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आंतरिक सुरक्षा

आतंक से संघर्ष, न्याय संगतता द्वारा संरक्षण

  • 22 Nov 2019
  • 113 min read

अनुक्रम

  1. प्रस्तावना
  2. आतंकवाद-प्रकार, उत्पत्ति और परिभाषा
  3. भारत में आतंकवाद
  4. कानूनी ढाँचा
  5. आतंकवाद के वित्तपोषण के विरुद्ध उपाय
  6. आतंकवाद से संघर्ष में नागरिकों, नागरिक समाज और प्रचार माध्यम की भूमिका

प्रस्तावना

देश में आतंकवादी हिंसा की बढ़ती घटनाओं के दृष्टिगत भारत में उभरती हुई एक सर्वसम्मति है कि आतंकवाद से निपटने के लिये एक सुदृढ़ विधायी ढाँचा सृजित किया जाना चाहिये। यहाँ तक कि मानवाधिकारों और संवैधानिक मूल्यों को सुरक्षित रखते हुए भी आतंकवाद के विरुद्ध लड़ाई में सुरक्षा बलों को सुदृढ़ करने की आवश्यकता है।

आज आतंकवाद सार्वजनिक व्यवस्था के मुद्दों से बढ़कर हो गया है क्योंकि यह संगठित अपराध, गैर-कानूनी वित्तीय अंतरणों और शस्त्र तथा मादक द्रव्यों के अवैध व्यापार के जैसे कृत्यों के साथ समायोजित हो गया है, जो राष्ट्रीय सुरक्षा के लिये गंभीर खतरा हैं। भारत जैसा बहु-सांस्कृतिक, उदार और प्रजातांत्रिक देश अपनी भौगोलिक स्थिति के कारण आतंकवादी कृत्यों के प्रति अत्यंत सुभेद्य है।

आतंकवाद : प्रकार, उत्पत्ति और परिभाषा

  • ‘आतंकवाद’ शब्द की उत्पत्ति फ्राँसीसी क्रांति के दौरान वर्ष 1793-94 के आतंक के शासन से हुई।
  • यूरोप और अन्यत्र भी विशेषकर 1950 के दशक के उत्तरार्द्ध में वामपंथी उग्रवाद उभर कर सामने आया। भारत में नक्सली और माओवादी सहित पश्चिम जर्मनी में रेड आर्मी गुट, जापान का रेड आर्मी गुट, संयुक्त राज्य अमेरिका में विदरमेन और ब्लैक पैन्थर्स, उरुग्वे के तूपामारोस और अन्य कई वाम पंथी उग्रवादी दल विश्व के भिन्न-भिन्न भागों में 1960 के दशक के दौरान उत्पन्न हुए।
  • आज अंतर्राष्ट्रीय आतंकवाद अधिकांशत: इस्लामी रूढ़िवाद की विचारधारा से प्रेरित है तथा इसकी अग्र पंक्ति में ओसामा बिन लादेन का अल-कायदा और इसके घनिष्ठ सहयोगी अफगानिस्तान में तालिबान हैं। सोवियत-विरोधी नीतियों के कारण तालिबानों की तेज़ वृद्धि संयुक्त राज्य अमेरिका की CIA और पाकिस्तान की  ISI द्वारा दिये गए व्यापक संरक्षण के कारण संभव हुई थी। इससे न केवल अफगानिस्तान बल्कि पाकिस्तान और भारत में भी सुरक्षा संबंधी गंभीर चिंताएँ उत्पन्न हो चुकी हैं।

आतंकवाद के प्रकार

आतंकवादी समूह/समूहों के उद्देश्यों के आधार पर आतंकवादी गतिविधियों के मुख्य प्रकारों में निम्नलिखित को शामिल किया जाता है-

1. मानवजातीय-राष्ट्रवादी आतंकवाद

(Ethno-Nationalist Terrorism)

