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एडिटोरियल

अंतर्राष्ट्रीय संबंध

आकाश की सीमाओं तक

  • 08 Nov 2017
  • 14 min read

भूमिका

26 अप्रैल 1986 को सोवियत यूक्रेन में चेरनोबिल पावर स्टेशन (Chernobyl power station) पर एक परमाणु रिएक्टर में एक प्रयोग के दौरान हुए विस्फोट के कारण 31 लोगों की मौत हुई थी। परमाणु संयंत्र में होने वाली दुर्घटनाएँ न केवल पर्यावरण की दृष्टि से खतरनाक होती हैं बल्कि यह जान-माल की दृष्टि से भी काफी गंभीर स्थिति होती है। इस संदर्भ में यदि वर्तमान में घटने वाली घटनाओं पर विचार करें तो हाल ही में उत्तर प्रदेश में हुई एक घटना पर नज़र जाती है। उल्लेखनीय है कि 1 नवंबर को उत्तर प्रदेश में एक परमाणु संयंत्र में लगा बॉयलर उच्च दबाव को सहन नहीं कर पाने के कारण फट गया, जिसके चलते 34 लोगों की मौत हो गई।

  • वस्तुतः यदि परमाणु दुर्घटनाओं के विषय में विचार किया जाए तो चेरनोबिल दुर्घटना इस संदर्भ में एक युगारंभिक घटना के साथ-साथ परमाणु ऊर्जा के खतरों का प्रतीक साबित होती है। इसके बावजूद रायबरेली के एन.टी.पी.सी. संयंत्र में हुए बॉयलर विस्फोट के संबंध में कोई गंभीर प्रतिक्रिया प्रकट नहीं की गई जोकि भविष्य के दृष्टिकोण से गंभीर चिंता का विषय है। 

यह चिंता का विषय क्यों है?

  • यदि इस संदर्भ में गहराई से सोचा जाए तो ज्ञात होता है कि ऊपर वर्णित पहले प्रकार की दुर्घटना के प्रति सरकार एवं प्रशासन द्वारा अधिक गंभीरता बरती जाती है, जबकि दूसरे प्रकार की दुर्घटना के प्रति वैसा रुख नहीं दिखाया गया है। 
  • संभवतः इसका कारण यह है कि पहले प्रकार की दुर्घटना के परिणामों को अधिक गंभीर परिणामों में शामिल करते हुए इसके प्रति अधिक संवेदनशील दृष्टिकोण अपनाया जाता है, जबकि दूसरे प्रकार की दुर्घटना के संदर्भ में ऐसा नहीं माना जाता है। 
  • इस प्रकार की दुर्घटनाओं के संबंध में प्राय: यह अनुमान व्यक्त किया जाता है कि इसके परिणाम अधिक गंभीर नहीं होंगे। इसलिये इसके प्रति असावधानी का रुख अपनाया जाता है। 
  • उदाहरण के लिये, जब कभी भी प्रमुख कोयला खदान दुर्घटनाएँ सुर्खियों का हिस्सा बनती हैं, तो उसका प्रमुख कारण उस दुर्घटना में मरने वाले लोग होते हैं। विदित हो कि इसी वर्ष अगस्त माह के अंत तक कोयले की खदान में हुई दुर्घटनाओं में तकरीबन 40 लोग मारे गए, जबकि यदि पिछले वर्ष के आँकड़ों पर नज़र डालें तो हम पाएंगे कि पिछले वर्ष भी इस प्रकार की दुर्घटनाओं में लगभग 52 लोगों की मौत हुई थी। 
  • यहाँ सबसे अधिक गौर करने वाली बात यह है कि ये सभी आँकड़े केवल भारत के हैं। यदि विश्व स्तर पर देखें तो कोयला खनन दुर्घटनाओं में अगर हज़ारों नहीं तो सैकड़ों लोग तो अवश्य ही मारे जाते हैं। 
  • इसके अतिरिक्त कोयले के संयंत्रों की चिमनी से उत्सर्जित होने वाले प्रदूषण के कारण भी बहुत सी मौतें होती हैं, जिनके विषय में तत्काल रूप से कोई जानकारी प्राप्त नहीं हो पाती है।

