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  • 08 Jun, 2020
  • 15 min read
अंतर्राष्ट्रीय संबंध

फारस की खाड़ी: पश्चिम एशिया में रणनीतिक महत्त्व का केंद्र

इस Editorial में The Hindu, The Indian Express, Business Line आदि में प्रकाशित लेखों का विश्लेषण किया गया है। इस लेख में फारस की खाड़ी में स्थित देश व उससे संबंधित विभिन्न पहलुओं पर चर्चा की गई है। आवश्यकतानुसार, यथास्थान टीम दृष्टि के इनपुट भी शामिल किये गए हैं।

संदर्भ 

फारस की खाड़ी, पश्चिम एशिया में हिंद महासागर का एक विस्तार है, जो ईरान और अरब प्रायद्वीप के बीच फैला हुआ है। संयुक्त राष्ट्र इस जल स्रोत को फारस की खाड़ी (Persian Gulf) के रूप में परिभाषित करता है। इस जल स्रोत के चारों ओर की भूमि को आठ खाड़ी देशों यथा- बहरीन, ईरान, इराक, कुवैत, ओमान, कतर, सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात के द्वारा संयुक्त रूप से साझा किया जाता है। इन खाड़ी देशों का कच्चे तेल और प्राकृतिक गैस के प्रमुख उत्पादक होने के कारण उनके बीच आर्थिक हितों की  समानता भी है, और इस तरह खाड़ी देश वैश्विक अर्थव्यवस्था की वृद्धि में महत्त्वपूर्ण योगदान देते हैं। फारस की खाड़ी के कारण इस क्षेत्र का भू-राजनीतिक महत्व बढ़ जाता है।

इस क्षेत्र में शक्ति के दो केंद्र हैं। जहाँ एक ओर शिया मुस्लिम बाहुल्य ईरान है तो वहीं दूसरी ओर सुन्नी मुस्लिम बाहुल्य सऊदी अरब है। पश्चिम एशिया में अपना वर्चस्व बनाए रखने के लिये दोनों शक्तियाँ कई बार एक-दूसरे के आमने-सामने आ चुकी हैं। इतना ही नहीं फारस की खाड़ी में तैनात युद्धपोतों और मालवाहक पोतों पर संयुक्त राज्य अमेरिका व ईरान द्वारा एक-दूसरे पर हमला करने की धमकी से इस क्षेत्र में तनाव बढ़ने की आशंका व्यक्त की जा रही है। ऐसी स्थिति में शांति बहाल करने हेतु इस क्षेत्र में सामूहिक सुरक्षा की नीति को अपनाने पर बल दिया जा रहा है, जिसमें खाड़ी सहयोग परिषद की प्रमुख भूमिका से इनकार नहीं किया जा सकता है

पृठभूमि 

  • वर्ष 1970 से आठ दशक पूर्व तक इस जल स्रोत का नियंत्रण और पर्यवेक्षण ब्रिटिश शासन के द्वारा किया जाता था। उस दौरान इस क्षेत्र में किसी भी प्रकार की आपसी प्रतिस्पर्धा कम ही देखने को मिलती थी। 

Persian-Gulf

  • 1970 के दशक के अंतिम दौर में इस क्षेत्र में तेल के भंडार पाए जाने के बाद कई क्षेत्रीय शक्तियाँ उभरने लगी और यह क्षेत्र आपसी प्रतिस्पर्धा का अखाड़ा बन गया। 
  • इस क्षेत्र में सऊदी अरब व ईरान के बीच चल रहे तनाव के कारण वर्ष 1975 में निक्सन और कार्टर डॉक्ट्रिन (The Nixon and the Carter Doctrines) के द्वारा एक सामूहिक सुरक्षा नीति का प्रस्ताव रखा गया, परंतु इस प्रस्ताव को इराक की बाथ पार्टी (Baath Party) के द्वारा निरस्त कर दिया गया। 
  • ईरान-इराक युद्ध के बाद शांति स्थापित करने के लिये संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद (United Nation Security Council) ने वर्ष 1987 में प्रस्ताव 598 के द्वारा इस क्षेत्र में शांति और स्थायित्व स्थापित करने का प्रयास किया। 

सऊदी अरब और ईरान की स्थिति

  • ऐसा ही एक क्षेत्रीय संघर्ष सऊदी अरब और ईरान के बीच चल रहा है। वर्ष 1979 की ईरानी क्रांति के समय से ही शिया प्रभुत्व वाले ईरान तथा सुन्नी प्रभुत्व वाले सऊदी अरब में एक दूसरे के प्रति शत्रुता की स्थिति बनी हुई है। 
  • पिछले चार दशकों में इन दोनों देशों के बीच तनाव में लगातार वृद्धि ही हुई है। इन दोनों देशों के सहयोगी राष्ट्रों का विशिष्ट समूह है और इन राष्ट्रों के एक दूसरे के साथ प्रतिकूल संबंध भी हैं। इसके कारण पश्चिम एशिया की भू-राजनीति काफी अस्थिर है। 
  • भारत के लिये अच्छी बात यह है कि वह इस क्षेत्र में एक ‘निष्क्रिय खिलाड़ी’ बनकर दोनों देशों के साथ अच्छे संबंध बनाए रखने में सक्षम रहा है। ऐसा इसलिये है क्योंकि खुले तौर पर किसी एक देश का पक्ष लेना इसके राष्ट्रीय हित के लिये बेहद हानिकारक होगा।     

