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धर्म और नैतिकता

  • 13 Oct 2018
  • 10 min read

एक तरफ लगभग सभी धर्म अपने अनुयायियों के लिये एक आचरण संहिता बनाते हैं, जिसका उद्देश्य व्यक्तियों को नैतिक पथ पर चलने के लिये प्रेरित करना होता है। परोपकार, दया, करुणा, अहिंसा, ईमानदारी इत्यादि मूल्यों को धर्म व्यक्ति के जीवन में प्रवेश कराने का प्रयास करता है। इस प्रकार धर्म और नैतिकता को परस्पर पूरक माना जाता है। वहीं दूसरी तरफ, धर्म के नाम पर होने वाले दंगे, लड़ाइयाँ कथित धर्मगुरुओं द्वारा यौन शोषण, धर्म का राजनीतिक उपयोग इत्यादि धर्म और नैतिकता को एक-दूसरे से दूर खड़ा कर देता है।

धर्म का अर्थ

  • गौरतलब है कि भारतीय परंपरा में ‘धर्म’ शब्द का प्रयोग दो संदर्भों में होता रहा है। एक संदर्भ वह है जहाँ धर्म का अर्थ अपने नैतिक दायित्वों का पालन करना होता है। उदाहरण के लिये, अगर कोई कहे कि मित्र का धर्म है कि वह संकट में फँसे अपने दोस्त की सहायता करे या पिता का धर्म है कि वह अपनी संतान के समग्र विकास की कोशिश करे और शासक का धर्म है कि वह समुचित प्रशासनिक व्यवस्था कायम करे, तो इन सभी संदर्भों में ‘धर्म’ ‘नैतिकता’ का पर्यायवाची हो जाता है।
  • जहाँ तक ‘धर्म’ के उपरोक्त अर्थ की बात है, कोई भी समझ सकता है कि यह धारणा नैतिकता की समानार्थक है। किंतु मूल बात यह है कि जिस अर्थ में हम अपने सामाजिक जीवन में धर्म शब्द का प्रयोग करते हैं, उस धर्म और नैतिकता के बीच क्या संबंध है? दूसरे शब्दों में, जब कोई हमसे पूछता है कि आप किस धर्म को मानते हैं तो स्वाभाविक तौर पर हमारा उत्तर हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई, यहूदी, पारसी, बौद्ध या जैन होता है।

धार्मिक नैतिकता का पक्ष

  • जो मज़बूती धर्म पर टिकी नैतिकता में होती है, वह धर्मनिरपेक्ष नैतिकता में नहीं हो सकती।
  • यदि हम बुद्धि या तर्क के स्तर पर नैतिक-अनैतिक का फैसला करते हैं तो इसमें दिक्कत यह है कि हमारी बुद्धि बहुत बड़े लालच और भय के सामने कमज़ोर पड़ जाती है।
  • इसके विपरीत, यदि व्यक्ति गहरी धार्मिक निष्ठा रखता है और उसे इस बात पर अखंड विश्वास है कि ईश्वर ही संपूर्ण जगत का नियंता है और उसकी मरजी के बिना यहाँ एक पत्ता भी नहीं हिल सकता है तो उसके मन में एक अद्भुत आत्मविश्वास रहता है। ऐसी धार्मिक निष्ठा वाले लोग नैतिक-अनैतिक का फैसला इस आधार पर करते हैं कि उनके धर्म द्वारा घोषित नैतिक मानदंड क्या हैं? उनके धर्म द्वारा जिस आचरण को नैतिक होने का प्रमाण-पत्र मिला होता है, वे बिना किसी विचलन या द्वंद्व के उसे जीवन भर दोहराते रहते हैं।
  • जब तक व्यक्ति किसी-न-किसी स्तर पर कर्म सिद्धांत को स्वीकार न कर ले, तब तक विश्व में नैतिक व्यवस्था नहीं चल सकती। कर्म सिद्धांत का सरल सा अर्थ यह है कि प्रत्येक व्यक्ति को उसके नैतिक व अनैतिक कर्मों के अनुपात में अच्छा या बुरा फल मिलना अनिवार्य है। यह सिद्धांत किसी-न-किसी रूप में सभी संगठित धर्म स्वीकार करते हैं।
  • जैसे ही हम संपूर्ण विश्व को ईश्वर की अभिव्यक्ति मान लेते हैं, वैसे ही जगत के हर प्राणी के प्रति हमारा नज़रिया नैतिक हो उठता है। अगर दुनिया का हर प्राणी ईश्वर की संतान है तो किसी भी प्राणी के प्रति हमारे मन में भ्रातृत्व का भाव उभरता है। हम उसके दुःख में दुःखी होते हैं और करुणा से भरकर उसका दुःख दूर कर देना चाहते हैं। इसी तरह, अगर पेड़-पौधे भी ईश्वर की अभिव्यक्तियाँ हैं तो उनके प्रति भी हमारे मन में ज़िम्मेदारी का अहसास पैदा होता है। संपूर्ण विश्व के प्रति संबद्धता का यह भाव धार्मिक होकर ही महसूस किया जा सकता है।