डेनियल बाइमैन के अनुसार अपने उद्देश्यों को आगे बढ़ाने के लिये किसी उप-राष्ट्रीय मानवजातीय समूह द्वारा जान बूझकर की गई हिंसा को मानवजातीय आतंकवाद कहा जा सकता है। ऐसी हिंसा प्राय: या तो पृथक राज्य के सृजन अथवा एक मानवजातीय समूह द्वारा दूसरे समूहों की तुलना में अपने स्तर को बढ़ाने के लिये किया जाता है। श्रीलंका में तमिल राष्ट्रवादी समूह और पूर्वोत्तर भारत में अलगाववादी समूह मानवजातीय-राष्ट्रवादी आतंकवादी गतिविधियों के उदाहरण हैं।

2. धार्मिक आतंकवाद

(Religious Terrorism)

वर्तमान में अधिकांशत: आतंकवादी गतिविधियाँ धार्मिक आदेशों और आवश्यकताओं द्वारा अभिप्रेरित होती हैं। हॉफमैन के अनुसार पूर्णत: अथवा अंशत: धार्मिक आदेशों द्वारा प्रेरित आतंकवादी हिंसा को दैवीय कर्त्तव्य अथवा पवित्र कृत्य मानते हैं।

अन्य आतंकवादी समूहों की तुलना में धार्मिक आतंकवादी वैधता और औचित्य के विभिन्न साधनों का प्रयोग करते हैं जो धार्मिक आतंकवाद को प्रकृति में और अधिक विनाशकारी बना देता है।

3. विचारधारोन्मुख आतंकवाद

(Ideology Oriented Terrorism)

हिंसा और आतंकवाद में विचारधारा के उपयोग के आधार पर आतंकवाद को साधारणतया दो वर्गों-वामपंथी और दक्षिणपंथी आतंकवाद में वर्गीकृत किया जाता है।

वामंपथी आतंकवाद- अधिकांशत: वामपंथी विचारधाराओं से प्रेरित होकर शासक वर्ग के विरुद्ध कृषक वर्ग द्वारा की गई हिंसा को वामपंथी आतंकवाद कहा जाता है।

  • वामपंथी विचाराधारा विश्वास करती है कि पूंजीवादी समाज में मौजूदा सभी सामाजिक संबंध और राज्य की प्रकृति शोषणात्मक है और हिंसक साधनों के माध्यम से एक क्रांतिकारी परिवर्तन अनिवार्य है। भारत और नेपाल में माओवादी गुट इसके उदाहरण हैं।

दक्षिणपंथी आतंकवाद - दक्षिणपंथी समूह आमतौर पर यथास्थिति (Status-Quo) बनाए रखना चाहते हैं अथवा अतीत की उस पूर्व स्थिति को स्थापित करना चाहते हैं जिसमें वे संरक्षित महसूस करते हैं।

  • कभी-कभी दक्षिणपंथी विचारधाराओं का समर्थन करने वाले समूह नृजातीय/नस्लभेदी चरित्र भी अपना लेते हैं। वे सरकार को किसी क्षेत्र को अधिग्रहीत करने अथवा पड़ोसी देश में ‘‘उत्पीड़ित’’ अल्पसंख्यकों (अर्थात) के अधिकारों का संरक्षण करने के लिये हस्तक्षेप करने हेतु बाध्य कर सकते हैं, जैसे- जर्मनी में नाजी पार्टी।
  • प्रवासी समुदायों के विरुद्ध हिंसा भी आतकवादी हिंसा की इस श्रेणी के अधीन आती है, यहाँ उल्लेखनीय है कि दक्षिणपंथी हिंसा के लिये धर्म एक समर्थक भूमिका निभा सकता है। इनके उदाहरण हैं: जर्मनी में नाजीवाद, इटली में फासीवाद, संयुक्त राज्य अमेरिका में कू क्लक्स क्लान (केकेके) के रूप में श्वेत आधिपत्य आदि।

4. राज्य-प्रायोजित आतंकवाद

(State-sponsored Terrorism)

