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डेली न्यूज़

अंतर्राष्ट्रीय संबंध

ईंधन की बढ़ती कीमतें

  • 30 Apr 2018
  • 5 min read

चर्चा में क्यों ?

भारतीय शहरों में वर्ष 2013 के बाद पेट्रोल और डीज़ल की कीमतें अपने उच्चतम स्तर पर पहुँच गई हैं। वर्ष 2013 में ब्रेंट क्रूड ऑयल $100 प्रति बैरल से अधिक पर कारोबार कर रहा था, इसकी वर्तमान कीमत $75 प्रति बैरल है। यहाँ तक कि जब 2014 और 2015 में अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में क्रूड ऑयल के दाम तेज़ी से गिर रहे थे और वे घटकर $30 प्रति बैरल पर पहुँच चुके थे, तब भी भारतीय बाज़ार में इसकी कीमत में अपेक्षानुसार कटौती नहीं हुई। लेकिन जब भी अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर क्रूड ऑयल के दामों में बढ़ोतरी होती है तो भारतीय बाज़ार में भी तेज़ी से बढ़ोतरी हो जाती है।

ऐसा क्यों होता है?

  • इस प्रकार का कोई सख्त नियम नहीं है कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर कच्चे तेल की कीमतों में कमी होने से घरेलू स्तर पर भी इसकी कीमतों में आवश्यक रूप से कमी आएगी। 
  • जब क्रूड ऑयल की कीमत अधिक होती है, तो तेल कंपनियों को प्रतिस्पर्द्धी स्तरों पर कीमतों को रखने  के लिये खुदरा बाज़ार में अपनी आपूर्ति पर कटौती करने के लिये मजबूर होना पड़ता है। 
  • यह ध्यान देने योग्य है कि जनवरी 2016 के बाद से, जब क्रूड ऑयल की कीमतें सबसे निचले स्तर पर थीं तब से, इसकी कीमतें लगातार ऊपर की ओर बढ़ रही हैं। ओपेक देशों द्वारा 2016 के अंत में हुए एक समझौता, जिसमें उत्पादन में कटौती का निर्णय लिया गया था, ने भी कीमतों की बढ़ोतरी में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
  • करों की उच्च दर भी एक अन्य कारक है जो उत्पादकों को खुदरा बाज़ार में पर्याप्त आपूर्ति करने से हतोत्साहित कर सकती है, जिससे कीमतों में वृद्धि होती है। ऐसा भारत में अक्सर देखने को मिला है।
  • जब वर्ष 2014 और 2015 में कच्चे तेल की कीमतों में भारी गिरावट आई तो सरकार ने पेट्रोल तथा डीज़ल दोनों पर करों में ₹10 प्रति लीटर की वृद्धि कर दी।
  • करों की दरों में इस वृद्धि से सरकार के राजस्व में तो वृद्धि हुई, लेकिन इसने ईंधन की घरेलू कीमतों को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर हुई कटौती जितना कम होने से रोक दिया।

यह मायने क्यों रखता है ?

  • पेट्रोल और डीज़ल की बढ़ती कीमतें नागरिकों पर बोझ बढ़ाती हैं, जो कुछ हद तक सरकार की लोकप्रियता को प्रभावित करती हैं।
  • साथ ही यह आधारभूत ईंधनों पर सरकार की कर लगाने की नीति पर भी सवाल खड़े करती है। 
  • उपभोक्ता द्वारा भुगतान किये जाने वाले धन का आधे से अधिक भाग करों के रूप में सरकार के पास चला जाता है।
  • हाल के दिनों में सरकारी स्वामित्व वाली तेल विपणन कंपनियों के शेयरों में तेज़ी से गिरावट देखने को मिली है।
  • तेल कीमतों में हालिया वृद्धि सरकार के ऊर्जा क्षेत्र में सुधारों संबंधी प्रतिबद्धता के लिये लिटमस टेस्ट के समान है। 
  • साथ ही ईंधन की बढ़ती कीमतों के कारण वैश्विक स्तर पर इसकी आपूर्ति प्रभावित हो सकती है जिससे आर्थिक संवृद्धि पर नकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है। 

आगे की राह

  • आने वाले समय में पेट्रोल और डीज़ल की घरेलू कीमतों का अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर कीमत और सरकार की नीतिगत प्राथमिकताओं पर निर्भर रहने की संभावना है क्योंकि 2018 में कई राज्यों में चुनाव और 2019 में आम चुनाव होने हैं।
  • बढ़ते भू-राजनीतिक तनावों के कारण भी आने वाले समय में ईंधन की कीमतों में तेज़ी आने की संभावना है।
  • कुछ लोगों का मानना है कि ओपेक देश अपनी राजस्व आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु कीमतों में और वृद्धि का प्रयास करेंगे। जबकि दूसरे पक्ष के अनुसार, अमेरिकी शेल तेल उत्पादक कीमतों में शीघ्र ही कोई  वृद्धि नहीं होने देंगे।
  • यदि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर कच्चे तेल की कीमतों में गिरावट आती है तो सरकार इन तेलों पर लगे करों में कटौती कर सकती है या तेल विपणन कंपनियों को कम कीमतों पर तेल बिक्री के लिये बाध्य कर सकती है। 
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