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बैंकिंग संकट: कारण और समाधान

  • 07 Mar 2020
  • 14 min read

संदर्भ

किसी भी देश के आर्थिक विकास का मुख्य आधार उस देश का बुनियादी ढाँचा होता है। यदि बुनियादी ढाँचा ही कमज़ोर हो तो कितना भी प्रयास किया जाए व्यवस्था को मज़बूत नहीं बनाया जा सकता है। यही कारण है कि किसी भी देश की अर्थव्यवस्था में विकास एवं उन्नति हेतु किये जाने वाले प्रयासों को बल प्रदान करने के लिये नीति निर्माताओं द्वारा एक ऐसे मार्ग का अनुसरण किया जाता है जिसके माध्यम से सरकार आम आदमी को अर्थव्यवस्था के औपचारिक माध्‍यम में शामिल कर सके।

यह औपचारिक माध्यम है ‘बैंक’। बैंक किसी भी देश की अर्थव्यवस्था की रीढ़ होते हैं। देश में वित्तीय स्थिरता बनाए रखने में बैंक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।

परंतु उस समय क्या स्थिति होगी जब बैंकिंग तंत्र ही संकट के दौर से गुजरने लगे। वर्तमान में ऐसा ही देखने को मिल रहा है। देश में निज़ी क्षेत्र का चौथा सबसे बड़ा बैंक ‘यस बैंक (YES BANK)’ संकट के इसी दौर से गुज़र रहा है। बैंक ने प्रति खाताधारक 50000 रुपए प्रतिमाह निकासी की सीमा आरोपित कर दी है। ऐसे में खाताधारकों के सामने मुद्रा का संकट गहरा गया है। इस आलेख में बैंकों की खस्ता हालत के कारणों, उसके प्रभाव तथा सरकार व भारतीय रिज़र्व बैंक द्वारा किये जा रहे प्रयासों की समीक्षा की जाएगी।

पृष्ठभूमि

  • वर्ष 2004 में राना कपूर व अशोक कपूर ने मिलकर यस बैंक की स्थापना की। वर्ष 2005 में यह बैंक शेयर बाज़ार में सूचीबद्ध हुआ।
  • बैंक का प्राथमिक उद्देश्य काॅरपोरेट क्षेत्र को लोन उपलब्ध कराना था, बाद में सामान्य खाताधारकों के लिये भी बैंकिंग गतिविधियाँ संचालित की गई।
  • वर्ष 2018 के मध्य में भारतीय रिज़र्व बैंक ने अपनी जाँच रिपोर्ट में पाया कि यस बैंक ने निर्धारित विनियमन दिशा-निर्देशों तथा गोपनीयता के सिद्धांत का उल्लंघन किया है।
  • परिणामस्वरूप यस बैंक के मुख्य कार्यकारी अधिकारी को पद से इस्तीफा देना पड़ा और उसके बाद यस बैंक के शेयरों में 81% तक की तीव्र गिरावट दर्ज़ की गई।
  • हाल ही में भारतीय रिज़र्व बैंक ने यस बैंक की बैंकिंग गतिविधियों पर प्रतिबंध (MORATORIUM) लगाते हुए कार्य संचालन प्रक्रिया को अपने हाथों में ले लिया है।
  • यस बैंक के अतिरिक्त कुछ समय पूर्व पीएमसी बैंक, ग्लोबल ट्रस्ट बैंक, वेस्टर्न बैंक इत्यादि पर RBI द्वारा प्रतिबंध लगाया गया था।

बैंकिंग संकट का कारण

  • पिछले कुछ वर्षों में बैंकों द्वारा दिये जा रहे लोन गैर निष्पादित परिसंपत्तियों (Non-performing assets-NPAs) में बदल गए हैं। यस बैंक द्वारा भी रिलायंस ग्रुप, IL&FS, DHFL, जेट एयरवेज़, एस्सार शिपिंग, कैफे कॉफी डे जैसी कंपनियों को लोन दिया गया, जो बाद में NPA में बदल गया।
  • गैर निष्पादित परिसंपत्तियों के मामले में सरकारी बैंकों की स्थिति निज़ी बैंकों से ज़्यादा खराब है। वर्ष 2018 में वाणिज्यिक बैंकों में कुल NPA 10.3 ट्रिलियन रुपए था, जो बैंकों द्वारा दिये गए कुल ऋणों और अग्रिमों का 11.2% था।
  • इस NPA में सरकारी बैंकों का हिस्सा 8.9 ट्रिलियन रुपए था, जो बैंकों के कुल NPA का 86% था।
  • सरकारी बैंकों द्वारा दिये गए अग्रिमों तथा ऋणों में सकल NPA 14.6% था अर्थात दिये गए हर 100 रुपए में से 14.6 रुपए NPA में बदल गए।