  • राज्य-प्रायोजित आतंकवाद अथवा छद्म युद्ध (Proxy War) भी सैन्य युद्ध के इतिहास जितना ही पुराना है। बड़े पैमाने पर राज्य-प्रायोजित आतंकवाद 1960 एवं 1970 के दशक में अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में उभरा और आज धार्मिक आतंकवाद के साथ राज्य-प्रायोजित आतंकवाद ने विश्व भर में आतंकवादी गतिविधियों की प्रकृति काफी परिवर्तित कर दी है।
  • राज्य-प्रोयाजित आतंकवाद की एक विशेषता यह है इसे प्रचार माध्यमों का ध्यान आकर्षित करने अथवा संभावित व्यक्तियों को लक्षित करने की बजाए कतिपय स्पष्टतया परिभाषित विदेशी नीति के उद्देश्यों की प्राप्ति के लिये प्रारंभ किया जाता है। इस कारण यह बहुत कम बाधाओं के अधीन कार्य करता है और अत्यधिक नुकसान पहुँचाता है।
  • संयुक्त राज्य के अधीन पश्चिमी शक्तियों ने संपूर्ण शीत युद्ध में सभी राष्ट्रवादियों और साम्यवाद-विरोधियों का समर्थन किया। सोवियत संघ भी इस प्रयोग में पीछे नहीं रहा। भारत स्वतंत्रता प्राप्ति के समय से ही पाकिस्तान से इस समस्या का सामना कर रहा है।

5. स्वापक-आतंकवाद

(Narco-terrorism)

  • स्वापक-आतंकवाद ऐसी संकल्पना है जिसे ‘आतंकवाद के प्रकार’ और ‘आतंकवाद के साधन’ दोनों की श्रेणी में रखा जा सकता है। इस शब्द का सबसे पहले प्रयोग कोलंबिया और पेरू में किया गया था।
  • प्रारंभ में दक्षिण अमेरिका में मादक पदार्थों के अवैध व्यापार से संबद्ध आतंकवाद के परिप्रेक्ष्य में प्रयुक्त किया गया यह शब्द अब विश्व भर और सबसे अधिक मध्य और दक्षिण-पूर्व एशिया में आतंकवादी गुटों और गतिविधियों से संबंद्ध हो गया है।
  • स्वापक-आतंकवाद की परिभाषा कनाडियाई सुरक्षा सेवा द्वारा ‘स्वापक पदार्थों के अवैध व्यापारियों की क्रमबद्ध धमकी अथवा हिंसा द्वारा सरकार की नीतियों को प्रभावित करने के प्रयास’ के रूप में दी गई है। हालाँकि स्वापक-आतंकवाद को आतंकवाद के साधन अथवा आतंकवाद के वित्तीयन के साधन के रूप में भी देखा जा सकता है।
  • स्वापक-आतंकवाद दो आपराधिक गतिविधियों- मादक पदार्थ का अवैध व्यापार और आतंकवादी हिंसा को संयोजित करता है। स्वापक-आतंकवाद मुख्यत: आर्थिक कारणों द्वारा प्रेरित होता है। क्योंकि यह आतंकवादी संगठनों को अपनी गतिविधियों के लिये न्यूनतम लागत से काफी अधिक राशि जुटाने में सहायता करता है।
  • उदाहरण के लिये पाकिस्तान के इंटर-सर्विसेज़ इंटेलिजेंस (ISI) एजेंसी द्वारा समर्थन प्राप्त इस्लामी आतंकवादी गुटों को भारत की कश्मीर घाटी और देश के अन्य भागों में भी मादक पदार्थों के अवैध व्यापार करने में सक्रिय पाया गया है

आतंकवाद की परिभाषा

दो कारण हैं जो ‘आतंकवाद’’ शब्द की एक व्यापक परिभाषा की आवश्यकता को रेखांकित करते हैं-

  1. आतंकवाद की समस्या को समझना।
  2. देश के भीतर आतंकवाद से निपटने और विदेशों से आतकवादियों के प्रत्यर्पण के लिये विशेष कानून बनाना।

