भारतीय अर्थव्यवस्था
बैंकों के राष्ट्रीयकरण के 50 वर्ष
- 02 Aug 2019
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इस Editorial में The Hindu, The Indian Express, Business Line आदि में प्रकाशित लेखों का विश्लेषण शामिल है। इस आलेख में बैंकों के राष्ट्रीयकरण एवं बैंकों की मौजूदा स्थिति की चर्चा की गई है तथा आवश्यकतानुसार यथास्थान टीम दृष्टि के इनपुट भी शामिल किये गए हैं।
संदर्भ
भारत में वर्ष 1969 में 14 बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया गया था। 19 जुलाई, 2019 को इस राष्ट्रीयकरण के 50 वर्ष पूरे हुए हैं। इस संदर्भ में भारतीय बैंकिंग व्यवस्था तथा बैंकों के राष्ट्रीयकरण पर चर्चा आम हो गई है। विभिन्न विशेषज्ञ एवं अर्थशास्त्री राष्ट्रीयकरण एवं वर्तमान बैंकिंग व्यवस्था को लेकर अलग-अलग राय रखते हैं। कुछ का मानना है कि राष्ट्रीयकरण का तर्काधार बैंकों की मूल भावना का विरोधी रहा है, जबकि अन्य इसे वित्तीय समावेश के लिये आवश्यक समझते हैं। मौजूदा समय में बैंकिंग व्यवस्था विभिन्न चुनौतियों का भी सामना कर रही है। उपर्युक्त विचारों को समझने और राष्ट्रीयकरण के विचार तथा इसके परिणामों को जानने के लिये एक समग्र अध्ययन की आवश्यकता है। इस विषय को निम्नलिखित रूप से समझा जा सकता है।
इतिहास
बैंकिंग का इतिहास सभ्यताओं के विकास के साथ ही माना जा सकता है। भारत एवं विश्व में श्रेणी और निगमों के माध्यम से बैंकिंग व्यवस्था का संचालन किया जाता था। अतीत में ऐसे कई उदाहरण मिलते हैं जिनसे प्रतीत होता है कि कई वर्ग एवं समुदाय इन्हीं माध्यमों से व्यापार एवं अन्य ज़रूरतों के लिये धन प्राप्त करते थे। इतना ही नहीं ये संस्थान लोगों का धन जमा भी कराते थे जिस पर ब्याज देय होता था। भारत में यूरोपियों विशेषकर अंग्रेज़ों के आगमन के पश्चात् बैंकिंग क्षेत्र में कुछ तेज़ी देखने को मिलती है। हालाँकि ये संस्थान पूर्णतः ब्रिटिश हितों एवं ब्रिटिश कंपनियों के लिये ही सेवाएँ दे रहे थे, यही स्थिति बाद में भारतीय बैंकिंग संस्थानों में भी देखी जा सकती थी। स्वतंत्रता के पश्चात् भी बैंकों की मानसिकता एवं कार्यपद्धति में कोई बदलाव नहीं देखा गया। बैंकों के राष्ट्रीयकरण के पूर्व भारत की 80 प्रतिशत पूंजी निजी बैंकों के पास ही थी, साथ ही इन संस्थानों का भारत की सामाजिक-आर्थिक स्थिति सुधारने में कोई योगदान नहीं था। इसके अतिरिक्त कुछ अन्य समस्याएँ भी थीं।
बैंकों का राष्ट्रीयकरण- कारक
भारत का बैंकिंग क्षेत्र स्वतंत्रता के पश्चात् प्रमुख रूप से निजी हाथों में था। एक ओर जहाँ भारत के सामाजिक-आर्थिक विकास में सहयोग की इन बैंकों की कोई रुचि नहीं थी, वहीं दूसरी ओर इनका प्रशासन एवं विनियमन भी खराब स्थिति में था। वर्ष 1947-1955 के बीच लगभग छोटे-बड़े 300 से भी अधिक बैंक बंद हो चुके थे, साथ ही इन बैंकों में जमा लोगों की जमा पूंजी भी डूब चुकी थी। ये बैंक भारत के ग्रामीण क्षेत्रों की पहुँच से दूर थे तथा इन बैंकों के माध्यम से कुछ उद्योग कालाबाज़ारी तथा जमाखोरी में भी लिप्त थे।