लेंसेट काउंटडाउन नामक रिपोर्ट के अनुसार

  • हाल ही में लेंसेट काउंटडाउन नामक एक अंतर्राष्ट्रीय अनुसंधान सहयोग (जिसके सलाहकार बोर्ड के अध्यक्ष क्रिस्टीना फिगुरेस हैं, जो 2015 के पेरिस सम्मेलन के दौरान यू.एन.एफ.सी.सी.सी. की कार्यकारी सचिव थी) द्वारा एक रिपोर्ट प्रस्तुत की गई, जिसमें यह जानकारी दी गई कि भारत में कोयला संचालित विद्युत संयंत्रों से उत्पन्न होने वाले वायु प्रदूषण के कारण तकरीबन 80,368 लोगों की मौत हुई।
  • ऐसा नहीं है कि मात्र कोयला संयंत्रों में होने वाली दुर्घटनाएँ ही चिंता का कारण है बल्कि इसके कारण पर्यवारण को पहुँचने वाली क्षति भी गंभीर चिंता का विषय है। जैसा कि हम सभी जानते हैं कि कोयले के संयंत्र कार्बन-डाइऑक्साइड का उत्सर्जन करते हैं। 
  • यह एक ग्रीनहाउस गैस है जो ग्लोबल वार्मिंग का कारण बनती है। इसके परिणामस्वरूप बाढ़ और सूखे की स्थिति बनती है जिससे लाखों लोगों की मौत हो जाती है और लाखों लोग की आजीविका का विकल्प समाप्त हो जाता है।

संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम United Nations Environment Programme) की रिपोर्ट ई.जी.आर.

  • हाल ही में जारी की गई संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम United Nations Environment Programme) की रिपोर्ट ई.जी.आर. (Emissions Gap Report - EGR), 2017 में वर्तमान की स्थिति को यथावत बनाए रखते हुए कोयले पर रोक लगाने संबंधी बात कही गई है।
  • विदित हो कि दिसंबर 2015 में आयोजित हुए पेरिस सम्मेलन में पूरी दुनिया ने पृथ्वी के भविष्य को सुरक्षित रखने के उद्देश्य से ग्लोबल वार्मिंग को 2 डिग्री (पूर्व-औद्योगिकीकरण समय के औसत से अधिक) तक सीमित करने के लिये तत्काल कार्यवाही करने के प्रति सहमति प्रकट की। 
  • हालाँकि, इसके अंतर्गत 2 डिग्री सेल्सियस का लक्ष्य निर्धारित किया गया, तथापि महत्त्वाकांक्षा 1.5 डिग्री सेल्सियस की तय की गई। इसके संदर्भ में सभी देशों द्वारा कुछ प्रतिबद्धताएँ तय की गई हैं, जिन्हें एन.डी.सी. (Nationally Determined Contributions - NDCs) कहा जाता है। 
  • ई.जी.आर. 2017 में स्पष्ट किया गया है कि भले ही विश्व के सभी देशों द्वारा निर्धारित लक्ष्यों को प्राप्त कर भी किया जाता है तो भी वर्ष 2100 तक पृथ्वी के 3 डिग्री सेल्सियस से अधिक गर्म होने की संभावना है। संभवतः ऐसा होने का एक प्रमुख कारण कोयले का उपयोग भी होगा।
  • एक अध्ययन के अनुसार यदि पृथ्वी 2 डिग्री सेल्सियस से अधिक गर्मी नहीं होती है, तो भी वायुमंडल में तकरीबन 1,000 गीगा टन कार्बन-डाइऑक्साइड में मौजूद रहेगी। हालाँकि यदि 1.5 डिग्री सेल्सियस वाली महत्वाकांक्षा को पूरा किया जाता है तो वायुमंडल में कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा घटकर 300 गीगटन हो जाएगी।
  • इसी बात को ध्यान में रखते हुए 'कार्बन बजट' की अवधारणा प्रस्तुत की गई है। कार्बन बजट का मुख्य लक्ष्य कार्बन के अत्यधिक दुरुपयोग को नियंत्रित करना है।
  • ई.जी.आर. 2017 में कहा गया है कि यदि जलवायु लक्ष्यों को पूरा किया जाता है, तो विश्व के समस्त कोयला भंडार का कम से कम 80 प्रतिशत जमीन में ही बना रहेगा।

वास्तविक स्थिति क्या है?

  • परंतु, वर्तमान में जो रहा है वह इसके एकदम उलट है। उल्लेखनीय है कि वर्तमान में संपूर्ण विश्व में 6,683 कोयला आधारित बिजली संयंत्र कार्यरत हैं, जिनकी कुल क्षमता 1,964 गीगावाट है।
  • यदि इन संयंत्रों को अंतिम सीमा तक संचालित किया जाता है तो इनके द्वारा वायुमंडल में तकरीबन 190 गीगाटन कार्बन-डाइआक्साइड का उत्सर्जन किया जाएगा, जोकि कार्बन बजट का लगभग पाँचवां हिस्सा है। 
  • यदि इस जानकारी के बाद आपको यह लगता है कि अभी तक स्थिति उतनी गंभीर नहीं हुई है, जितनी की कल्पना की जा रही थी, तो आपको बताते चलें कि कम से कम 273 गीगावाट की क्षमता वाले कोयला आधारित बिजली संयंत्र अभी निर्माणाधीन है जबकि 570 गीगावाट वाले संयंत्र अभी ड्राफ्ट की स्थिति में हैं। 
  • अकेले चीन द्वारा वर्ष 2017 की पहली छमाही में 14 गीगावॉट की क्षमता वाले संयंत्र स्थापित किये गए, जबकि 145 गीगावॉट की क्षमता वाले अन्य संयंत्र अभी निर्माणाधीन अवस्था में है तथा अन्य योजनाओं के विषय में अभी विचार किया जा रहा है। यदि ये संयंत्र अपनी संपूर्ण जीवन अवधि (40 वर्ष) के लिये संचालित किये जाते है, तो ये कम से कम 15% कार्बन का उत्सर्जन करेंगे। 
  • इसके अलावा, जीवाश्म ईंधनों को अभी भी सब्सिडी प्रदान की जा रही हैं। ध्यातव्य है कि वर्ष 2015 में तकरीबन 300 अरब डॉलर की धनराशि, जिसमें से अधिकांश तेल और गैस के लिये थीं, (हालाँकि इसमें से कुछ कोयला के लिये भी थी) प्रदान की गई। 