आतंकवाद को वैश्विक घटना मानने के बावजूद आतंकवाद की अंतर्राष्ट्रीय रूप से स्वीकृत परिभाषा देने के लिये पूर्व में किये प्रयास व्यर्थ सिद्ध हुए हैं।

ऐसा मुख्यतः दो कारणों से है। पहला, किसी एक देश में ‘आतंकवादी’ को दूसरे देश में ‘स्वतंत्रता सेनानी’ के रूप में देखा जा सकता है। दूसरा, यह विदित है कि कुछ राष्ट्र स्वयं अपनी एजेंसियों अथवा किराये पर लिये गए एजेंटों के माध्यम से कानूनी रूप से स्थापित अन्य देशों की सरकार को पलटने अथवा अस्थिर करने या अन्य राष्ट्र के महत्त्वपूर्ण राजनीतिक अथवा सरकारी व्यक्तियों की हत्या कराने के लिये गुप्त रूप से विभिन्न किस्म के आपराधिक कार्यों का सहारा लेते हैं अथवा उन्हें प्रोत्साहित करते हैं। 

  • वर्ष 2005 में संयुक्त राष्ट्र के पैनल ने आतंकवाद को ‘लोगों को भयभीत करने अथवा सरकार या किसी अंतर्राष्ट्रीय संगठन को कोई कार्य करने अथवा नहीं करने के लिये बाध्य किये जाने के प्रयोजन से नागरिकों अथवा निहत्थे लोगों को मारने अथवा गंभीर शारीरिक क्षति पहुँचाने के उद्देश्य से किये गए किसी कार्य के रूप में परिभाषित किया।
  • संयुक्त राज्य रक्षा विभाग ने आतंकवाद को ‘प्राय: राजनीतिक, धार्मिक अथवा वैचारिक उद्देश्यों की प्राप्ति के लिये सरकार अथवा समाज को अवपीड़ित या भयभीत करने हेतु  व्यक्तियों अथवा संपत्ति के विरुद्ध बल अथवा हिंसा का गैर-कानूनी अथवा धमकी भरे प्रयोग’ के रूप में परिभाषित किया है।

भारत में स्थिति

  • आतंकवादी और विघटनकारी कार्यकलाप (निवारण) अधिनियम, 1987 अर्थात् टाडा भारत में ऐसा पहला विशेष कानून था जिसने आतंकवाद की परिभाषा देने का प्रयास किया था। इसके बाद आतंकवाद निवारण अधिनियम, 2002 (पोटा) आया। वर्ष 2004 में गैर-कानूनी कार्यकलाप (निवारण) अधिनियम, 1967 को ‘आतंकवादी गतिविधि’ की परिभाषा शामिल करने के लिये संशोधित किया गया था।
  • आतंकवादी और विघटनकारी कार्यकलाप (निवारण) अधिनियम, 1987 उल्लेख करता है कि ‘जो कोई भी कानून द्वारा स्थापित सरकार को आतंकित करने अथवा लोगों या लोगों के किसी वर्ग में आतंक फैलाने अथवा उन्हें मारने या विभिन्न वर्गों के बीच सौहार्द को प्रतिकूल रूप से प्रभावित करने के आशय से बम, डायनामाइट या अन्य विस्फोटक पदार्थ अथवा ज्वलनशील पदार्थ या घातक हथियारों अथवा ज़हर या हानिकारक गैसों अथवा अन्य रसायनों या खतरनाक प्रकृति के अन्य किसी पदार्थ (जैविक या अन्य) का इस तरीके से प्रयोग करते हुए कोई कार्य करता है, जिससे व्यक्ति या व्यक्तियों की मृत्यु हो अथवा उन्हें चोट पहुँचे अथवा संपत्ति की हानि या विनाश हो अथवा समुदाय के जीवन के लिये अनिवार्य आपूर्तियों अथवा सेवाओं में बाधा पहुँचे अथवा किसी व्यक्ति को रोके या सरकार अथवा किसी अन्य व्यक्ति को कोई कार्य करने से अलग रहने के लिये बाध्य करने हेतु लोगों को मारने या घायल करने की धमकी देता है, वह अपनी प्रकृति में एक आतंकवादी कार्य करता है।’
  • पोटा अधिनियम आतंकवादी कृत्य की परिभाषा का विस्तार करते हुए आतंकवादी कार्य में आतंकवाद हेतु वित्त जुटाने अर्थात् आतंकवाद के वित्तीयन को भी शामिल करता है। पोटा की तरह ही वर्ष 2004 में संशोधित गैर-कानूनी कार्यकलाप (निवारण) अधिनियम, 1967 भी ‘आतंकवादी कार्य’ की व्यापक परिभाषा देता है।
  •  इन भारतीय अधिनियमों में आतंकवाद की परिभाषा पर दृष्टिपात करने से यह तथ्य उभर कर आता है कि कुछ देशों जैसे संयुक्त राज्य अमेरिका, कनाडा, यूनाइटेड किंगडम और ऑस्ट्रेलिया के कानून आतंकवादी कार्य के पीछे कोई राजनीतिक, धार्मिक अथवा वैचारिक उद्देश्यों का वर्णन करते हैं, वहीं भारतीय कानून आतंकवादी कार्य को परिभाषित अथवा वर्णित करने के लिये ऐसे किसी उद्देश्य अथवा प्रयोजन को शामिल करने से बचते हैं।