उपर्युक्त कारकों के अतिरिक्त तत्कालीन समय में सरकार अर्थव्यवस्था को गति देने के लिये विभिन्न प्रयास कर रही थी, भारत में समावेश को बढ़ावा देने के लिये तथा लोगों विशेषकर ग्रामीण आबादी को बैंकिंग व्यवस्था से जोड़ने के लिये सरकार बैंकों का समर्थन चाहती थी किंतु बैंकों पर सरकार के प्रशासनिक नियंत्रण के बगैर यह मुमकिन नहीं था। अतः सरकार द्वारा वर्ष 1969 में और बाद में वर्ष 1980 में बैंकों का राष्ट्रीकरण कर दिया गया।
बैंकों का राष्ट्रीयकरण एवं विलय
विश्व में 1950 के दशक से पूर्व बैंकिंग क्षेत्र मुख्य रूप से निजी क्षेत्र द्वारा संचालित हो रहा था। द्वितीय विश्वयुद्ध में शामिल देशों को गंभीर आर्थिक हानि उठानी पड़ी थी जिससे इन देशों की अर्थव्यवस्था को गहरा धक्का लगा था। इससे उबरने के लिये विभिन्न देशों विशेषकर यूरोपीय देशों द्वारा कुछ बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया गया जिससे कि इन देशों को आर्थिक सहायता प्राप्त हो सके।
स्वतंत्रता के पश्चात् भारत की आर्थिक स्थिति बेहद खराब थी तथा गरीबी, ग्रामीण-शहरी अंतराल भी अत्यधिक था। सरकार के विभिन्न प्रयासों के बावजूद इस क्षेत्र में अधिक सुधार नहीं हो पा रहा था। भारत सरकार के समक्ष पूंजी की भी बड़ी समस्या थी क्योंकि संसाधन सीमित थे। उपर्युक्त तथ्यों को ध्यान में रखते हुए वर्ष 1969 में सरकार ने 14 बैंकों (जिनकी पूँजी 50 करोड़ रुपए से अधिक थी) का राष्ट्रीयकरण किया। बाद में 1980 में भी 6 बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया गया। सरकार ने समय-समय पर बैंकों के राष्ट्रीयकरण के साथ-साथ इन्हीं उद्देश्यों के चलते कुछ बैंकों का विलय भी किया है। बैंकों की स्थिति सुधारने के लिये बैंकों के विलय की सिफारिश पहले ही नरसिंहम समिति तथा पी.जे. नायक समिति द्वारा की जाती रही है। भारतीय बैंकिंग संघ के अनुसार, वर्ष 1986 से अब तक लगभग 50 बैंकों का विलय किया गया है। न्यू बैंक ऑफ़ इंडिया का पंजाब नेशनल बैंक में विलय अतीत का पहला बड़ा विलय माना जाता है। कुछ समय पश्चात् वर्ष 2017 में भारतीय महिला बैंक एवं पाँच अन्य बैंकों का स्टेट बैंक ऑफ़ इंडिया में विलय किया गया था। इस विलय के पश्चात् SBI विश्व के 50 बढ़े बैंकों की सूची में शामिल हो गया। इसके अतिरिक्त वर्ष 2019 में विजया बैंक एवं देना बैंक का बैंक ऑफ़ बड़ौदा में भी विलय किया गया।
राष्ट्रीयकरण के परिणाम
राष्ट्रीयकरण के पश्चात् बैंकों की खराब स्थिति में तेज़ी से सुधार हुआ। वर्ष 1969 से पूर्व बैंकों की सिर्फ लगभग 8 हजार शाखाएँ थीं जो वर्ष 1994 में बढ़कर 60 हज़ार तथा वर्ष 2014 में इनकी संख्या 1 लाख 15 हज़ार के करीब पहुँच गईं। इससे पहले सभी बैंक सिर्फ शहरी क्षेत्रों में ही स्थित थे लेकिन राष्ट्रीयकरण के बाद वर्ष 2014 तक ग्रामीण क्षेत्र में लगभग 43 हज़ार बैंक स्थापित हो चुके हैं। पहले बैंक निजी स्वामित्व के अंतर्गत आते थे जिससे इनकी रुचि सामाजिक कल्याण के बजाय निजी लाभ में होती थी लेकिन भारत जैसे देश में बैंकिंग व्यवस्था विभिन्न सामाजिक-आर्थिक