सुझाव 

  • इसके अतिरिक्त रिपोर्ट में इस समस्त स्थिति के संबंध में तत्काल कार्रवाई करने पर ज़ोर दिया गया। इस स्थिति का सामना करने के लिये रिपोर्ट में कुछ सुझाव भी प्रस्तुत किये गए जोकि इस प्रकार हैं –
  • रिपोर्ट में यह सुझाव प्रस्तुत किया गया कि इस समस्त स्थिति से निपटने का एक उपाय यह होगा कि कार्बन का एक मूल्य निर्धारित किया जाना चाहिये, या फिर कोयले के उपयोगकर्त्ताओं पर पृथ्वी को पहुँचने वाले नुकसान हेतु भुगतान करने संबंधी व्यवस्था की जानी चाहिये। 
  • परंतु, इस बात की यथार्थता को समझते हुए कि उच्च कार्बन मूल्य "राजनीतिक रूप से व्यवहार्य नहीं हो" पाएगा, रिपोर्ट में यह सुझाव दिया गया है कि कार्बन के मूल्य कम करते हुए कुछ अन्य उपायों जैसे कड़े मानकों का निर्धारण करना इत्यादि का अनुपालन किया जा सकता है। 
  • इसका एक कारण यह है कि कार्बन मूल्य निर्धारण किये जाने से कोयले के संयंत्रों की लागत में भी वृद्धि हो जाएगी। 

निष्कर्ष

भारत में, कोयला क्षेत्र में लाखों लोग काम करते हैं। गौरतलब है कि देश की कोयला रॉयल्टी छत्तीसगढ़, झारखंड और ओडिशा राज्य की आय का आधा हिस्सा है। स्पष्ट है कि ऐसी स्थिति में कोयले के उपयोग को पूर्ण रूप से अलविदा कह पाना आसान नहीं होगा। ई.जी.आर. 2017 में भी इस समस्या की ओर इशारा किया गया है। हालाँकि इस संबंध में रिपोर्ट में कोई विशिष्ट समाधान प्रदान नहीं किये गए है। भारत में केंद्र द्वारा कोयला सेस से 9 बिलियन अमेरीकी डॉलर एकत्र किये गए, जिसके माध्यम से राष्ट्रीय स्वच्छ ऊर्जा निधि (National Clean Energy Fund) को पोषित किया जाता है। हालाँकि, इस पैसे का इस्तेमाल जी.एस.टी. के अनुपालन के चलते राजस्व में होने वाले नुकसान के लिये राज्य सरकारों को क्षतिपूर्ति हेतु किया जा रहा है। यह इस बात का संकेत है कि भारत सरकार जलवायु परिवर्तन की स्थिति को बहुत अधिक गंभीरता से नहीं ले रही है। वर्ष 2013 से 2017 के बीच भारत में लगभग 100 गीगावॉट क्षमता वाले कोयला आधारित बिजली संयंत्रों को बंद कर दिया गया। इसके अतिरिक्त तकरीबन 37 गीगावॉट क्षमता वाले संयंत्रों को बंद करने की भी योजना है। एक तरह से देखा जाए तो भारत ने अपनी सभी प्रकार की कठिनाइयों के बावजूद इस दिशा में बेहतर कार्य करने का प्रयास किया है। तथापि दुर्भाग्यपूर्ण तथ्य यह है कि जलवायु परिवर्तन की दिशा में जो भी कार्य अथवा पहल भारत कर रहा है अथवा विश्व के अन्य देश सामूहिक रूप से कर रहे हैं, वह उस सीमा से बहुत अधिक कम है जिसकी आवश्यकता है। ऐसे में यह स्थिति और भी चिंता उत्पन्न करती है। स्पष्ट रूप से भारत सहित विश्व के सभी देशों द्वारा इस दिशा में गंभीर प्रयास किये जाने की आवश्यकता है, ताकि इस समस्या का जल्द से जल्द एवं उचित समाधान खोजा जा सके और अपनी आने वाली पीढ़ी के जीवन को प्रदूषण से होने वाली भयानक बीमारियों से सुरक्षित रखा जा सके।

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