धर्मनिरपेक्ष नैतिकता का पक्ष

  • बहुत से ऐसे विचारक हैं जिनका मानना है कि सच्ची नैतिकता धर्म से तटस्थ होती है, न कि उस पर आधारित। वे यहाँ तक कहते हैं कि धर्म पर टिकी नैतिकता तो कई मायनों में अनैतिक होती है। उदाहरण के लिये, कई आदिम धर्मों में आज भी नरबलि की प्रथा विद्यमान है, क्या उनकी इस प्रथा को भी धार्मिक होने के कारण नैतिक माना जाए? इसी तरह, कई संगठित धर्म भी पशु-बलि की आदिम प्रथा को आज तक ढो रहे हैं जिसे नैतिक मानने में बहुत सी कठिनाइयाँ हैं।
  • कोई धर्म लिंग-भेद को बढ़ावा देता है, कोई जाति-भेद को तो कोई नस्ल-भेद को। यही कारण है कि धर्म पर टिकी नैतिकता से हम किसी वैज्ञानिकता या तार्किकता की उम्मीद नहीं कर सकते।
  • धार्मिक नैतिकता की कमी यह भी है कि यह हर धर्म के अनुयायियों के लिये अलग-अलग है और कई मामलों में तो परस्पर विरोधी भी है। उदाहरण के लिये, एक जैन व्यक्ति के लिये पशु हिंसा अक्षम्य पाप है, जबकि एक शाक्त हिंदू या किसी मुसलमान के लिये पशु हिंसा धार्मिक कर्मकांडों का अनिवार्य हिस्सा है।
  • संभव है कि हर धार्मिक परंपरा किसी-न-किसी समय की तात्कालिक ज़रूरतों की पूर्ति के लिये अस्तित्व में आई हो, पर यह भी सही है कि बहुत सी परंपराएँ समय बीतने के बाद या तो अप्रासंगिक हो जाती हैं या किसी बदलाव की अपेक्षा रखती हैं। धार्मिक नैतिकताओं के साथ सबसे बड़ी समस्या यह है कि लोग उनके मूल कारण को भूल जाते हैं और आँख बंद करके उनके कर्मकांडीय पक्ष का अनुपालन करते रहते हैं। उदाहरण के लिये, हम सब जानते हैं कि दीपावली के दिन बहुत अधिक प्रदूषण होता है जो कि हमारे लिये घातक है; किंतु यह जानने के बावजूद हम दीपावली मनाने का तरीका बदल नहीं पाते क्योंकि धर्म से जुड़े होने के कारण यह हमारे संस्कारों में बुरी तरह से बस चुके हैं।

निष्कर्ष                              

  • सही बात यह है कि धर्म और नैतिकता दो स्वतंत्र अवधारणाएँ हैं जिनमें से किसी एक का किसी दूसरे पर टिका होना अनिवार्य नहीं है।
  • कुछ ऐसे लोग हो सकते हैं जो गहरे स्तर पर धार्मिक हों और उसी स्तर पर नैतिक भी हों। उदाहरण के लिये, महात्मा गांधी, गौतम बुद्ध, वर्द्धमान महावीर, गुरु नानक, कबीरदास, ईसा मसीह।
  • कुछ ऐसे लोग भी होते हैं जो धार्मिक तो हैं पर नैतिक की बजाय अनैतिक रास्तों पर चलते हैं। उदाहरण के लिये, जो धर्मगुरु बलात्कार जैसे मामलों में दोषी पाए जाते हैं, वे धार्मिक होते हुए भी अनैतिक ही माने जाएंगे।
  • हर समाज में कुछ ऐसे लोग भी होते हैं जो अधार्मिक होकर भी बेहद नैतिक होते हैं। इन्हीं लोगों की धारणा को ‘धर्मनिरपेक्ष नैतिकता’ कहा जाता है। उदाहरण के लिये, भगत सिंह पूरी तरह से धर्म विरोधी व्यक्ति थे किंतु उन्होंने देश की आज़ादी के लिये अपना जीवन कुर्बान कर दिया।
  • अंतिम वर्ग में वे लोग आते हैं जो न तो धार्मिक हैं और न ही नैतिक। उदाहरण के लिये, यदि कोई व्यक्ति अपनी वासनाएँ संतुष्ट करने के लिये अभ्यस्त अपराधी बन चुका है तथा किसी भी धर्म में उसकी निष्ठा नहीं है तो ऐसे व्यक्ति के लिये यही मानना उचित होगा कि वह न तो धर्म से जुड़ा है और न ही नैतिकता से।
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