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वहनीय आवास : एक महँगा सौदा है

  • 11 Nov 2017
  • 9 min read

भूमिका

किसी भी व्यक्ति के लिये उसका आवास उसकी एक महत्त्वपूर्ण आर्थिक संपत्ति होने के साथ-साथ उसकी सामाजिक उन्नति एवं आर्थिक संवृद्धि में भी योगदान देता है। एक स्थायी आवास किसी भी व्यक्ति के जीवन की अमूल्य पूंजी होती है। इससे न केवल रहने के लिये एक बेहतर एवं सुरक्षित वातावरण प्राप्त होता है बल्कि इससे व्यक्ति की जो श्रम उत्पादकता, कार्यशीलता, स्वास्थ्य आदि पर भी सकारात्मक प्रभाव पड़ता है। अब यदि इस संबंध में हम भारत की स्थिति पर नज़र डालें तो हम पाएंगे कि भारत में प्रत्येक व्यक्ति के पास आवास की मौजूदगी का मुद्दा बेहद संवेदनशील है। एक अनुमान के अनुसार, शहरी भारत की लगभग 65 मिलियन आबादी स्लम में निवास करती है जबकि 0.9 लाख लोग बेघर हैं। इसी तथ्य को ध्यान में रखते हुए भारत सरकार द्वारा सभी के लिये आवास/ प्रधानमंत्री आवास योजना शुरू की गई। इस योजना के अंतर्गत वर्ष 2022 तक सभी शहरी गरीबों को घर उपलब्ध कराने का लक्ष्य निर्धारित किया गया है।

प्रमुख बिंदु

  • हाल ही में एक अध्ययन के अंतर्गत यह बात सामने आई है कि जनवरी से सितंबर 2017 के मध्य भारत में वहनीय आवासों में 27% की वृद्धि देखने को मिली है। यह काफी हद तक एक अच्छी खबर है।
  • अध्ययन से प्राप्त जानकारी के अनुसार, झुग्गी निवासियों के संदर्भ में किफायती आवास का मुद्दा लाभ और लागत के संतुलन से संबंधित है। 
  • इसके बाद ही कहीं सामाजिक उन्मूलन, अनैतिकता, अनौपचारिक क्रेडिट नेटवर्क तक पहुँच की कमी और सामूहिक कार्यवाही जैसे कारक शामिल होते हैं, जिसके परिणामस्वरूप भिन्न-भिन्न भौगोलिक क्षेत्रों में औपचारिक किफायती आवास में पुनर्वास किया जा सकता है।

मांग का प्रश्न 

  • एक ऐसे समय में जब 'सभी के लिये आवास' के लिये एकतरफा आपूर्ति की मांग अपने उच्च स्तर पर है, ऐसे समय में आर्थिक रूप से कमज़ोर वर्ग (economically weaker section - EWS) और कम आय वाले समूहों (low income groups - LIG) के लिये किफायती घरों के निर्माण पर ज़ोर देना तथा (विशेषकर ऐसी स्थिति में जब 90% आवास इकाई की कमी हो रही है) इस बात को मज़बूती प्रदान करता है कि एक सौम्य सामाजिक नीति के रूप में जिन उद्देश्यों की मांग होती है अथवा जिन्हें पूरा किया जाना होता है उनके संबंध में हवाई बातचीत का कोई आधार नहीं होता है।
  • भारतीय रियल एस्टेट उद्योग में आपूर्ति की भारी कमी बनी हुई है जोकि सभी के लिये आवास जैसे कथन की सत्यता को परिलक्षित करती प्रतीत होती है। 
  • स्पष्ट रूप से पूरे भारत में आवास परियोजनाओं के लिये एक बड़े पैमाने पर राज्य-सब्सिडी आधारित मॉडल का अनुपालन नहीं किया जा सकता है। इसलिये आवश्यक है कि सबसे पहले आवास संबंधी सभी प्रकार की नीतियों के विषय में अच्छी तरह से जानकारी एकत्रित की जाए, तत्पश्चात् इसके संबंध में व्यावहारिक कार्यवाही करने हेतु आधार तैयार किया जाए। 
  • इसके लिये आवश्यक कोष, समय, सटीक कार्य योजना, प्रबंधन, क्रियान्वयन एवं संचालन जैसे पक्षों के विषय में भली-भाँति शोध करके ही इस दिशा में कोई निर्णय लिया जाना चाहिये।
  • इस योजना के संबंध में और भी बहुत सी बातें सामने आ रही हैं जिनमें खाली पड़ी कम लागत वाली आवासीय इकाइयों का उदाहरण सबसे ताज़ा है। ऐसा प्रतीत होता है कि सरकार द्वारा इस संबंध में स्वस्थानीय उन्नयन पर लगातार ध्यान देने हेतु विचार किया जाना चाहिये।
  • एक रिपोर्ट के अनुसार, वर्तमान में तकरीबन 18 लाख यूनिटों हेतु आवास की कमी को दूर करने के लिये करीबन 2 लाख हेक्टेयर भूमि की ज़रूरत है। यदि इसमें नई इकाइयों को भी शामिल कर लिया जाए तो हमें प्रत्येक दिन लगभग 44,000 घरों का निर्माण करना होगा, जोकि एक बहुत लंबा सफ़र प्रतीत होता है। 