गैर-निष्पादित परिसंपत्तियाँ

  • सामान्य रूप से वह संपत्ति जिस पर ब्याज/मूलधन 90 दिनों तक बकाया हो, उसे गैर-निष्पादनकारी संपत्ति कहा जाता है। समयावधि के आधार पर इसे तीन वर्गों में बाँटा गया है-
    • सब-स्टैंडर्ड एसेट्सः 12 माह या इससे कम अवधि तक NPA के रूप में बने रहने वाली संपत्ति।
    • डाउटफुल एसेट्सः अगर कोई संपत्ति 12 माह तक सब-स्टैंडर्ड श्रेणी में बनी रहे।
    • लॉस एसेट्सः यह न वसूल की जा सकने वाली और अत्यंत कम मूल्य वाली संपत्ति होती है। बैंक द्वारा इसके परिसंपत्ति के रूप में बने रहने की पुष्टि नहीं की जाती है।
  • 2007-08 में कुल NPA केवल 566 बिलियन रुपए (आधा ट्रिलियन से कुछ अधिक) था जो कुल अग्रिमों का केवल 2.26% था, लेकिन 2008 के बाद NPA में हुई वृद्धि चौंका देने वाली है।
  • इसके लिये आंशिक रूप से वर्ष 2004-05 से 2008-09 के क्रेडिट बूम को ज़िम्मेदार ठहराया जा सकता है, जब विशेषकर देश के सरकारी बैंकों ने मुक्तहस्त से बिना कोई अधिक ना-नुकुर किये बड़ी मात्रा में लोगों को भारी भरकम कर्ज़ दिये।
  • इस अवधि में वाणिज्यिक ऋण की मात्रा दोगुनी हो गई। यह वह समय था जब विश्व अर्थव्यवस्था के साथ-साथ भारतीय अर्थव्यवस्था भी तेज़ी से आगे बढ़ रही थी। आने वाले विकास के अवसरों का लाभ उठाने के लिये भारतीय फर्मों ने बैंकों से भारी मात्रा में कर्ज़ लिया।
  • इनमें से अधिकांश निवेश बुनियादी ढाँचे तथा टेलीकॉम, बिजली, सड़क, विमानन, इस्पात जैसे क्षेत्रों में हुआ।
  • इस दौर में उद्यमियों और व्यवसायियों में उत्साह था क्योंकि भारत ने 9% आर्थिक वृद्धि के दौर में प्रवेश कर लिया लेकिन जल्दी ही स्थिति प्रतिकूल हो गई।
  • भूमि अधिग्रहण और पर्यावरणीय मंज़ूरी प्राप्त करने में निरंतर समस्याएँ आ रही थीं, जिसकी वज़ह से कई परियोजनाएँ ठप हो गईं और जो परियोजनाएँ काम कर रही थीं उनकी लागत कई गुना बढ़ गई।
  • वित्तीय वर्ष 2007-08 में वैश्विक वित्तीय संकट की शुरुआत हुई और 2011-12 के बाद अर्थव्यवस्था में मंदी आ गई, जिसकी वज़ह से राजस्व की प्राप्ति अपेक्षा से कम हुई।
  • वित्तीय संकट की प्रतिक्रिया में देश में नीतिगत दरों को सख्त किया गया, जिसकी वज़ह से वित्तपोषण की लागत में वृद्धि हुई।

प्रभाव

  • NPA के चलते बैंकों को मिलने वाला लाभ कम हो जाता है, जिससे सरकार के पास राजस्व कम पहुँचता है, ऐसे में सरकार की निवेश करने की क्षमता में गिरावट आती है।
  • निवेश कम होने से अर्थव्यवस्था की विकास दर कम हो जाती है, साथ ही बेरोज़गारी की समस्या में बढ़ोतरी होती है।
  • बैंकों में NPA की वृद्धि से नए लोगों को ऋण मिलने में कठिनाई होती है, जिससे अर्थव्यवस्था का आकर सिकुड़ता है।
  • जमाकर्त्ताओं का बैंक पर विश्वास कमज़ोर हो जाता है और वे बैंक में पैसा जमा करने से कतराते हैं।
  • NPA के रूप में जब बैंक का लोन फँस जाता है तो उसकी प्रोविजनिंग के लिये उसे मुनाफ़े से एक निश्चित राशि अलग रखनी होती है, मुनाफ़ा कम होने का असर बैंक के विस्तार और ग्राहक सेवाओं पर पड़ता है।

