भारतीय राजव्यवस्था
आरक्षण के उप-वर्गीकरण की अवधारणा
- 28 Aug 2020
- 10 min read
प्रिलिम्स के लिये:आरक्षण का उप-वर्गीकरण, जरनैल सिंह बनाम लक्ष्मी नारायण गुप्ता मामला, अनुच्छेद- 341, क्रीमी लेयर की अवधारणा, केरल राज्य बनाम एन. एम. थॉमस मामला मेन्स के लिये:आरक्षण के उप-वर्गीकरण की अवधारणा |
चर्चा में क्यों?
हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय की पाँच-न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के आरक्षण के उप-वर्गीकरण (कोटा के भीतर कोटा) पर कानूनी बहस को फिर से शुरू कर दिया है।
प्रमुख बिंदु:
- पाँच-न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने अनुसूचित जाति वर्ग में सभी अनुसूचित जातियों का समान प्रतिनिधित्त्व सुनिश्चित करने के लिये कुछ को अधिमान्य उपचार देने के पक्ष का समर्थन किया है।
- वर्ष 2005 'ई. वी. चिनैय्या बनाम आंध्र प्रदेश राज्य और अन्य (E V Chinnaiah v State of Andhra Pradesh and Others) मामले में पाँच न्यायाधीशों की एक पीठ ने निर्णय दिया था कि राज्य सरकारों के पास आरक्षण के उद्देश्य से अनुसूचित जातियों की उप-श्रेणियाँ बनाने की कोई शक्ति नहीं है।
- चूंकि समान शक्ति (इस मामले में पाँच न्यायाधीश) की एक पीठ पिछले निर्णय को रद्द नहीं कर सकती, अत: मामले में निर्णय लेने के लिये इसे एक बड़ी संवैधानिक पीठ को भेजा गया है।
- भारत के मुख्य न्यायाधीश द्वारा स्थापित की गई बड़ी खंडपीठ दोनों निर्णयों (अनुसूचित जातियों की उप-श्रेणियाँ बनाने तथा इस संबंध में राज्यों को अधिकार) पर पुनर्विचार करेगी।
'ई. वी. चिनैय्या बनाम आंध्र प्रदेश राज्य और अन्य मामला:
(E V Chinnaiah v State of Andhra Pradesh and Others)
- वर्ष 2005 के इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने निर्णय दिया कि किसी जाति को अनुसूचित जाति के रूप में शामिल करने या बहिष्कृत करने की शक्ति केवल राष्ट्रपति के पास है, और राज्य सूची के साथ छेड़छाड़ नहीं कर सकते हैं।
आरक्षण का उप-वर्गीकरण:
- अनेक राज्यों का मानना है कि अनुसूचित जातियों में भी कुछ अनुसूचित जातियों का सकल प्रतिनिधित्त्व अन्य की तुलना में कम है।
- अनुसूचित जातियों के भीतर की असमानता को कई रिपोर्टों में रेखांकित किया गया है।
- इस असमानता को संबोधित करने के लिये आरक्षण के उप-वर्गीकरण अर्थात कोटा के अंदर कोटा प्रदान करने की बात की जाती है।
राज्यों में आरक्षण का उप-वर्गीकरण:
बिहार:
- वर्ष 2007 में बिहार सरकार द्वारा अनुसूचित जाति के भीतर पिछड़ी जातियों की पहचान करने के लिये 'महादलित आयोग' का गठन किया गया था।
तमिलनाडु:
- राज्य सरकार द्वारा गठित न्यायमूर्ति एम. एस. जनार्थनम (Janarthanam) की रिपोर्ट में पाया गया है कि राज्य में अनुसूचित जाति की आबादी राज्य की आबादी की 16% होने के बावजूद उनका सरकारी नौकरियों में केवल 0-5% प्रतिनिधित्त्व था।
- तमिलनाडु सरकार द्वारा अनुसूचित जाति कोटे के भीतर 3% कोटा अरुंधतिअर (Arundhatiyar) जाति को प्रदान किया गया है।
आंध्र प्रदेश:
- वर्ष 2000 में, न्यायमूर्ति रामचंद्र राजू की रिपोर्ट के आधार पर आंध्र प्रदेश की विधायिका द्वारा 57 अनुसूचित जनजातियों को मिलाकर एक उप-समूह का निर्माण किया गया।
- इन अनुसूचित जनजातियों का उनकी आबादी के अनुपात में अनुसूचित जातियों के कोटे में 15% कोटा निर्धारित किया गया।
पंजाब:
- पंजाब सरकार द्वारा भी अनुसूचित जाति कोटा में बाल्मीकि और मज़हबी सिखों को वरीयता देने वाला कानून बनाया है।
उप-वर्गीकरण के आधार:
क्रीमी लेयर की अवधारणा:
- सर्वोच्च न्यायालय का मानना है कि आरक्षण का लाभ 'सबसे कमज़ोर लोगों को' (Weakest of the Weak) प्रदान किया जाना चाहिये।
- वर्ष 2018 में 'जरनैल सिंह बनाम लक्ष्मी नारायण गुप्ता मामले' में अनुसूचित जनजातियों के भीतर एक 'क्रीमी लेयर' की अवधारणा के निर्णय को कायम रखा गया।
- इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा अपने ही 12 वर्ष पुराने ‘एम. नागराज बनाम भारत’ सरकार मामले में दिये गए पूर्ववर्ती निर्णय पर सहमति व्यक्त की गई थी।
- एम. नागराज मामले में सर्वोच्च न्यायालय का मानना था कि अनुसूचित जाति और जनजाति (SC/ST) को मिलने वाला लाभ समाज के सभी वर्गों को मिल सके इसके लिये आरक्षण में क्रीमी लेयर की अवधारणा का प्रयोग करना आवश्यक है।
- वर्ष 2018 में पहली बार अनुसूचित जातियों की पदोन्नति में क्रीमी लेयर' की अवधारणा को लागू किया गया था।
- केंद्र सरकार ने वर्ष 2018 के जरनैल सिंह मामले में निर्णय की समीक्षा की मांग की है और मामला वर्तमान में सर्वोच्च न्यायालय में लंबित है।
अनुच्छेद- 341:
- संविधान के अनुच्छेद- 341 के तहत अनुसूचित जातियों को निर्धारित करने के लिये राष्ट्रपति को सशक्त किया गया है।
- एक राज्य में SC के रूप में अधिसूचित जाति दूसरे राज्य में SC रूप में हो भी सकती है और नहीं भी हो सकती।
- न्यायालय का मानना है कि केवल वरीयता देने, पुनर्व्यवस्थित करने, उप-वर्गीकरण करने से अनुच्छेद- 341 के तहत अधिसूचित सूची में कोई परिवर्तन नहीं आता है। अनुच्छेद 341 राष्ट्रपति की सहमति के बिना किसी भी जाति का समावेश या बहिष्करण करने की मनाही करता है, न कि उप-वर्गीकरण की।
समानता का अधिकार:
- निश्चित कारणों तथा आधारों पर किया गया उप-वर्गीकरण समानता के अधिकार का उल्लंघन नहीं करता है।
- उप-वर्गीकरण से सरकारी सेवाओं में अनुसूचित जनजातियों में न केवल 'आनुपातिक समानता' की प्राप्ति होगी अपितु 'वास्तविक समानता' की प्राप्ति होगी।
उप-वर्गीकरण के विपक्ष में तर्क:
अनुसूचित जातियाँ एक वर्ग:
- 1976 के ‘केरल राज्य बनाम एन. एम. थॉमस मामले’ में सर्वोच्च न्यायालय ने यह निर्धारित किया कि 'अनुसूचित जातियाँ (SC) कोई जाति नहीं हैं, अपितु वे वर्ग हैं।
- इस मामले में यह तर्क दिया गया कि 'सामाजिक और शैक्षणिक पिछड़ेपन' की शर्त को अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति पर लागू नहीं किया जा सकता है।
- अस्पृश्यता के कारण सभी अनुसूचित जातियों को विशेष उपचार दिया जाना चाहिये।
वोट बैंक की राजनीति संभव:
- आरक्षण के उप-वर्गीकरण में सरकार द्वारा लिये जाने वाले निर्णय वोट बैंक की राजनीति के आधार पर हो सकते हैं।
- इस तरह के संभावित मनमाने बदलाव से बचने के लिये अनुच्छेद- 341 में राष्ट्रपति की सूची की परिकल्पना की गई थी।
आगे की राह:
- सामाजिक वास्तविकताओं को ध्यान में रखे बिना सामाजिक परिवर्तन का संवैधानिक लक्ष्य प्राप्त नहीं किया जा सकता है। अत: इस दिशा में उचित आरक्षण उप-वर्गीकरण प्रणाली को अपनाना एक प्रभावी कदम हो सकता है।
भारत में अनुसूचित जनजातियाँ:
- वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार अनुसूचित जातियों का प्रतिशत भारत की जनसंख्या का 16.6% है।
- सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय की वार्षिक रिपोर्ट के अनुसार, वर्ष 2018-19 में देश में कुल 1,263 अनुसूचित जनजातियाँ थी।
- अरुणाचल प्रदेश और नगालैंड, अंडमान और निकोबार द्वीप समूह और लक्षद्वीप में किसी भी समुदाय को अनुसूचित जाति के रूप में निर्दिष्ट नहीं किया गया है।