क्षेत्रों के लिये आवश्यक है। राष्ट्रीयकरण के पश्चात् बैंक भारत में समावेशी विकास एवं विभिन्न कल्याण योजनाओं की धुरी बन गए। वर्तमान में जनधन योजना (PMJDY) जैसे कार्यक्रम जिसके अंतर्गत वर्ष 2018 तक लगभग 31 करोड़ बैंक खाते खोले गए, बैंकों के राष्ट्रीयकरण के पश्चात् ही संभव हो सकता था। ऐसी योजनाओं ने न सिर्फ समाज के अंतिम वर्ग तक बैंकों की पहुँच सुनिश्चित की बल्कि विभिन्न योजनाओं के लिये आधार का कार्य भी किया। भारत में बजट का बड़ा हिस्सा सब्सिडी के रूप में खर्च किया जाता है। विभिन्न चैनलों के माध्यम से दी जाने वाली सब्सिडी में भ्रष्टाचार एवं रिसाव (Leakage) की समस्या होती थी, इससे एक बड़ी राशि लक्षित समूह तक नहीं पहुँच पाती थी। बैंकों के समावेशीकरण के बाद ऐसी सब्सिडी प्रत्यक्ष लाभ हस्तातंरण के माध्यम से देना संभव हो सका। वर्तमान में गैस सब्सिडी, मनरेगा, किसान क्रेडिट कार्ड योजना, सबके लिये आवास योजना आदि कार्यक्रमों की राशि सीधे लाभार्थी के खाते में देना मुमकिन हो सका है।
राष्ट्रीकृत बैंक एवं निजी क्षेत्र के बैंक
उदारीकरण के पश्चात् निजी क्षेत्र को भी बैंकिंग क्षेत्र में प्रवेश की अनुमति दे दी गई। वर्ष 1994 में इस तरह का पहला बैंक आईसीआईसीआई बैंक था जिसे उदारीकरण के पश्चात् बैंक के लिये लाइसेंस दिया गया था। वर्तमान में निजी क्षेत्र के कई बैंक कार्यरत हैं। निजी क्षेत्र को बैंकिंग में शामिल करने से इस क्षेत्र में तेज़ी आई तथा लोगों के लिये बैंकिंग सेवाएँ सर्वसुलभ हो गईं। इन बैंकों ने नए-नए उत्पादों को बाज़ार में उतारा एवं धीरे-धीरे सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों से प्रतिस्पर्द्धा करने लगे। ये बैंक पूर्णतः बैंकिंग मूल्यों पर आधारित हैं एवं सिर्फ अपने ग्राहकों के प्रति ही जिम्मेदार हैं। जबकि सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक (PSB) अर्थात् राष्ट्रीकृत बैंकों को अपनी उत्तरजीविता के साथ-साथ जनता के प्रति सामाजिक-आर्थिक दायित्व का भी निर्वहन करना पड़ रहा है। इससे PSB के लिये निजी बैंकों से प्रतिस्पर्द्धा करना मुश्किल हो रहा है। विभिन्न राष्ट्रीकृत बैंक गैर-निष्पादित संपत्ति (NPA) की अधिकता तथा खराब कार्यकरण के कारण मुश्किलों का सामना कर रहे हैं। इसके अतिरिक्त एक अन्य समस्या इन बैंकों पर नियंत्रण को लेकर भी है, सरकार तथा RBI, दोनों के द्वारा बैंकों को दिशा निर्देश दिये जाते हैं इससे असमंजस की स्थिति पैदा हो रही है।
यदि आधारभूत संकेतकों पर ध्यान दें तो इंगित होता है कि PSB की स्थिति में गिरावट आई है। मार्च 2019 के अंत में सकल NPA अनुपात 11.2 प्रतिशत था तथा PSB बैंकों की परिसंपत्ति पर प्रतिफल (Return of Assets) वित्तीय वर्ष 2018 के लिये 0.8 प्रतिशत था, जबकि इक्विटी पर प्रतिफल (Return of Equity) की दर नकारात्मक थी। इसके अतिरिक्त पिछले वर्ष नवीन बैंक शाखाएँ खोलने की दर में भी 25 प्रतिशत की गिरावट आई है।
सार्वजनिक बैंक: अभी भी मज़बूत
