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शासन व्यवस्था

बिजली खरीद प्रथाओं में सुधार की आवश्यकता

  • 25 May 2018
  • 6 min read

संदर्भ 

भारत में बिजली के खुदरा टैरिफों पर हमेशा चिंता जताई जाती है , लेकिन विडंबनात्मक रूप से उन घटकों पर बहुत कम ध्यान दिया जाता है, जो कुल लागत को बढाने में अहम योगदान देते हैं। बिजली उत्पादन की लागत इसकी सप्लाई लागत की 70-80% होती है और बिजली खरीद प्रथाओं का इस लागत पर महत्त्वपूर्ण प्रभाव होता है। फिर भी इस बात पर बहुत कम ध्यान दिया जाता है कि भी डिस्ट्रीब्यूशन कंपनियाँ (डिस्कॉम) किस प्रकार बिजली की खरीदारी करती हैं।

प्रमुख बिंदु 

  • थर्मल विद्युत सयंत्रों में कम होते प्लांट लोड फैक्टर (PLFs) इस बात का सूचक हैं कि कुछ राज्यों के पास अधिशेष बिजली पैदा करने की क्षमता है। 
  • कुछ लोग तर्क दे सकते हैं कि अधिशेष क्षमता लगातार कमी से बेहतर है, लेकिन कमी से अधिशेष की ओर बदलाव डिस्ट्रीब्यूशन कंपनियों द्वारा खरीद प्रथाओं में गंभीर खामियों को भी इंगित करता है।
  • वर्तमान प्रथाएँ अल्पकालिक रूप से संसाधन पर्याप्तता सुनिश्चित करने और चरम मांग की स्थिति में आपूर्ति सुनिश्चित करने पर केंद्रित हैं। लेकिन संसाधन पर्याप्तता किस प्रकार सुनिश्चित की जाती है, इस पर ध्यान देना भी आवश्यक है।
  • डिस्ट्रीब्यूशन कंपनियों को कम से कम लागत में आपूर्ति सुनिश्चित करने हेतु संसाधनों का समझदारीपूर्वक उपयोग करना चाहिये।
  • अतः विचार-विमर्श को केवल संसाधन पर्याप्तता पर केंद्रित रखने के बजाय संसाधन नियोजन (resource planning) की ओर स्थानांतरित करने की आवश्यकता है। संसाधनों संबंधी प्लानिंग सामान्यतः 10-20 वर्ष के लिये की जाती है।
  • दुर्भाग्यवश, संसाधन नियोजन भारतीय विद्युत सेक्टर के प्राथमिकताओं में शामिल नहीं है और न ही इसे कभी अधिक महत्त्व दिया जाता है।
  • डिस्ट्रीब्यूशन कंपनियों में अक्सर बिजली खरीद, नियोजन और विनियमन के लिये अलग-अलग सेल  होते हैं।
  • ये अंतर्संबंधित गतिविधियाँ हैं, लेकिन ऐसा प्रतीत होता है कि इस सेलों के बीच समन्वय सीमित है। 
  • इस कमजोर व्यवस्था के कारण लंबी अवधि के बिजली खरीद संबंधी उत्तरदायित्वों में स्पष्टता का अभाव आ जाता है।
  • संसाधन नियोजन त्रुटिपूर्ण प्रथाओं, लोड पूर्वानुमान की खराब गुणवत्ता और राज्य सरकारों द्वारा किये जाने वाले अत्यधिक हस्तक्षेप जैसे कई कारकों के कारण नकारात्मक रूप से प्रभावित होता है।
  • मौजूदा नियोजन प्रक्रिया में सबसे हैरान करने वाला पहलू किसी भी अनिश्चितता की स्थिति संबंधी विश्लेषण और जोखिम प्रबंधन हेतु उपायों की घोर कमी है। 
  • करोड़ों रूपये खर्च करने के बाद भी इस बारे में न सोचना, कि यदि भविष्य में सब कुछ अपेक्षानुसार घटित न हुआ तो क्या होगा, बेहद गैर-जिम्मेदाराना और अतार्किक प्रतीत होता है।

आगे की राह 

  • अतः स्पष्ट तौर पर, बिजली खरीद प्रथाओं में सुधार करने की तत्काल आवश्यकता है। अधिक उन्नत देशों को समान चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है और वहाँ सर्वोत्तम प्रथाओं के विकास से बहुत कुछ सीखा जा सकता है।
  • भारत में, प्रभावी संसाधन योजना का एक अतिरिक्त लाभ, बिजली आपूर्ति पर प्रति किलोवाट की लागत में कमी होगी।
  • अधिकांश डिस्कॉम वर्तमान में प्रभावी ढंग से संसाधनों के नियोजन में असमर्थ हैं, जिससे यह स्पष्ट हो जाता है कि ये आगामी अधिक चुनौतीपूर्ण भविष्य हेतु पूरी तरह तैयार नहीं हैं। इन्हें अपने संगठनात्मक ढाँचे में सुधार लाने होंगे।
  • बिजली नियामक आयोगों को ऐसे विनियम विकसित करने होंगे, जिनमें डिस्ट्रीब्यूशन कंपनियों को प्रभावी संसाधन योजनाओं के विकास के लिये उत्तरदायी बनाया जाए।
  • संसाधन नियोजन में नियामक कर्मचारियों को प्रशिक्षण देने की भी आवश्यकता है।
  • हालाँकि, इस बात के संकेत मिलने लगे हैं कि दीर्घकालिक बिजली खरीद प्रथाओं की खामियों को पहचाना जा रहा है।
  • नीति आयोग के तीन-वर्षीय एक्शन एजेंडा (2017-18 से 2019-20) में कहा गया है कि 2019-20 के बाद कोई भी क्षमता वृद्धि बिजली की मांग और परिचालन व्यवहार्यता के अनुसार निर्धारित की जानी चाहिये।
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