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गैर-ब्रांडेड जेनेरिक दवाएँ एवं ऑर्फ़न ड्रग्स हो सकती हैं मूल्य नियंत्रण से बाहर

  • 04 May 2018
  • 7 min read

चर्चा में क्यों ?
केंद्र सरकार नेशनल फार्मास्युटिकल प्राइसिंग अथॉरिटी (एनपीपीए) के पुनर्गठन के साथ-साथ गैर-ब्रांडेड जेनेरिक दवाओं एवं ऑर्फ़न ड्रग्स को मूल्य नियंत्रण से मुक्त करने का विचार कर रही है। दुर्लभ रोगों के इलाज के लिये राष्ट्रीय नीति, 2017 (एनपीटीआरडी) में कहा गया था कि ऑर्फ़न ड्रग्स बहुत महँगी होती हैं एवं दुर्लभ बीमारियों से पीड़ित व्यक्तियों की संख्या बहुत छोटी है। इसलिये दवा कंपनियों को इनके लिये दवाएँ विकसित करना और बेचना व्यवहार्य नहीं लगता। इसलिये इन दवाओं को ‘ऑर्फ़न ड्रग्स’ कहा जाता है।

प्रमुख बिंदु

  • एनपीटीआरडी में कहा गया है कि जो कंपनियाँ दुर्लभ बीमारियों के इलाज के लिये दवाएँ (ड्रग्स) बनाती हैं, वे इन्हें अनुसंधान और विकास की लागत की भरपाई के लिये अत्यधिक कीमत पर बेचती हैं।
  • केंद्र सरकार, नीति आयोग द्वारा पेश किये गए प्रस्ताव पर चर्चा कर रही है, जिसमें ऑर्फ़न ड्रग्स, गैर-ब्रांडेड जेनेरिक दवाओं और अन्य ऐसी दवाएँ, जो सस्ती दवाइयों और स्वास्थ्य उत्पादों हेतु प्रस्तावित स्थायी समिति द्वारा प्रस्तावित की जाएँ, को शामिल करने हेतु ड्रग (मूल्य नियंत्रण) आदेश, 2013 के  पैरा 32 में संशोधन करने की मांग की गई है।
  • वर्तमान में ड्रग (मूल्य नियंत्रण) आदेश, 2013 का पैरा 32 एनपीपीए को कुछ निश्चित वर्गों की दवाओं को मूल्य नियंत्रण से मुक्त करने की शक्ति प्रदान करता है।
  • केंद्र सरकार ‘सस्ती दवाइयों और स्वास्थ्य उत्पादों हेतु स्थायी समिति’ का गठन करने पर विचार कर रही है, जिसे कुछ दवाओं को मूल्य नियंत्रण से मुक्त करने की शक्ति दी जा सकती है।
  • गैर- ब्रांडेड जेनेरिक दवाओं को मूल्य नियंत्रण से मुक्त किया जा सकता है, क्योंकि दवा निर्माताओं को अधिक से अधिक गैर-ब्रांडेड जेनेरिक दवाएँ बनाने के लिये प्रोत्साहन देना आवश्यक है।
  • गैर-ब्रांडेड जेनेरिक दवाएँ ब्रांडेड जेनेरिक दवाओं से तुलनात्मक रूप में सस्ती होती हैं। वर्तमान में भारत में बेची जाने वाली अधिकतर दवाएँ ब्रांडेड जेनेरिक दवाएँ हैं। 
  • जब ‘पैरासीटामोल’ को 'कैल्पोल' या 'सूमो' ब्रांड नाम के साथ बेचा जाता है, तो इसे ब्रांडेड जेनेरिक दवा कहा जाता है। लेकिन जब इसे 'पैरासीटामोल' के नाम के साथ ही बेचा जाता है, तो इसे गैर-ब्रांडेड जेनेरिक दवा कहा जाता है।
  • भारत में ‘दुर्लभ बीमारी’ को परिभाषित नहीं किया गया है। हालाँकि, विश्व स्वास्थ्य संगठन ने इसे परिभाषित किया है, जिसके अनुसार प्रति 1000 जनसंख्या पर 1 या उससे भी कम के प्रसार वाली  आजीवन बीमारी या विकार की स्थिति को ‘दुर्लभ बीमारी’ माना जाता है।
  • कुछ आम दुर्लभ बीमारियाँ हीमोफीलिया, पोंपे रोग, थैलेसीमिया, सिकल-सेल एनीमिया, गौचर रोग हैं। एनपीटीआरडी 2017 के अनुसार, भारत में इस प्रकार की लगभग 450 दुर्लभ बीमारियाँ दर्ज़ की गई हैं।

जेनेरिक दवाएँ क्या हैं ?

  • किसी बीमारी के इलाज के लिये तमाम तरह के अनुसंधान और खोज के बाद एक रसायन (सॉल्ट) तैयार किया जाता है, जिसे आसानी से उपलब्ध करवाने के लिये दवा की शक्ल दे दी जाती है।
  • इस सॉल्ट को हर कंपनी अलग-अलग नामों से बेचती है, कोई इसे महँगे दामों में बेचती है तो कोई सस्ते दामों में। 
  • लेकिन इस सॉल्ट का जेनेरिक नाम सॉल्ट के रासायनिक गुणों और संबंधित बीमारी का ध्यान रखते हुए एक विशेष समिति द्वारा निर्धारित किया जाता है। 
  • उल्लेखनीय है कि किसी भी सॉल्ट का जेनेरिक नाम पूरी दुनिया में एक ही रहता है।

जेनेरिक दवाओं के प्रयोग को बढ़ावा देने के लाभ 

  • दवा मूल्य का सस्ता होना- ये स्वाभाविक सी बात है कि यदि जेनेरिक दवाइयों का प्रचलन बढ़ता है तो इलाज के खर्च में दवाइयों के मूल्य का हिस्सा जो एक सबसे बड़ा हिस्सा होता है उसमें कमी आएगी। हालाँकि, सस्ती जेनेरिक दवाइयों की निर्बाध व गुणवत्तापूर्ण आपूर्ति के लिये और भी विभिन्न पहलें किये जाने की आवश्यकता है। 
  • सरकार को स्वास्थ्य सुरक्षा प्रदान करने में सहायता- सस्ती दवाइयों  की उपलब्धता स्वास्थ्य सुरक्षा के लक्ष्य को प्राप्त करने में एक महत्त्वपूर्ण घटक है। इस प्रकार, राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन जैसी परियोजनाओं के लिये जेनेरिक दवा के रूप में सरकार को एक महत्त्वपूर्ण संसाधन प्राप्त हो जाएगा, जिससे आम जन को स्वास्थ्य सुरक्षा दी जा सकेगी।
  • जेनेरिक दवा उद्योग- भारत का जेनेरिक दवा उद्योग विश्व में बड़े दवा उद्योगों में से एक है, तथापि जेनेरिक दवाओं को बढ़ावा देना देश के एक बहुत बड़े उद्योग को बढ़ावा देगा। इससे इस क्षेत्र में निवेश बढ़ेगा, जो अंततः नवाचार के साथ-साथ शोध एवं  विकास (R&D) को प्रोत्साहित करेगा।
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