आतंकवाद के साधन

परंपरागत साधन

  • लोगों को बंधक बनाना और हाइजैकिंग।
  • भवनों, विशेषकर सरकारी/जनता भवनों का बलपूर्वक अधिग्रहण करना।
  • हथियारों, बम, आईईडी, हथगोलों, बारुदी सुरंगों का प्रयोग करते हुए व्यक्तियों और संपत्ति पर आक्रमण करना।
  • वर्तमान में आत्मघाती हमलों और अपहरणों करने का आश्रय लेने में वृद्धि हो रही है।

गैर-परंपरागत साधन

  • आतंकवादियों द्वारा जनसंहार के हथियार के रूप में न्यूक्लियर, रासायनिक अथवा जैविक हथियार प्राप्त करना साथ ही साइबर आतंकवाद और पर्यावरणीय आतंकवाद जैसे गंभीर खतरे भी हैं।

पर्यावरणीय आतंकवाद (Environmental Terrorism)

  • जहाँ पारिस्थितिकीय-आतंकवाद (Eco-terrorism) प्राकृतिक वातावरण के विनाश के विरुद्ध प्रतिरोध है, वहीं  पर्यावरणीय आतंकवाद प्राकृतिक जगत की जान-बूझकर की गई क्षति है।

उदाहरण के लिये वर्ष 1991 के खाड़ी युद्ध के दौरान सद्दाम हुसैन ने 1000 से अधिक तेल के कुओं को विस्फोट से उड़ाने का आदेश देकर कुवैत को धुएँ से भर दिया।

जनसंहार के हथियार

(Weapons of Mass Destruction- WMD)

जनसंहार के हथियार वे होते हैं, जो संपूर्ण विनाश तथा लोगों, अवसंरचनाओं अथवा अन्य संसाधनों को बड़े पैमाने पर नष्ट करने की क्षमता रखते हैं के लिये प्रयोग किये जाने योग्य होते हैं। उदाहरण- न्यूक्लिर, रासायनिक और जैविक हथियार आदि।

