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मौत की सज़ा पर बहस

  • 19 Feb 2019
  • 7 min read

संदर्भ

सुप्रीम कोर्ट ने मृत्युदंड की संवैधानिक वैधता को बरक़रार रखा है। क्या कानून में मृत्यदंड ने गंभीर अपराध के लिये निवारक के रूप में कार्य किया है? कुछ समय पूर्व सुप्रीम कोर्ट की एक खंडपीठ ने इस बारे में अपने विचार व्यक्त किये थे। जहाँ एक तरफ तत्कालीन न्यायमूर्ति कुरियन जोसेफ़ ने मृत्युदंड को समाप्त करने के पक्ष में अपना मत दिया, तो वहीं दूसरी तरफ दो अन्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति दीपक गुप्ता तथा न्यायमूर्ति हेमंत गुप्ता ने दुर्लभ से दुर्लभतम मामलों (Rarest of Rare Cases) में मृत्युदंड दिये जाने के पक्ष में अपना मत प्रकट किया था।

  • गौरतलब है कि कुछ इसी तरह का विवाद 1973 में देखा गया था जब मृत्युदंड को असंवैधानिक बताते हुए इसे जगमोहन सिंह बनाम उत्तर प्रदेश राज्य प्रकरण में चुनौती दी गई थी। इसमें बचाव पक्ष की ओर से कहा गया था कि मौत की सज़ा संविधान के अनुच्छेद 14, 19 और 21 में दिये गए मौलिक अधिकारों का उल्लंघन है।

अनुच्छेद 14 में विधि के समक्ष समानता और विधि के समान संरक्षण का प्रावधान है, तो अनुच्छेद 19 में छह स्वतंत्रताओं का जिक्र है। वहीं अनुच्छेद 21 में लोगों को जीवन का अधिकार और वैयक्तिक स्वतंत्रता दी गई है; इसे तभी छीना जा सकता है, जब विधि की स्थापित प्रक्रिया से इसे हटाया जाए। जबकि इस अनुच्छेद के दूसरे भाग को देखने से प्रतीत होता है कि कानून की प्रक्रिया का पालन करते हुए विशेष परिस्थितियों में जीवन का अधिकार समाप्त किया जा सकता है।

भारत में मृत्युदंड असंवैधानिक नहीं है

  • चूँकि कानून की प्रक्रिया में कहीं यह उल्लेख नहीं किया गया है कि किन परिस्थितियों में आजीवन कारावास की सज़ा दी जाएगी और किन परिस्थितियों में मौत की सज़ा सुनाई जाएगी। इस आधार पर बचाव पक्ष ने मृत्युदंड को अनुच्छेद 21 का उल्लंघन कहा था। बचाव पक्ष ने अपना पक्ष मज़बूत करने के लिये अमेरिका के फुरमैन और जॉर्जिया केस का भी हवाला दिया था, जिसमें मृत्युदंड को संविधान का उल्लंघन और क्रूर सज़ा कहा गया था। हालाँकि जगमोहन केस में सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट कर दिया कि मृत्युदंड भारत में असंवैधानिक नहीं है और इस सज़ा की अनुमति है।
  • ध्यातव्य है कि सज़ा का एक मापदंड तय कर पाना आपराधिक कानून में संभव नहीं है। इसलिये न्यायाधीशों को विवेकाधिकार दिये गए हैं, जिसके द्वारा वे सज़ा तय कर सकते हैं। सर्वोच्च न्यायालय यह देखता है कि विवेकाधिकार का सही प्रयोग किया गया है या नहीं। न्यायालय सभी परिस्थितियों और कृत्यों को देखकर ही फैसला देता है। यह मनमर्जी से फैसला नहीं लेता है।

इन्हीं सब परिस्थितियों को देखकर यह जानना आवश्यक है कि आखिर यह मृत्युदंड है क्या, इसको दिये जाने के क्या आधार हैं, इत्यादि। मृत्युदंड पर जस्टिस जोसेफ के मत पर बात करने से पहले इस गंभीर विषय को समझ लेना बेहतर होगा।

मृत्युदंड क्या है और किन परिस्थितियों में दिया जाता है?

  • मृत्युदंड को कुछ और नामों से भी जानते हैं जैसे Capital Punishment या Death Penalty, किसी व्यक्ति को कानूनी तौर पर न्यायिक प्रक्रिया के तहत किसी अपराध के परिणाम में प्राणांत का दंड ही मृत्युदंड है। सरल रूप में कहें तो किसी गंभीर अपराध के लिये दोषसिद्ध व्यक्ति को मौत की सज़ा देना ही मृत्युदंड कहलाता है।
  • भारत में यह सज़ा दुर्लभ से दुर्लभतम मामलों में ही दी जाती है।

ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य

  • भारत में मृत्युदंड देने के हालिया इतिहास पर नज़र दौड़ाएँ तो 1814 में आठ, नौ और ग्यारह वर्ष की आयु के तीन लड़कों को फाँसी दी गई थी। ब्रिटिश भारत में स्वतंत्रता सेनानियों को फाँसी देना तो मानो रस्म ही बन गया था।
  • थोड़ा और पीछे चलें तो मुग़ल काल में भी दंडित अपराधियों को मृत्युदंड देने के लिये बर्बर तरीके प्रयोग में लाए जाते थे। परंतु, आज ऐसे बहुत कम अपराध हैं जिनके लिये मृत्युदंड दिया जाता है।
  • ऐसे अपराधों की श्रेणी में शामिल हैं: हत्या, हत्या के साथ डकैती, राज्य के विरुद्ध सशस्त्र विद्रोह, एक निर्दोष को फाँसी तक पहुँचाने में झूठी गवाही, अल्प वयस्क या मानसिक रूप से विक्षिप्त व्यक्ति को आत्महत्या के लिये उकसाना, दूसरे देश को अपने देश के भेद देना, सती कार्य में सहयोग अथवा उकसाना, मादक पदार्थों की तस्करी के अपराध को दोहराना तथा बलात्कार की घटना जिसमें महिला को ऐसी पीड़ा पहुँचे जिसके परिणामस्वरूप उसकी मौत हो जाए अथवा वह अपनी शारीरिक तथा मानसिक अवस्था खो दे अथवा इस तरह के अपराध की पुनरावृत्ति।

हमारे देश में मृत्युदंड की चार विशेषताएँ कौन-सी हैं?

  1. मृत्युदंड केवल कुछ चयनित अपराधों के लिये दिया जायगा।
  2. सार्वजनिक रूप से फाँसी बिल्कुल समाप्त कर दी गई है।
  3. मृत्युदंड देने के लिये कष्टदायक तरीके नहीं अपनाए जाते।
  4. मृत्युदंड केवल शासन सत्ता द्वारा दिया जाता है।
  5. भारतीय दंड संहिता के साथ-साथ भारतीय संसद द्वारा कानूनों की नई श्रृंखला अधिनियमित की गई जिनमें मौत की सज़ा का प्रावधान है।

किन्हें मृत्युदंड से मुक्त रखा गया हैं?

  1. 15 वर्ष से कम आयु के बच्चे
  2. गर्भवती महिलाएँ
  3. मानसिक रूप से विक्षिप्त लोग
  4. 70 वर्ष से अधिक उम्र के
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