समाधान

  • सर्वप्रथम, शीर्ष अधिकारियों की नियुक्ति और चयन व्यवस्था में बदलाव किये जाने की आवश्यकता है। इसके अंतर्गत कार्यकारी निदेशकों, बोर्ड के सदस्यों से लेकर अध्यक्ष तक सबके संदर्भ में बदलाव किये जाने की आवश्यकता है।
  • शीर्ष प्रबंधन की गुणवत्ता बैंकिंग क्षेत्र की मुख्य समस्याओं में से एक है। इसका सबसे अहम् कारण यह है कि चयन प्रक्रिया में राजनीतिक हस्तक्षेप बहुत अधिक होता है, जिसके चलते एक निष्पक्ष चुनाव का विकल्प नहीं रह जाता है।
  • ऐसे में होता यह है कि राजनीतिक दबाव की स्थिति में ऐसे अधिकारी बिना किसी उचित क्रेडिट मूल्यांकन के ही अग्रिम ऋण को मंज़ूरी दे देते हैं। ज़ाहिर सी बात है ऐसे बहुत से ऋण आगे चलकर NPA बन जाते हैं। हाल की बहुत सी घटनाओं में यह बात सामने आई है। व्यावहारिक रूप से बैंकों में कोई जवाबदेही प्रणाली मौजूद नहीं है, जो NPA की समस्या को बढ़ावा देने में भूमिका निभाती है।
  • स्पष्ट रूप से भारतीय रिज़र्व बैंक द्वारा सतर्कता विभाग को सुदृढ़ किये जाने की दिशा में कार्य किया जाना चाहिये, ताकि प्रबंधन के स्तर पर होने वाली चूक को समय रहते सुधारा जा सके और किसी बड़ी परेशानी से बचा जा सके।
  • वर्ष 1993 में समयबद्ध तरीके से ऋण की वापसी सुनिश्चित करने के लिये ऋण वसूली अधिकरण (Debt Recovery Tribunals) की स्थापना की गई।
  • वर्ष 2000 में डिफाल्टर और विलफुल डिफाल्टर की पहचान सुनिश्चित करने के लिये क्रेडिट इन्फाॅर्मेशन ब्यूरो (Credit Information Bureau) का गठन किया गया।
  • 5/25 योजना के तहत ऋण परिशोधन की अवधि को 25 वर्षों तक बढ़ा दिया जाता है एवं प्रत्येक 5 वर्षों की अवधि के पश्चात् ब्याज दरों को पुनः परिवर्तित करने का प्रावधान किया जाता है।
  • एस.डी.आर. (Strategic Debt Restructuring) के अंतर्गत बैंक NPA से संबंधित कंपनियों को दिये गए ऋण को इक्विटी में बदलकर उसके प्रबंधन पर नियंत्रण कर सकते हैं, साथ ही बैंक 18 महीनों के अंदर इक्विटी को बेचकर अपने पैसे वापस ले सकते हैं।
  • सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के लिये सरकार ने 2015 में इंद्रधनुष 2.0 योजना शुरू की थी। यह योजना सरकारी क्षेत्र के बैंकों के पुनर्पूंजीकरण हेतु एक समग्र कार्यक्रम है, जिससे बैंकों को बासेल-III नियमों के तहत अपनी पूंजीगत स्थिति बनाए रखने में मदद मिलती है।
  • जब रिज़र्व बैंक को लगता है कि किसी बैंक के पास जोखिम का सामना करने के लिये पर्याप्त पूंजी नहीं है, दिये गए उधार से न आय हो रही है और न ही मुनाफा हो रहा है, तो वह उस बैंक को Prompt Corrective Action फ्रेमवर्क में डाल देता है, ताकि उसकी वित्तीय हालत सुधारने के लिये तत्काल कुछ किया जा सके।
  • भारतीय दिवाला और शोधन अक्षमता कोड यानी दिवालिया कानून के अनुसार, किसी ऋणी के दिवालिया होने पर एक निश्चित प्रक्रिया पूरी करने के बाद उसकी परिसंपत्तियों को अधिकार में लिया जा सकता है।

निष्कर्ष- भारत की बैंकिंग प्रणाली ऐसी चुनौती भरी पृष्ठभूमि में अपेक्षाकृत लंबे समय से कार्य कर रही है जिसके कारण सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों की आस्ति गुणवत्ता, पूंजी पर्याप्तता तथा लाभ पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है। इसके मद्देनज़र सरकार सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों में वैश्विक जोखिम मानदंडों के अनुरूप उनकी पूंजी ज़रूरतों को पूरा करने और क्रेडिट ग्रोथ को बढ़ावा देने के लिये पूंजी लगा रही है। लेकिन एनपीए का स्तर 8 लाख करोड़ रुपए से अधिक हो जाने के कारण चिंता होना स्वाभाविक है, क्योंकि इतनी बड़ी राशि किसी काम की नहीं है। यदि इस राशि की वसूली हो जाती है तो सरकारी बैंकों की लाभप्रदता में इज़ाफा, लाखों लोगों को रोज़गार, नीतिगत दर में कटौती का लाभ कारोबारियों तक पहुँचना, आधारभूत संरचना का निर्माण, कृषि की बेहतरी, अर्थव्यवस्था को मज़बूती, विकास को गति देना आदि संभव हो सकेगा।

प्रश्न- भारतीय बैंकिंग क्षेत्र में गैर-निष्पादित परिसंपत्तियों के संकट पर चर्चा करें। इस समस्या के समाधान के लिये किये जा रहे प्रयासों का उल्लेख करें।

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