  1. रासायनिक हथियार: वर्ष 1993 में हस्ताक्षरित रासायनिक हथियार समझौते के अनुसार, उत्पत्ति पर ध्यान दिये बिना कोई भी विषैला रसायन रासायनिक हथियार माना जाता है अगर इसका प्रयोग निषिद्ध प्रयोजनों के लिये किया जाता है। उदाहरण: रिसीव, बोटुलिनम, टॉक्सिन, तंत्रिका एजेंट, लेवीसाइट, सेरिन आदि जैसे टॉक्सिक रसायन इसके उदाहरण हैं।
  2. न्यूक्लियर हथियार: न्यूक्लियर हथियारों के निर्माण के लिये सरलता से यूरेनियम उपलब्ध न होना  इसके संवर्द्धन की जटिल प्रक्रिया तथा अत्यधिक लागत आतंकवादी संगठनों और गैर-राज्य अभिकर्त्ताओं के समक्ष मुख्य समस्या है। द्वारा आतंकवादी हमलों में न्यूक्लियर हथियारों के प्रयोग का कोई लेखा-जोखा नहीं है। लेकिन इस बात के संकेत मिले हैं कि 1990 के उतरार्द्ध से अल-कायदा इन्हें प्राप्त करने हेतु प्रयासरत है।
  3. जैविक हथियार: जैव-आतंकवाद अपेक्षतया आतंकवाद का एक नया रूप है, जो जैव-प्रौद्योगिकी की उन्नति के चलते इसकी आतंकवादी गुटों तक पहुँच के परिणामस्वरूप उभरा है। जैव-आतंकवाद को ‘मानव, पशुओं अथवा पौधों में बीमारी अथवा मृत्यु कराने प्रयुक्त वायरसों, जीवाणुओं अथवा अन्य कीटाणु (एजेंटों) का जान-बूझकर निर्गमन’ के रूप में परिभाषित किया जा सकता है। इन्हें वायु, जल अथवा खाद्य पदार्थों के माध्यम से फैलाया जाता है।

साइबर-आतंकवाद (Cyber-terrorism)

  • साइबर-आतंकवाद, आतंकवाद और साइबरस्पेस का संयोजन है।
  • इसे मुख्यत: राजनीतिक अथवा सामाजिक हितों की पूर्ति के लिये अथवा सरकार या लोगों को भयभीत अथवा पीड़ित करने के आशय से कंप्यूटरों, नेटवर्क और उसमें संग्रहीत सूचना के विरुद्ध गैर-कानूनी आक्रमण और आक्रमण की धमकी के अर्थ में समझा जा सकता है।
  • साइबर-आतंकवाद सूचना और संचार प्रौद्योगिकियों में उन्नति के कारण विकसित आतंकवादी कार्यनीति का सर्वाधिक उन्नत साधन है, जो आतंकवादियों को न्यूनतम शारीरिक जोखिम के अपना कार्य करने में समर्थ बनाता है।

संयुक्त राज्य अमेरिका सेना प्रशिक्षक और शिक्षा कमान, साइबर आक्रमणों के परिणाम की चार श्रेणियों का वर्णन करता है :

अखंडता की हानि: आँकड़े और सूचना प्रौद्योगिकी प्रणाली में किये गए अनाधिकृत परिवर्तनों का परिणाम अयथार्थता, धोखाधड़ी अथवा गलत निर्णय हो सकता है जो प्रणाली की अखंडता को संदेह के दायरे में लाता है।

उपलब्धता की हानि: महत्त्वपूर्ण सूचना प्रौद्योगिकी प्रणाली पर आक्रमण उसे प्रयोक्ताओं के लिये अनुपलब्ध बना देता है।

गोपनीयता की हानि: सूचना के अनधिकृत प्रकटन का परिणाम जनता के विश्वास की हानि से लेकर राष्ट्रीय सुरक्षा को खतरा पहुँचने तक होता है।

भौतिक विनाश: सूचना प्रौद्योगिकी प्रणाली के प्रयोग द्वारा वास्तविक रूप से भौतिक नुकसान अथवा इसमें विनाश करने का सामर्थ्य।

आत्मघाती आतंकवाद (Suicide Terrorism)

आत्मघाती आतंकवाद उभरती हुई आतंकवादी रणनीति का सर्वाधिक अनिष्टकारी पहलू है। जेहादी आतंकवादियों ने 1990 के दशक में आत्मघाती आतंकवाद को अपनाया। जम्मू -कश्मीर के भीतर सर्वाधिक रूप से पुलिस और रक्षा बलों के परिसरों पर कई फियादीन आक्रमण हुए।

