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अंतर्राष्ट्रीय संबंध

शेल कंपनियों से संबद्ध मुद्दे

  • 18 Sep 2017
  • 7 min read

चर्चा में क्यों?

ऑपरेशन क्लीन मनी (Operation Clean Money)  के तहत केंद्र सरकार द्वारा तकरीबन दो लाख से अधिक शेल कंपनियों के खिलाफ कार्रवाई शुरू की गई है। केंद्र के अलावा सेबी (Securities and Exchange Board of India  -SEBI) द्वारा भी  331 शेल कंपनियों की पहचान करके उनके खिलाफ कार्रवाई शुरू की गई है। बार-बार चर्चा में आने वाली ये शेल कंपनियाँ क्या होती हैं? अथवा ये किस प्रकार अर्थव्यवस्था को प्रभावित करती हैं तथा इनके संबंध में किस प्रकार कार्रवाई की जा सकती है? आदि इन सभी मुद्दों के संबंध में आज हम इस लेख में चर्चा करेंगे। 

शेल कंपनियाँ क्या होती हैं?

  • कंपनी अधिनियम, 2013 के अंतर्गत यह परिभाषित नहीं किया गया है कि एक 'शेल कंपनी' क्या होती है ? अथवा किस प्रकार की गतिविधियों के कारण किसी कंपनी को शेल कंपनी कहा जाना चाहिये। 
  • आमतौर पर शेल कंपनियाँ ऐसी कॉरपोरेट संस्थाएँ होती हैं, जिनके पास उनका अपना न तो कोई सक्रिय व्यवसाय ही होता है और न ही उनके पास कोई महत्त्वपूर्ण संपत्ति ही होती है। 
  • यही कारण है कि इस प्रकार की कंपनियाँ सदैव संदेह के दायरे में रहती हैं, क्योंकि इनमें से कुछ कंपनियों का या तो मनी लॉन्डरिंग अथवा कर चोरी एवं अन्य अवैध गतिविधियों के लिये इस्तेमाल किया जा सकता है।

क्या शेल कंपनियों के संबंध में कोई कानून है?

  • वर्तमान में भारत में शेल कंपनियों से संबंधित कोई विशिष्ट कानून मौजूद नहीं है। हालाँकि, कुछ ऐसे कानून अवश्य मौजूद हैं जिनके तहत मनी लॉन्डरिंग जैसी अवैध गतिविधियों को रोकने में कुछ हद तक मदद मिलती है।

→ उदाहरण के तौर पर - बेनामी लेन-देन (निषेध) संशोधन अधिनियम [Benami Transaction (Prohibition) Amendment Act] 2016
→ धन शोधन निवारण अधिनियम (The Prevention of Money Laundering Act) 2002
→ कंपनी अधिनियम, (The Companies Act 2013) की रोकथाम।

  • इन सभी कानूनों का इस्तेमाल अप्रत्यक्ष रूप से शेल कंपनियों को लक्षित करने के लिये किया जा सकता है।

क्या रिकॉर्ड्स के आधार पर किसी शेल कंपनी को बंद करना आसान है?

किसी भी कंपनी को कॉर्पोरेट मामलों के मंत्रालय द्वारा दो माध्यमों से हटाया जा सकता है: 

→ आर.ओ.सी. strike off by Registrar of Companies (RoC) – [कंपनी अधिनियम, 2013 की धारा 248 (1)]।
→ स्वैच्छिक हड़ताल बंद – [कंपनी अधिनियम, 2013 की धारा 248 (2)]।

  • इसके अलावा बोर्ड और शेयरधारकों के अनुमोदन से कंपनियों को स्वैच्छिक रूप से भी बंद किया जा सकता है, परंतु इसमें शर्त यह है कि ऐसी स्थिति में कंपनी के पास शून्य देनदारियाँ होनी चाहिये।

किन परिदृश्यों के कारण आर.ओ.सी. के तहत किसी कंपनी को कंपनी अधिनियम की सूची से हटाया अथवा बंद किया जा सकता है?

यदि कोई कंपनी एक साल के निगमन के भीतर कारोबार शुरू करने में नाकाम रहती है तो उसके नाम को कंपनी अधिनियम से हटाया जा सकता है। 

  • साथ ही, ऐसी कंपनियाँ जिन्होंने लगातार दो वित्तीय वर्षों तक किसी भी व्यवसाय या आर्थिक गतिविधि में भाग नहीं लिया है तथा कंपनी अधिनियम की धारा 455 के तहत 'निष्क्रिय कंपनी'  (dormant company) की स्थिति प्राप्त करने के लिये इस अवधि के भीतर कोई आवेदन भी नहीं किया है। 
  • ऐसी स्थिति में आर.ओ.सी. द्वारा ऐसी कंपनियों और उनके निदेशकों को कारण बताओ नोटिस जारी किया जाता है।
  • निदेशकों द्वारा इस नोटिस के संबंध में 30 दिनों के भीतर अपनी प्रतिक्रिया देनी होती है। यदि यह प्रतिक्रिया संतोषजनक नहीं होती है, तो उक्त कंपनी के नाम को कंपनी अधिनियम के रजिस्टर से हटा दिया जाता है।

एक निष्क्रिय कंपनी क्या होती है?

कंपनी अधिनियम, 2013 की धारा 455 के अनुसार, ऐसी कंपनी जिसमें कोई महत्त्वपूर्ण वित्तीय गतिविधि नहीं हो रही है अथवा वह निष्क्रिय हो चुकी है, वह आर.ओ.सी. के लिये आवेदन कर सकती है तथा निष्क्रिय कंपनी की स्थिति को प्राप्त कर सकती है।

किसी निष्क्रिय कंपनी और शेल कंपनी के बीच क्या अंतर होता है?

  • किसी कंपनी को निष्क्रिय कंपनी का दर्ज़ा केवल दो तरीकों से ही मिल सकता है- पहला, यदि इसे एक आवेदन के माध्यम से आर.ओ.सी. से 'निष्क्रिय' स्थिति प्राप्त करने के लिये चुना गया हो और दूसरा, यह धारा 455 में वर्णित सभी आवश्यकताओं को पूरा करती हो ।
  • इसके अलावा, अगर किसी कंपनी द्वारा दो वित्तीय वर्षों के लिये अपना वित्तीय विवरण या वार्षिक रिटर्न दाखिल नहीं किया गया है, तो आर.ओ.सी. द्वारा उक्त कंपनी को नोटिस जारी किया जाएगा तथा कंपनी को 'निष्क्रिय' कंपनी की सूची में डाल दिया जाएगा।
  • परंतु, एक शेल कंपनी वह होती है जिसे आम तौर पर उसकी गैरकानूनी गतिविधियों के चलते संदेह के दायरे में लाया जाता है।

ऊपर वर्णित 2 लाख कंपनियों द्वारा किस प्रकार के परिणामों का सामना किया जाएगा?

इन कंपनियों को अपनी संबंधित परिस्थितियों के संबंध में राष्ट्रीय कंपनी कानून ट्रिब्यूनल (National Company Law Tribunal - NCLT) के समक्ष अपना पक्ष रखते हुए सबसे पहले एक आवेदन करना होगा। तत्पश्चात् एन.सी.एल.टी. द्वारा केस-टू-केस आधार पर इन आवेदनों के संबंध में फैसला लिया जाएगा।

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