उपर्युक्त स्थिति के बावजूद सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक अभी भी मजबूत स्थिति में बने हुए हैं। बाज़ार की कुल बैंक उधारी (Credits) एवं कुल जमा (Deposits) अभी भी क्रमशः 63.2 प्रतिशत एवं 66.9 प्रतिशत सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों में ही मौजूद है। हालाँकि NPA बैंकों के लिये बड़ी समस्या बनकर उभरा है। किंतु इसमें भी सुधार देखा जा रहा है, साथ ही सरकार, RBI एवं संबंधित बैंक अपने फँसे हुए ऋण की वसूली के लिये प्रयास कर रहे हैं।
कुछ विशेषज्ञ बैंकों की कमज़ोर हो रही स्थिति को देखते हुए इनके निजीकरण का विचार प्रस्तुत करते रहे हैं। भारत जैसे देश में जहाँ गंभीर आर्थिक असमानताएँ मौजूद हैं तथा लोगों की स्थिति में सुधार के लिये बैंकिंग व्यवस्था की महत्त्वपूर्ण भूमिका है, ऐसे में निजीकरण का विचार किसी भी रूप में उचित नहीं समझा जा सकता है। निजीकरण के स्थान पर सरकार को बैंकों की स्थिति में सुधार के लिये आगे आना होगा, साथ ही बैंकों के गवर्नेंस को सुधारने के लिये भी प्रयास करने की आवश्यकता है जिससे इनकी कार्यपद्धति में बदलाव लाया जा सके। RBI को इस बात का ध्यान रखना होगा कि वह PSB बैंकों की बैलेंस शीटपर कड़ी नज़र रखे ताकि स्थिति के बिगड़ने से पूर्व ही उसे ठीक किया जा सके। डिजिटलीकरण के दौर में निजी क्षेत्र ने तेज़ी से अपनी कार्यपद्धति में बदलाव किया है तथा नवीन तकनीकों को स्वीकार किया है। सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों को भी नवीन तकनीक को उत्साहपूर्वक अपनाना होगा ताकि निजी क्षेत्र के साथ प्रतिस्पर्द्धा की जा सके, साथ ही बैंक सरकार पर बोझ बनने के बजाय सरकार की योजनाओं में सहयोग प्रदान कर सकें। यदि कुछ बैंकों की स्थिति को ठीक करना मुमकिन न हो, तो ऐसे बैंकों के निजीकरण के बजाय उनके विलय पर भी विचार किया जा सकता है, कुछ समय पूर्व सरकार द्वारा कुछ बैंकों का विलय भी किया गया है। बैंकों के विलय से न सिर्फ बैंकों के कार्यकरण में सुधार होगा बल्कि इनके आकार में भी वृद्धि हो सकेगी जिससे ये विश्व के बड़े बैंकों में शामिल हो सकेंगे तथा भारतीय अर्थव्यवस्था को मज़बूत आधार दे सकेंगे।
निष्कर्ष
बैंकों के राष्ट्रीयकरण को 50 वर्ष हो चुके हैं। इस अवधि में भारत ने कई क्षेत्रों में अपनी स्थिति को सुधारा है। इसके लिये अन्य बातों के अतिरिक्त बैंकों की भी महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है। उदारीकरण के पूर्व भारत में पूंजी की कमी थी जिसे कुछ हद तक बैंकों ने दूर किया, साथ ही बैंक सरकार और जनता के बीच के आर्थिक अंतरण के सबसे बढ़े माध्यम बनकर उभरे हैं। इसके अलावा इन बैंकों को कुछ चुनौतियों का भी सामना करना पड़ा है। ये चुनौतियाँ न सिर्फ प्रतिस्पर्द्धा के स्तर पर बल्कि बैंकों के ढाँचे से भी उत्पन्न हुई हैं। इनसे निपटने के लिये सरकार एवं बैंकों द्वारा विभिन्न प्रयास किये जाते रहे हैं जो अभी भी जारी हैं।
प्रश्न: सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों की स्थिति सुधारने के लिये क्या निजीकरण एक उपयुक्त विचार है? चर्चा कीजिये।