भारत में आतंकवाद

1. जम्मू-कश्मीर

  • जम्मू और कश्मीर में विद्रोह की जड़ों का पता 1940 के दशक के उत्तरार्द्ध से लगाया जा सकता है जब पाकिस्तान ने जम्मू-कश्मीर पर कब्ज़ा करने की दृष्टि से भारत पर आक्रमण किया। वर्ष 1971 के भारत-पाकिस्तान युद्ध के बाद अलगाववादी गतिविधियों में ठहराव आया था। तथापि, अस्सी के दशक में सीमा-पार से बड़ै पैमाने पर घुसपैठ और विद्रोही कार्यकलापों में अचानक वृद्धि देखी गई। निर्दोष व्यक्तियों को लक्ष्य बनाया गया और उन्हें राज्य से भागने के लिये बाध्य किया गया। 1990 के दशक में राज्य में बड़े पैमाने पर सुरक्षा बलों की तैनाती हुई।
  • इस्लामी रूढ़िवाद के उदय और अल-कायदा के प्रादुर्भाव ने जम्मू और कश्मीर में विद्रोह के कार्यकलापों में एक और आयाम जोड़ा। भारत के दृष्टिकोण से इस्लामी रूढ़िवाद का वास्तविक खतरा अल-कायदा और तालिबान से उत्पन्न नहीं होता बल्कि उनके क्षेत्रीय संबद्ध गुटों से होता है।
  • लश्कर-ए-तैयबा नामक पाकिस्तान स्थित आतंकवादी संगठन न केवल भारत में बल्कि संयुक्त राज्य अमेरिका, यूनाइटेड किंगडम, फ्राँस, सिंगापुर और ऑस्ट्रेलिया सहित लगभग 18 देशों में इकाईयाँ स्थापित कर चुका है। अल-कायदा के अन्य संबद्ध गुट, जो भारत में शांति और सुरक्षा के लिये गंभीर खतरा बने हुए हैं- जैश-ए-मोहम्मद, एचयूएम, एचयूजीआई और अल-बदर हैं। जैश-ए-मोहम्मद का घोषित उद्देश्य कश्मीर को पाकिस्तान के साथ मिलाना है। जैश-ए-मोहम्मद के सदस्यों को जम्मू-कश्मीर में कई आत्मघाती आक्रमणों में सम्मिलित माना गया है।
  • भारत सरकार राजनीतिक, सुरक्षा, विकासात्मक और प्रशासनिक मोर्चो पर चिंता को  ध्यान में रखते हुए संपूर्णतावादी दृष्टिकोण सहित एक बहुआयामी कार्यनीति के माध्यम से अशांत और गड़बड़ी वाले राज्यों की समस्याएँ निपटाने का प्रयास करती रही है।

राजनीतिक पहलू पर राजनीतिक वार्तालापों को प्रमुखता दी गई है। इसके अलावा निम्नलिखित उपाय उल्लेखनीय हैं-

  • जम्मू-कश्मीर सहित पाकिस्तान के साथ भी विश्वास निर्माण हेतु व्यापक उपायों पर बल देना।
  • जम्मू-कश्मीर तथा पाकिस्तान के अधिकृत कश्मीर (पीओके) के निवासियों के बीच को सुविधाजनक बनाना।
  • बस सेवा सुनिश्चित कर सीमा के दोनों ओर के बिछड़े परिवारों को पुन: मिलाने के लिये की गई पहलें।
  • अलगाववादियों सहित विभिन्न प्रकार के मतों का प्रतिनिधित्व करने वाले गुटों के साथ आवधिक वार्तालाप की पहल करना।

