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डेली न्यूज़

आंतरिक सुरक्षा

सार्वजनिक संपत्तियों का विनाश तथा संबंधित कानून

  • 17 Dec 2019
  • 8 min read

प्रीलिम्स के लिये:

लोक संपत्ति नुकसान निवारण अधिनियम, 1984

मेन्स के लिये:

लोक संपत्तियों के विनाश से संबंधित विभिन्न मुद्दे तथा कानून

चर्चा में क्यों?

सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश एस.ए. बोबडे ने नागरिकता संशोधन अधिनियम को लेकर हो रहे विरोध प्रदर्शन के दौरान प्रदर्शनकारियों द्वारा दंगा और सार्वजनिक संपत्ति को नष्ट करने पर नाराज़गी व्यक्त की।

मुख्य बिंदु:

  • जामिया मिलिया इस्लामिया और अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में छात्रों पर कथित पुलिस ज़्यादती संबंधी याचिकाओं पर सुनवाई के लिये सहमत होते हुए भारत के मुख्य न्यायाधीश एस.ए. बोबडे की अध्यक्षता वाली सर्वोच्च न्यायालय की बेंच ने प्रदर्शनकारियों द्वारा दंगा और सार्वजनिक संपत्ति को नष्ट करने पर नाराज़गी व्यक्त की।
  • सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि प्रदर्शनकारी सड़कों पर उतरने के लिये स्वतंत्र हैं परंतु यदि वे सार्वजनिक संपत्तियों को नुकसान पहुँचाते हैं तो उनकी बात न्यायालय द्वारा नहीं सुनी जाएगी।
  • सार्वजनिक संपत्ति के विनाश के खिलाफ कानून के बावजूद देश भर में विरोध प्रदर्शनों के दौरान दंगा, बर्बरता और आगज़नी की घटनाएँ आम हैं।

सार्वजनिक संपत्तियों के सरक्षण के लिये कानून:

  • लोक संपत्ति नुकसान निवारण अधिनियम, 1984:
    • इस अधिनियम के अनुसार, अगर कोई व्यक्ति किसी भी सार्वजनिक संपत्ति को दुर्भावनापूर्ण कृत्य द्वारा नुकसान पहुँचाता है तो उसे पाँच साल तक की जेल अथवा जुर्माना या दोनों सज़ा से दंडित किया जा सकता है।
    • इस अधिनियम के अनुसार लोक संपत्तियों में निम्नलिखित को शामिल किया गया है-
      • कोई ऐसा भवन या संपत्ति जिसका प्रयोग जल, प्रकाश, शक्ति या उर्जा के उत्पादन और वितरण किया जाता है।
      • तेल संबंधी प्रतिष्ठान
      • खान या कारखाना
      • सीवेज संबंधी कार्यस्थल
      • लोक परिवहन या दूर-संचार का कोई साधन या इस संबंध में उपयोग किया जाने वाला कोई भवन, प्रतिष्ठान और संपत्ति।
  • हालाँकि सर्वोच्च न्यायालय ने पहले कई अवसरों पर इस कानून को अपर्याप्त बताया है और दिशा-निर्देशों के माध्यम से अंतराल को भरने का प्रयास किया है।
  • वर्ष 2007 में सार्वजनिक और निजी संपत्तियों के बढे पैमाने पर विनाश के कारण सर्वोच्च न्यायालय ने स्वतः संज्ञान लेते हुए पूर्व न्यायाधीश के.टी. थॉमस और वरिष्ठ अधिवक्ता फली नरीमन की अध्यक्षता में दो समितियों का गठन किया ताकि कानून में बदलाव के लिये सुझाव प्राप्त किये जा सकें।

सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिये गए दिशा-निर्देश:

  • वर्ष 2009 में ‘डिस्ट्रक्शन ऑफ पब्लिक एंड प्राइवेट प्रॉपर्टीज़ Vs स्टेट ऑफ आंध्र प्रदेश एंड अदर्स (Destruction of Public & Private Properties v State of AP and Others) के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने दोनों समितियों की सिफारिशों के आधार पर निम्नलिखित दिशा-निर्देश जारी किये-
    • के.टी. थॉमस समिति ने सार्वजनिक संपत्ति के विनाश से जुड़े मामलों में आरोप सिद्ध करने की ज़िम्मेदारी की स्थिति को बदलने की सिफारिश की।
    • सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि सामान्यतः अभियोजन को यह साबित करना होता है कि किसी संगठन द्वारा की गई प्रत्यक्ष कार्रवाई में सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान पहुँचा है और आरोपी ने भी ऐसी प्रत्यक्ष कार्रवाई में भाग लिया। परंतु सर्वोच्च न्यायालय ने सार्वजनिक संपत्ति से जुड़े मामलों में कहा कि आरोपी को ही स्वंय को बेगुनाह साबित करने की ज़िम्मेदारी दी जा सकती है।
    • सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि न्यायालय को यह अनुमान लगाने का अधिकार देने के लिये कानून में संशोधन किया जाना चाहिये कि अभियुक्त सार्वजनिक संपत्ति को नष्ट करने का दोषी है।
    • सामान्यतः कानून यह मानता है कि अभियुक्त तब तक निर्दोष है जब तक कि अभियोजन पक्ष इसे साबित नहीं करता।
    • नरीमन समिति की सिफारशें सार्वजनिक संपत्ति के विनाश की क्षतिपूर्ति से संबंधित थीं।
    • सिफारिशों को स्वीकार करते हुए न्यायालय ने कहा कि प्रदर्शनकारियों से सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान पहुँचाने का आरोप तय करते हुए संपत्ति में आई विकृति में सुधार करने के लिये क्षतिपूर्ति शुल्क लिया जाएगा।
    • सर्वोच्च न्यायालय ने उच्च न्यायालयों को भी ऐसे मामलों में स्वतः संज्ञान लेने के दिशा-निर्देश जारी किये तथा सार्वजनिक संपत्ति के विनाश के कारणों को जानने तथा क्षतिपूर्ति की जाँच के लिये एक तंत्र की स्थापना करने के लिये कहा।

सर्वोच्च न्यायालय के दिशा-निर्देशों का प्रभाव:

  • सार्वजनिक संपत्ति के विनाश से जुड़े कानून की तरह सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिये गए दिशा-निर्देशों का भी सीमित प्रभाव दिखा है क्योंकि प्रदर्शनकारियों की पहचान करना अभी भी मुश्किल है, विशेषतः उन मामलों में जब किसी नेता द्वारा प्रत्यक्ष रूप से विरोध-प्रदर्शन का आह्वान नहीं किया जाता है।
  • वर्ष 2015 में पाटीदार आंदोलन के बाद हार्दिक पटेल पर हिंसा भड़काने के लिये राजद्रोह का आरोप लगाया गया था। सर्वोच्च न्यायालय में यह तर्क दिया गया कि चूँकि न्यायालय के पास हिंसा भड़काने से संबंधित कोई सबूत नहीं है इसलिये उसे संपत्ति के नुकसान के लिये उत्तरदायी नहीं ठहराया जा सकता।
  • वर्ष 2017 में एक याचिकाकर्त्ता ने दावा किया था कि उसे एक निरंतर आंदोलन के कारण सड़क पर 12 घंटे से अधिक समय बिताने के लिये मजबूर किया गया था। कोशी जैकब बनाम भारत संघ नामक इस मामले के फैसले में न्यायालय ने पुनः कहा कि कानून को अद्यतन करने की आवश्यकता है परंतु याचिकाकर्त्ता को कोई मुआवज़ा नहीं दिया गया क्योंकि विरोध-प्रदर्शन करने वाले न्यायालय के सामने उपस्थित नहीं थे।

स्रोत- इंडियन एक्सप्रेस

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