गई तो यह लेखक या प्रकाशन से संबंधित व्यक्ति की ज़िम्मेदारी है कि वह न्यायालय में इसके खिलाफ अपील दायर करे।

दरअसल, इस समूची प्रक्रिया में बिना किसी अदालती फैसले के ही किसी बुक को सेंसर कर दिया जाता है और इस सेंसरशिप को हटाने के लिये लेखक या प्रकाशक को अदालतों का चक्कर काटना पड़ता है, जबकि होना यह चाहिये की यदि किसी बुक को लेकर सरकार को कोई आपत्ति है तो वह पहले न्यायालय के माध्यम से यह सुनिश्चित करे कि संबंधित बुक सेंसर की जानी चाहिये या नहीं।

यदि किसी व्यक्ति को किसी अमुक बुक को लेकर यह भय है कि उसमें उसका गलत चरित्र-चित्रण किया गया है और वह इसके खिलाफ अदालत जाता है तो तत्काल बुक को सेंसर कर दिया जाता है, और फिर सुनवाई चलती रहती है। जबकि इन परिस्थितियों में एक बार कानून द्वारा निर्णित होने के बाद ही किसी बुक को सेंसर करने का निर्णय लेना चाहिये।

निष्कर्ष

दरअसल, ‘आदिवासी विल नॉट डांस’ और ‘गॉडमैन टू टाइकून’ को सेंसर करने के दोनों ही मामलों में अभियक्ति की स्वतंत्रता का हनन हुआ है, लेकिन दोनों ही मामलों को अलग-अलग नज़रिये से देखे जाने की ज़रूरत है।

‘आदिवासी विल नॉट डांस’ को झारखंड सरकार ने आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 95 का प्रयोग करते हुए सेंसर कर दिया था। यह मामला कानूनी सुधार से संबंधित है, यहाँ ज़रूरत इस बात की है कि धारा 95 में बदलाव लाया जाए और एक ऐसी व्यवस्था का निर्माण किया जाए, जहाँ सरकारें बुक सेंसरशिप के मामलों में अपना एकाधिकार न चला सकें और प्रकाशकों एवं लेखकों को भी अपना पक्ष रखने का अवसर मिले।

जहाँ तक ‘गॉडमैन टू टाइकून’ को सेंसर करने का सवाल है तो यह हमारी कानूनी संस्कृति की समस्या है। दरअसल, इस मामले में बिना लेखक के पक्ष जाने बुक को सेंसर करने का निर्णय देना जज के विवेक पर निर्भर था और जज ने पहले बुक को सेंसर करने का आदेश दिया। अतः कानूनी सुधार तो करना ही होगा, साथ ही साथ अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के महत्त्व को सामाजिक मज़बूती भी प्रदान करनी होगी।

दरअसल, सेंसरशिप चाहे सिनेमा के संबंध में हो या किसी बुक के, आवश्यक परिस्थितियों में इसका महत्त्व ज़रूर है; लेकिन सरकार के विरोध में उठने वाली आवाज़ों को दबाने और क्षुद्र स्वार्थपूर्ति के लिये एक हथियार के तौर पर इसका इस्तेमाल अनुचित ही कहा जाएगा।

close
एसएमएस अलर्ट
Share Page
images-2
images-2