तेल पर केंद्रित पश्चिम एशिया का भूगोल

  • अकूत तेल के भंडार मिलने के बाद पिछली एक सदी से पश्चिम एशिया का भूगोल, राजनीति, सुरक्षा और स्थिरता तेल पर ही केंद्रित रही है। तेल के मुद्दे पर ही राष्ट्रों का निर्माण हुआ, सत्ता परिवर्तन हुए और युद्ध लड़े गए।
  • प्रथम विश्व युद्ध से लेकर द्वितीय खाड़ी युद्ध तक का इतिहास पश्चिमी शक्तियों द्वारा पश्चिम एशिया क्षेत्र में तेल तक पहुँच को सुरक्षित रखने पर ही केंद्रित रहा है।
  • पिछले एक दशक में जब से ऊर्जा के मामले में अमेरिका की आत्मनिर्भरता बढ़ी है, तब से अमेरिकी नीति केवल तेल की आपूर्ति सुनिश्चित करने के बजाय आपूर्ति के स्रोत पर नियंत्रण की दिशा में काम करने लगी है।
  • पश्चिम एशिया क्षेत्र में फिर से उत्पन्न तनाव ईरान-प्रायोजित आतंकवाद पर केंद्रित नहीं है, बल्कि इसका मंतव्य ईरान द्वारा उत्पादित तेल पर नियंत्रण करना है।

तेल के मामले में अमेरिका की आत्मनिर्भरता

  • ऊर्जा बाज़ार में संरचनात्मक परिवर्तन ने विशेष रूप से आयातित तेल पर अमेरिकी निर्भरता और सामान्य रूप से हाइड्रोकार्बन पर पश्चिमी निर्भरता में कमी की है।
  • ट्रांस-अटलांटिक देश (विशेष रूप से अमेरिका) अब खाड़ी के तेल पर निर्भर नहीं रह गए हैं।
  • दूसरी तरफ, चीन, जापान, दक्षिण कोरिया और भारत सहित अन्य एशियाई अर्थव्यवस्थाएँ अब भी खाड़ी के तेल उत्पादन पर ही निर्भर हैं।
  • खाड़ी देशों में अशांति व अस्थिरता अमेरिका की तेल कंपनियों के लाभदायक स्थिति प्रदान करता है। 
  • जहाँ तक भारत का प्रश्न है, तो आयातित तेल पर हमारी निर्भरता में पिछले दशक से काफी वृद्धि हुई है और अब घरेलू खपत का लगभग 90% से अधिक कच्चा तेल भारत आयात करता है।
  • ऐसे में तेल और गैस की आपूर्ति करने वाले विश्व के सबसे बड़े क्षेत्र को अस्थिर कर अमेरिका एशियाई आर्थिक विकास की राह में हर तरह की बाधा उत्पन्न कर रहा है ताकि ‘राइजिंग एशिया’ को असंतुलित कर सके।

क्या है खाड़ी सहयोग परिषद?

  • खाड़ी सहयोग परिषद अरब प्रायद्वीप में छह देशों का एक राजनीतिक और आर्थिक गठबंधन है जिसमें बहरीन, कुवैत, ओमान, कतर, सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात शामिल हैं।
  • वर्ष 1981 में स्थापित, GCC छह देशों के बीच आर्थिक, सुरक्षा, सांस्कृतिक और सामाजिक सहयोग को बढ़ावा देता है और सहयोग तथा क्षेत्रीय मामलों पर चर्चा करने के लिये प्रत्येक वर्ष एक शिखर सम्मेलन आयोजित करता है।
  • खाड़ी सहयोग परिषद का मुख्यालय रियाद, सऊदी अरब में स्थित है।
  • खाड़ी सहयोग परिषद के कार्य संचालन की भाषा ‘अरबी’ है।
  • वर्ष 2019 में खाड़ी सहयोग परिषद का 40वाँ शिखर सम्मेलन संयुक्त अरब अमीरात में आयोजित किया गया था।

