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डेली न्यूज़

अंतर्राष्ट्रीय संबंध

पश्तून क्षेत्र की भू-राजनीति

  • 30 May 2020
  • 6 min read

प्रीलिम्स के लिये:

पश्तून क्षेत्र

मेन्स के लिये:

तालिबान शांति समझौता

चर्चा में क्यों?

हाल ही में अफगानिस्तान में अमेरिकी विशेष दूत (US Special Envoy for Afghanistan) द्वारा भारत से तालिबान के साथ राजनीतिक वार्ता करने का आह्वान किया तथा तालिबान ने भी भारत के साथ संबंधों को बढ़ाने के संकेत दिये हैं।

प्रमुख बिंदु:

  • हाल के वर्षों में अफगानिस्तान में तालिबान के प्रभावी नियंत्रण वाले क्षेत्रों का विस्तार हुआ है। 
  • अमेरिका द्वारा अफगानिस्तान में अपनी सेनाओं में कमी करने की योजना की घोषणा तथा तालिबान के साथ शांति समझौते पर हस्ताक्षर करने के बाद, तालिबान की भूमिका में लगातार वृद्धि हुई है।
  • भारत को तालिबान से बातचीत के स्थान पर पश्तून क्षेत्र पर ध्यान देने की आवश्यकता है क्योंकि वर्तमान में उत्तर-पश्चिमी उपमहाद्वीप की भू-राजनीति को निर्धारित करने में यह प्रमुख भूमिका निभा सकता है।

भारत की क्या भूमिका हो?

  • तालिबान के साथ भारत के जुड़ाव के संबंध में दो स्पष्ट विचारधाराएँ देखने को मिल रही है। एक वे जो तालिबान से भारत के जुड़ाव का समर्थन करते हैं, उनका मानना है कि भारत को दिल्ली-अफगान राजनीति में इतनी महत्त्वपूर्ण ताकत को नजरअंदाज नहीं करना चाहिये। 
  • जबकि तालिबान से भारत के जुड़ाव का विरोध करने वालों का मानना है कि भारत को तालिबान से संबंध स्थापित कर अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में पड़ने की कोई आवश्यकता नहीं है।
  • इसलिये तालिबान के साथ एक संवाद स्थापित करना एक सामरिक मुद्दा है। जिसमें संवाद के जुड़ी अनेक शर्तों का ध्यान रखना होगा।

पश्तून के महत्त्व को निर्धारित करने वाले मुद्दे:

  • कई जातीय समूहों के बीच एकता का निर्माण करना
    • अफगानिस्तान में कई नृजातीय समूह हैं, अत: सभी के हितों का ध्यान रखना बहुत महत्त्वपूर्ण है।
    • अफगानिस्तान के बड़े अल्पसंख्यक समूहों में ताजिकों की (Tajiks) 27%, हज़ारा (Hazaras) 9% तथा उज़्बेकों (Uzbeks) की जनसंख्या 9% हैं।
    • अपनी नृजातीय भिन्नता के कारण काबुल विगत चार दशकों से आंतरिक असंतुलन का सामना कर रहा है। इस प्रकार यदि काबुल में तालिबान प्रमुख राजनीतिक भूमिका निभाता है तो यह समस्या और तीव्र हो सकती है।
  • तालिबान और अन्य अल्पसंख्यकों के बीच संबंध:
    • वर्ष 1990 के दशक के ‘पश्तून स्वायत क्षेत्र’ के गठन की मांग के दौरान तालिबान एक प्रमुख शक्ति था जिसने क्षेत्र के अन्य अल्पसंख्यक समुदायों का बहुत अधिक दमन किया। 
    • पश्तून क्षेत्र में तालिबान अभी तक अन्य अल्पसंख्यकों का विश्वास नहीं जीत पाया है।
  • अफगानिस्तान में पाकिस्तान की भूमिका:
    • पाकिस्तान की महत्त्वाकांक्षा के कारण अफ़गानिस्तान में आंतरिक संतुलन बनाने में बाधा आती है। पाकिस्तान, ब्रिटिश राज के समान अफगानिस्तान पर प्रभुत्त्व स्थापित करना चाहता है।
    • लेकिन वर्तमान में पाकिस्तानी सेना के लिये अफगानिस्तान में प्रभुत्व स्थापित करना आसान कार्य नहीं हैं।

पाकिस्तान में पश्तून अल्पसंख्यकों की स्थिति:

  • पश्तून की आबादी अफगानिस्तान में लगभग 15 मिलियन और पाकिस्तान में 35 मिलियन होने का अनुमान है।
  • पाकिस्तान में पश्तून अलगाववादी आंदोलन लंबे समय तक प्रमुख शक्ति के रूप में प्रभावी रहा है तथा पाकिस्तान में पश्तून का मुद्दा फिर से एक अलग रूप में सामने आ सकता है।
  • पाकिस्तान को इस बात का डर है कि तालिबान पश्तून राष्ट्रवाद को बढ़ावा दे सकता है तथा इससे उसके हित प्रभावित हो सकते हैं। 
  • यहाँ ध्यान देने योग्य तथ्य यह है कि काबुल डूरंड रेखा को इस शर्त पर मान्यता प्रदान करने को सहमत हुआ था कि पहले इस्लामाबाद को अपने सीमा-क्षेत्र में रह रहे पश्तून लोगों को स्वायत्ता प्रदान करनी होगी।

पश्तूनिस्तान में भारत की भूमिका:

  • भारत ने कूटनीतिक तरीके से बलूचिस्तान, पश्तूनिस्तान (Pashtunistan)  तथा पूर्वी पाकिस्तान की भू-राजनीति का उपयोग पाकिस्तान को चुनौती देने में करता आया है।
  • भारत डूरंड रेखा के चारों ओर एक सामरिक संतुलन को बनाकर क्षेत्र में शांति-व्यवस्था को स्थापित करना चाहता है।

निष्कर्ष:

  • अफगानिस्तान सीमाओं पर पाकिस्तान द्वारा व्यापक सैन्य और राजनीतिक निवेश के बावजूद पाकिस्तान की पश्चिमी सीमाओं पर सुरक्षा चुनौतियों का समाधान नहीं हो पाया है। यदि अफगानिस्तान-पाकिस्तान के ‘पश्तून आंदोलन’ फिर से प्रभावी होता है तो इससे भारत के हित भी प्रभावित हो सकते हैं। 

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस 

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