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अंतर्राष्ट्रीय संबंध

निजी क्षेत्र के सहयोग से निर्मित पहला नेविगेशन उपग्रह

  • 14 Aug 2017
  • 6 min read

चर्चा में क्यों ?

  • पहली बार निजी क्षेत्र के साथ मिलकर बनाया गया एक नेविगेशन उपग्रह जल्दी ही अंतरिक्ष में स्थापित किया जाएगा। यह पहला मौका है, जब इसरो कई करोड़ रुपए के उपग्रह को बनाने के लिये निजी क्षेत्र के उद्योग की मदद ले रहा है।
  • दरअसल, उपग्रह निर्माण की गति के साथ तालमेल नहीं बैठा पाने के कारण इसरो ने निजी उद्योग को इसमें शामिल किया था। विदित हो कि बेंगलुरु स्थित ‘अल्फा डिज़ाइन टेक्नोलॉजीज’ को भारत के नेविगेशन तंत्र के लिये दो पूर्ण उपग्रह बनाने का काम दिया गया था, जो अब पूरा हो गया है।

क्यों महत्त्वपूर्ण है यह मिशन ?

  • लगभग 150 से अधिक मिशन और तीन दशक तक के अंतरिक्ष संबंधी कार्य के बाद अब इसरो एक अभूतपूर्व अभियान पर काम कर रहा है। अब वह एक पूर्ण नेविगेशन उपग्रह बनाने के लिये निजी क्षेत्र से हाथ मिला रहा है।
  • गौरतलब है कि निजी क्षेत्र से सहयोग से बने आईआरएनएसएस-1 एच उपग्रह को इस महीने के अंत में श्रीहरिकोटा से अंतरिक्ष में स्थापित किया जाएगा। यह प्रभावहीन हो रहे आईआरएनएसएस-1 ए उपग्रह के लिये बैकअप का कार्य करेगा। यह आठवां नेवीगेशन उपग्रह होगा।
  • दरअसल, उपग्रह को जोड़ने और उसके परीक्षण करने का काम अपने हाथ में लेना किसी भी भारतीय कंपनी के लिये चुनौतीपूर्ण काम है, वह भी तब जबकि ऐसा भारत में पहली बार हो रहा है। अतः यह उपलब्धि महत्त्वपूर्ण है।

क्यों बरतनी होगी सावधानी

  • विदित हो कि इसरो ने भारत को उसका पहला बड़ा निजी उपग्रह दिलाने के लिये निजी क्षेत्र से हाथ मिलाया है। इसरो हमेशा से एक ऐसी व्यवस्था बनाना चाहता है, जिसमें  निजी क्षेत्र के साथ मिलकर अंतरिक्ष अनुसन्धान को नई ऊचाईयों तक पहुँचाया जा सके।
  • दरअसल, वर्तमान में अंतरिक्ष अनुसन्धान के क्षेत्र में भारत जो कर रहा है और जो वह कर सकता है उसमें एक अंतर है। निजी क्षेत्र की मदद से हम इस अंतर को पाट सकते हैं।
  • लेकिन उपग्रह निर्माण में अत्यधिक सटीकता की ज़रूरत होती है क्योंकि इनपर सैंकड़ों करोड़ रूपए की लागत आती है और प्रक्षेपण के बाद यह 10 साल तक के लिये सक्रिय रहते हैं और इनकी मरम्मत की कोई संभावना भी नहीं होती। अतः निजी क्षेत्र के साथ आगे बढ़ते हुए इसरो को सावधानी भी बरतनी चाहिये।

नेवीगेशन उपग्रह की ज़रूरत क्यों ?

  • नेविगेशन उपग्रह की ज़रूरत को लेकर भारत पहली बार तब गंभीर हुआ जब करगिल युद्ध के दौरान जीपीएस के द्वारा पूरी स्थिति का जायजा लेने के उद्देश्य से अमेरिका से मदद मांगी गई। क्योंकि, ये तकनीक तब उसी के पास उपलब्ध थी। लेकिन अमेरिका ने इंकार कर दिया।
  • 28 अप्रैल, 2016 को 12 बजकर 50 मिनट पर श्रीहरिकोटा से IRNSS-1G को सफलतापूर्वक लॉन्च करते ही भारत ने अपने सपने को पूरा करने की ओर कदम बढ़ा दिया है।
  • भारत को इसका एक बड़ा फायदा बॉर्डर की सुरक्षा के क्षेत्र में मिलेगा। खासकर सीमा पार से जिस प्रकार घुसपैठ और भारत विरोधी कार्यों को अंजाम देने की कोशिश की जाती है। उस पर नज़र बनाए रखने में मदद मिलेगी। साथ ही समुद्री क्षेत्रों पर भी नज़र रखी जा सकेगी।
  • नेविगेशन उपग्रह के इस्तेमाल से प्राकृतिक आपदा से हुए नुकसान का जल्द से जल्द आकलन और सुदूर इलाकों में मदद पहुँचाने के लिये भी किया जा सकेगा। इससे पहले ज़्यादातर मौकों पर कोई महत्त्वपूर्ण डाटा हासिल करने के लिये हमें अमेरिका की मेहरबानी पर निर्भर रहना पड़ता था।
  • दूरदराजों के इलाकों में मिट्टी की गुणवत्ता, मौसम, और कैसी फसल उगाई जाए, इसे लेकर ज़रूरी सलाह किसानों को दी जा सकेगी। जंगलों में होने वाली दुर्घटनाओं जैसे आग इत्यादि पर नजर रखी जा सकेगी। साथ ही जानवरों की लुप्त होती प्रजातियों को ट्रैक करने और उसमें सुधार लाने में भी मदद मिल सकेगी।

निष्कर्ष
वर्तमान में नेविगेशन सेटेलाइट तकनीक की मदद से भारत अपने चारों ओर लगभग 1500 किलोमीटर के आसपास के क्षेत्र में नज़र रख सकता है और पूरी धरती को कवर करने के लिये करीब 25 से 30 सेटेलाइट्स की ज़रूरत होगी। अतः इसरो का निजी क्षेत्र के साथ हाथ मिलाकर काम करना निश्चित ही आवश्यक और स्वागतयोग्य कदम है।

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