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अंतर्राष्ट्रीय संबंध

धारा 498-ए पर पुनर्विचार का औचित्य

  • 14 Oct 2017
  • 5 min read

चर्चा में क्यों?

  • हाल ही में दहेज़ विरोधी कानून की सख्ती कम करने के अपने ही फैसले से सुप्रीम कोर्ट ने असहमति जताई है। सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा के नेतृत्व में तीन सदस्यीय बेंच ने इस संबंध में उस फैसले से असहमति जताई, जिसमें जस्टिस आदर्श कुमार गोयल और जस्टिस यू.यू. ललित की दो सदस्यीय बेंच ने आईपीसी की धारा 498ए के तहत आरोपों के सत्यापन के बिना तुरंत गिरफ्तारी पर रोक लगाई थी।

क्या कहा सुप्रीम कोर्ट ने?

  • उच्चतम न्यायालय ने अपने इस फैसले में कहा है कि आईपीसी की धारा 498ए के तहत गिरफ्तारी के लिए कुछ दिशा-निर्देश तय किये गए थे जो विधायिका के अधिकार क्षेत्र की एक कवायद लगती है।
  • न्यायालय का मानना है कि आईपीसी की धारा 498ए में इस तरह का कोई बदलाव वास्तव में उन महिलाओं के अधिकारों के विरुद्ध है जिनका कि उत्पीड़न होता है। सुप्रीम कोर्ट ने गृह मंत्रालय, महिला और बाल विकास मंत्रालय व राष्ट्रीय महिला आयोग को नोटिस जारी किया है और 29 अक्टूबर तक केंद्र से जवाब मांगा है।

क्या है धारा 498ए ?

  • विदित हो कि दहेज़ प्रताड़ना और ससुराल में महिलाओं पर अत्याचार के दूसरे मामलों से निपटने के लिये आईपीसी की धारा 498ए में सख्त प्रावधान किये गए हैं। दरअसल, दहेज़ प्रताड़ना से बचाव के लिये 1983 में आईपीसी की धारा 498ए का प्रावधान किया गया है।
  • इसे दहेज़ निरोधक कानून कहा गया है। अगर किसी महिला को दहेज़ के लिये मानसिक, शारीरिक या फिर अन्य तरह से प्रताड़ित किया जाता है और महिला की शिकायत पर इस धारा के तहत मामला दर्ज़ किया जाता है तो इसे संज्ञेय अपराध की श्रेणी में रखा गया है।
  • साथ ही यह गैर-ज़मानती अपराध है। दहेज़ के लिये ससुराल में प्रताड़ित करने वाले तमाम लोगों को आरोपी बनाया जा सकता है। इस मामले में दोषी पाए जाने पर अधिकतम 3 साल तक की कैद की सज़ा का प्रावधान है।

न्यायालय के वर्तमान फैसले के पहले क्यों था विवाद

  • सुप्रीम कोर्ट ने इस फैसले से पहले इस कानून के दुरुपयोग पर चिंता जताते हुए इसके तहत तत्काल होने वाली गिरफ्तारियों पर रोक लगा दी थी।
  • दरअसल, उच्चतम न्यायालय ने इस कानून के दुरुपयोग को प्रमाणित करने के लिये एनसीआरबी (national crime record bureau) के आँकड़ों का सहारा लिया था। एनसीआरबी के 2012 के आँकड़ों का ज़िक्र करते हुए उच्चतम न्यायालय की खंडपीठ ने कहा था कि जिन मामलों में इस धारा का इस्तेमाल होता है, उनमें से 93.6% मामलों में चार्जशीट फाइल की जाती है, लेकिन सिर्फ 14.4% मामलों में ही दोषी का अपराध प्रमाणित हो पाता है।
  • यहाँ सवाल यह उठता है कि क्या किसी कानून की महत्ता केवल इसलिये कम हो जाती है, क्योंकि उसके तहत दर्ज़ किये गए अधिकांश मामले सही साबित नहीं हो पा रहे हैं?
  • दरअसल होता यह है कि लंबे समय तक मुकदमा चलने की वज़ह से बड़ी संख्या में आरोपी छूट जाते हैं।  कभी-कभी तो पुलिस इतना कमज़ोर केस बनाती है कि आरोपी को अपराध से बरी कर दिया जाता है। वहीं कभी शिकायत दर्ज़ कराने वाले या तो थककर समझौता करने को मज़बूर हो जाते हैं या केस वापस लेने के लिये तैयार हो जाते हैं।

निष्कर्ष

  • इसमें कोई शक नहीं है कि कुछ लोगों को गलत तरीके से फँसाने के लिये भी इस कानून का इस्तेमाल किया गया है, लेकिन ऐसे कुछ मामलों की वज़ह से उस कानून को कमज़ोर नहीं किया जा सकता है, जो दहेज़ पीड़ितों के लिये एक सुरक्षा कवच के समान है।
  • हालाँकि यह नहीं कहा जा सकता कि पहले न्यायालय का उद्देश्य इस कानून को कमज़ोर करना था,  फिर भी इस कानून में कोई सुधारात्मक प्रयास लाने के क्रम में हमें यह भी ध्यान रखना होगा कि इसके उद्देश्य अक्षुण्ण बने रहें।
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