इसका समाधान क्या है?

  • इस समस्या के त्वरित समाधान के तौर पर किराए पर आवास के विकल्प के विषय में विचार किया जा सकता है। इस समय इस समस्या के समाधान के लिये किराए पर आवास की व्यवस्था एक बेहतर एवं पूरक समाधान साबित हो सकता है। 
  • वस्तुतः पॉलिसी अनुदान के संबंध में यह अवधारणा पिछले कुछ समय से चर्चा का विषय बनी हुई है। इस संबंध में एन.यू.आर.एच. नीति (National Urban Rental Housing Policy), 2017 नामक एक नीति भी बनाई गई, जिसे अभी तक मंत्रिमंडल की मंज़ूरी प्राप्त नहीं हुई है। 
  • किराए के मकान का सबसे महत्त्वपूर्ण पहलू यह है कि यह अस्थायी आबादी/मौसमी प्रवासन की समस्या को अधिक गंभीर नहीं होने देता है, विशेषकर ऐसे लोगों के लिये यह बेहद कारगर है जो न तो स्थायी संपत्ति में निवेश करना चाहते हैं और न ही एक अचल अतरलक्षित संपत्ति का निर्माण करना चाहते हैं।
  • रेंटल हाउसिंग का एक पक्ष यह भी है यह आवासों के निर्माण हेतु ज़मीनों की आवश्यकता को भी कम करता है।  साथ ही सोशल कैपिटल फॉर्मेशन के मामले में भी कारगर साबित होता है। 
  • उल्लेखनीय है कि महाराष्ट्र और ओडिशा जैसे कुछ राज्यों में तो किराए पर मकान लेने के संबंध में घरेलू नीतियाँ भी लागू की गई हैं। इसके अंतर्गत आंतरिक प्रवासियों के लिये कम लागत वाले शेयरिंग फ्लैट्स उपलब्ध कराने की व्यवस्था की गई है।

निष्कर्ष

देश में एक अवधारणा के रूप में, सोशल रेंटल हाउसिंग को अधिक प्रोत्साहन दिये जाने की आवश्यकता है, भले ही महानगरों में वाणिज्यिक उद्देश्यों हेतु रेंटल हाउसिंग पहले से ही मौजूद क्यों न हो। महानगरों में लाखों की संख्या में आंतरिक प्रवासीय, छात्र, पेशवर लोग आदि किराएदारों के रूप में रहते हैं। रेंटल हाउसिंग के संबंध में किये गए एक अध्ययन के अनुसार, पिछले साल देश भर में लगभग 10 मिलियन ऐसे घर खाली थे जिन्हें रेंटल हाउस के रूप में बाज़ार में प्रवेश नहीं कराया जा सका। गौर करने वाली बात यह है कि यह आँकड़ा वर्तमान में देश में अनुमानित आवासों की कमी के आधे से भी कम है, तथापि यदि इन मकानों को रेंटल हाउस के रूप में बाज़ार में प्रवेश कराया जाता है तो कुछ हद तक इस समस्या का समाधान कर पाना संभव है । हालाँकि इस संबंध में सबसे बड़ी समस्या रेंटल हाउस हेतु आवश्यक दिशा-निर्देशों की कमी होना है। इस विषय में प्रभावी कार्यवाही करते हुए इससे संबंधित पहलों को स्पष्ट किया जाना चाहिये, ताकि ग्रामीण क्षेत्र से आने वाले लोग इससे लाभान्वित हो सकें।

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