खाड़ी देशों की चुनौतियाँ

  • वैश्विक लॉकडाउन के कारण हाइड्रोकार्बन की खपत में कमी आ गई है।
  • गोल्डमैन सैक्स की रिपोर्ट के अनुसार, लॉकडाउन के बाद कच्चे तेल के उपभोग में प्रतिदिन 28 मिलियन बैरल की गिरावट दर्ज़ की गई है।
  • कच्चे तेल की मांग में अत्यधिक गिरावट के कारण उत्पादन कम करने को लेकर तेल उत्पादक देशों के संगठन और रूस के मध्य हो रही वार्ता विफल हो गई, परिणामस्वरूप मांग में कमी व उत्पादन जस का तस बना रहने के कारण कच्चे तेल के मूल्य में अप्रत्याशित गिरावट हुई।
  • तेल उत्पादक देशों के संगठन और अंतर्राष्ट्रीय उर्जा एजेंसी के आकलन के अनुसार, वर्ष 2020 में दूरगामी आर्थिक और सामाजिक परिणामों के साथ विकासशील देशों के तेल और गैस राजस्व में 50 प्रतिशत से 85 प्रतिशत की गिरावट आएगी।
  • वर्ष 2020 में सऊदी अरब का राजकोषीय घाटा 8 प्रतिशत से अधिक हो जाने की संभावना है।
  • वैश्विक महामारी COVID-19 से ईरान व्यापक तौर पर प्रभावित हुआ है। अंतर्राष्ट्रीय प्रतिबंधों के कारण ईरान अंतर्राष्ट्रीय संगठनों से सहायता भी नहीं प्राप्त कर पा रहा है। 

सामूहिक सुरक्षा नीति में GCC की भूमिका

  • GCC सदस्य देशों के बीच आर्थिक, सुरक्षा, सांस्कृतिक और सामाजिक सहयोग को बढ़ावा देता है, यदि यह संगठन ईरान के साथ वार्ता करने की पहल करता है तो निश्चित रूप से सकारात्मक परिणामों की उम्मीद की जा सकती है।
  • वैश्विक महामारी COVID-19 के परिणामस्वरूप सभी खाड़ी देशों में पेट्रोलियम का उत्पादन नकारात्मक रूप से प्रभावित हुआ है। चूँकि तेल निर्यातक देशों के संगठन-ओपेक में GCC के सदस्यों के अतिरिक्त ईरान भी शामिल है अतः सामूहिक लाभ को प्राप्त करने हेतु सभी खाड़ी देशों को एक मंच पर लाया जा सकता है उन्हें इस बात पर सहमत किया जा सकता है कि सामूहिक लाभ को प्राप्त करने के लिये फारस की खाड़ी को स्पर्श करने वाले सभे देशों को सामूहिक सुरक्षा नीति पर मिलकर कार्य करना होगा। 

भारत के लिये खाड़ी देशों का महत्त्व

  • वित्तीय वर्ष 2018-19 में भारत और खाड़ी देशों के बीच लगभग 162 बिलियन अमेरिकी डॉलर का व्यापार हुआ है। यह एक वर्ष में भारत के द्वारा पूरे विश्व के साथ किये जाने वाले व्यापार का 20 प्रतिशत है।
  • लगभग 75 बिलियन अमेरिकी डॉलर मूल्य का पेट्रोलियम व प्राकृतिक गैस खाड़ी देशों से आयात  की जाती है। 
  • खाड़ी देशों में रहने वाले प्रवासी भारतीय लगभग 40 बिलियन डॉलर की धनराशि भी प्रेषण के माध्यम से भारत भेजते हैं।
  • सऊदी अरब भारत को हाइड्रोकार्बन आपूर्ति करने वाला इस क्षेत्र का सबसे प्रमुख देश है।
  • खाड़ी क्षेत्र हमारी विकास की अहम जरूरतों जैसे ऊर्जा संसाधन, कॉर्पोरेट क्षेत्र के लिये निवेश के मौके और लाखों लोगों को नौकरी के भरपूर अवसर देता है।
  • जहाँ ईरान हमें अफगानिस्तान, मध्य एशिया और यूरोप तक पहुँचने का रास्ता उपलब्ध कराता है, तो वहीँ ओमान हमें पश्चिम हिंद महासागर तक पहुँचने की राह दिखाता है।

आगे की राह

  • भारत को खाड़ी देशों की सामूहिक सुरक्षा नीति का समर्थन करना चाहिये क्योंकि खाड़ी देशों में शांति व स्थायित्व निश्चित रूप से भारत के लिये लाभकारी साबित होगा। 
  • भारत को खाड़ी देशों के साथ तालमेल के लिये नए चालकों को खोजने की आवश्यकता है। यह खोज स्वास्थ्य सेवा में सहयोग के साथ शुरू हो सकती है और धीरे-धीरे दवा अनुसंधान और उत्पादन, पेट्रोकेमिकल, भारत में बुनियादी ढाँचे के निर्माण और तीसरे देशों में कृषि, शिक्षा और कौशल के साथ-साथ अरब सागर में निर्मित द्विपक्षीय मुक्त क्षेत्रों में आर्थिक गतिविधियों की ओर बढ़ सकती है। 
  • खाड़ी क्षेत्र में अमेरिका के हस्तक्षेप को रोकने के लिये आवश्यक है कि खाड़ी देशों को सामूहिक सुरक्षा की नीति पर गंभीरतापूर्वक विचार करना चाहिये।

प्रश्न- खाड़ी सहयोग परिषद क्या है? खाड़ी क्षेत्र में शांति व स्थायित्व के लिये सामूहिक सुरक्षा नीति के निर्माण में खाड़ी सहयोग परिषद की भूमिका का उल्लेख करते हुए भारत के लिये खाड़ी देशों के महत्त्व पर प्रकाश डालिये।    


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