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डेली न्यूज़

भारतीय अर्थव्यवस्था

उपभोक्ता विवाद निवारण आयोगों में रिक्तियाँ

  • 12 Aug 2021
  • 4 min read

प्रिलिम्स के लिये:

राष्ट्रीय उपभोक्ता विवाद निवारण आयोग

मेन्स के लिये:

उपभोक्ता विवाद से संबंधित मुद्दे

चर्चा में क्यों?

हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय ने राष्ट्रीय उपभोक्ता विवाद निवारण आयोग और राज्य उपभोक्ता विवाद निवारण आयोगों में रिक्त पदों को भरने में देरी पर नाराज़गी व्यक्त की है।

  • इसने केंद्र और राज्यों को आठ सप्ताह के भीतर प्रक्रिया पूरी करने का निर्देश दिया।

प्रमुख बिंदु

संदर्भ:

  • न्यायालय ज़िलों और राज्य उपभोक्ता विवाद निवारण आयोग के अध्यक्ष और सदस्यों / कर्मचारियों की नियुक्ति में निष्क्रियता तथा पूरे भारत में अपर्याप्त बुनियादी ढाँचे पर एक स्वत: संज्ञान मामले की सुनवाई कर रहा था।
  • इसने इस बात पर प्रकाश डाला कि विवादों के निवारण में देरी के कारण रिक्तियाँ उपभोक्ताओं को नुकसान पहुँचा रही हैं।
  • न्यायालय ने केंद्र से उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 2019 को लेकर विधायी प्रभाव अध्ययन पर चार सप्ताह में एक रिपोर्ट प्रस्तुत करने को भी कहा।
  • दो सप्ताह में यह तीसरी बार है जब सर्वोच्च न्यायालय ने भारत में न्यायालयों, न्यायाधिकरणों और विवाद समाधान निकायों में रिक्तियों के संबंध में अपनी चिंता व्यक्त की है।

राष्ट्रीय उपभोक्ता विवाद निवारण आयोग के बारे में:

  • राष्ट्रीय उपभोक्ता विवाद निवारण आयोग (NCDRC) भारत में एक अर्द्ध-न्यायिक आयोग है जिसे 1988 में उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम 1986 के तहत स्थापित किया गया था। 
  • इसका प्रधान कार्यालय नई दिल्ली में है।
  • आयोग का नेतृत्व भारत के सर्वोच्च न्यायालय के एक वर्तमान या सेवानिवृत्त न्यायाधीश द्वारा किया जाता है।
  • 1986 के उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम ने राष्ट्रीय (राष्ट्रीय उपभोक्ता विवाद निवारण आयोग), राज्य और ज़िला स्तरों पर एक त्रिस्तरीय उपभोक्ता विवाद निवारण तंत्र का प्रावधान किया।
  • उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 2019 केंद्रीय उपभोक्ता संरक्षण प्राधिकरण (CCPA) की स्थापना करता है जिसका प्राथमिक उद्देश्य उपभोक्ताओं के अधिकारों को बढ़ावा देना, उनकी रक्षा करना और उन्हें लागू करना होगा।

विधायी प्रभाव अध्ययन के बारे में: 

  • विधायी प्रभाव अध्ययन या आकलन तय समय की अवधि में समाज पर कानून (बनाए और लागू किये जा रहे) के प्रभाव का अध्ययन है।
  • यह विधायी प्रस्तावों और सरकारी नीतियों के स्वीकृत व अधिनियमित होने से पहले तथा  बाद में उनके संभावित प्रभावों का आकलन करने की एक विधि है।
    • उदाहरण के लिये मुकदमेबाज़ी पर इसका क्या प्रभाव पड़ेगा, किस प्रकार की जनशक्ति की आवश्यकता है, किस प्रकार के बुनियादी ढाँचे की आवश्यकता है।
  • यह निर्धारित करने के लिये कि कौन सी नीति सर्वोत्तम परिणाम देती है, यह विभिन्न नीति डिज़ाइनों के साथ उनकी तुलना करती है।
  • कानून बनने के बाद संसद की ज़िम्मेदारी खत्म नहीं होती है। इसे इस बात की पुष्टि करनी होती है कि कानून के इच्छित उद्देश्यों और ज़रूरतों को हासिल किया गया है या नहीं।

Provisions

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस

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