आंतरिक सुरक्षा संबद्ध उपायों में निम्नलिखित का उल्लेख किया जा सकता है- 

  • राज्य के मुख्यमंत्री की अध्यक्षता में और राज्य में तैनात सेना, केंद्रीय पुलिस संगठनों के प्रतिनिधियों तथा राज्य के नागरिक एवं पुलिस प्रशासन के वरिष्ठ अधिकारियों को शामिल करते हुए एकीकृत कमान कार्यक्षेत्र (वर्ष 1997 में प्रारंभ) को पुनर्जीवित करना।
  • जम्मू-कश्मीर में कार्यरत संसूचित आतंकवादी संगठनों पर गैर-कानूनी कार्यकलाप (निवारण) अधिनियम, 2004 के अधीन पाबंदी लगाना।
  • ग्राम रक्षा समितियों की स्थापना और सावधानीपूर्वक जाँच के बाद चयनित क्षेत्रों में विशेष पुलिस अधिकारियों की नियुक्ति।
  • राज्य के सुरक्षा संबद्ध व्यय की प्रतिपूर्ति की व्यवस्था करना।

प्रशासनिक मोर्चे पर निम्नलिखित उपाय उल्लेख करने योग्य हैं-

  • उग्रवाद से पीड़ितों के लिये राहत संबंधी उपाय।
  • कश्मीरी प्रवासियों को वापसी के लिये प्रोत्साहित करना और इस कार्य सुविधाजनक बनाना।
  • कश्मीर घाटी में पदस्थापित केंद्र सरकार के कर्मचारियों को विशेष सुविधाएँ और रियायतें प्रदान करना। 
  • संघ सरकार और राज्य सरकार तथा विशेषकर सुरक्षा बलों के प्रयासों ने उग्रवादियों की गतिविधियों को नियंत्रित करने में सहायता की है। आम चुनाव तथा साथ ही स्थानीय निकायों के चुनाव का सफल संचालन भारतीय प्रजातंत्र में लोगों के विश्वास का सकारात्मक संकेतक है। दूसरा सकारात्मक विकास घाटी में पर्यटकों का बढ़ता हुआ आगमन है।

2. पूर्वोत्तर राज्य

  • भारत के पूर्वोत्तर क्षेत्र में राज्यों के भीतर तथा पड़ोसी राज्यों में भी जनजातीय गुटों में संघर्ष और हिंसा का लंबा इतिहास रहा है। इस भौगोलिक क्षेत्र का बड़ा भाग असम राज्य के सीमा क्षेत्र में था परंतु मानव जातीय-राष्ट्रीयता लेकर हिंसक प्रदर्शन के स्वतंत्रता-पश्चात की अवधि के दौरान विकास के विभिन्न चरणों में वर्तमान के कुछ राज्यों का गठन हुआ।
  • हालाँकि संविधान निर्माताओं ने इन विशेष समस्याओं का ध्यान रखा और स्वायत्तशासी परिषदों और अन्य संवैधानिक उपायों की व्यवस्था की थी, इसके बावज़ूद भी पूर्वोत्तर राज्यों में  अभी भी संघर्ष की जटिल स्थिति बनी हुई है। इसके परिणामस्वरूप इस क्षेत्र की विकासात्मक गतिविधियों में बाधा पहुँचने के कारण इस क्षेत्र में आर्थिक प्रगति बहुत कम हुई है।

3. पंजाब

  • सिख समुदाय द्वारा पृथक पहचान की खोज ने स्वयं को विभाजन के बाद भारत में एक पृथक राज्य की अपनी मांग में प्रदर्शित किया। यहाँ तक कि पृथक पंजाब राज्य के गठन के बाद भी अन्य बातों के साथ-साथ राज्य की राजधानी के रूप में चंडीगढ़ की मांग, नदी जल के बँटवारे आदि से संबंधित कुछ संबद्ध मुद्दों का समाधान नहीं हो पाया। यह स्थिति तब और बिगड़ गई जब आतंकवादी तत्वों ने ‘खलिस्तान’ के रूप में भारत से संबंध-विच्छेद की मांग की।
  • जुलाई 1985 में राजीव गांधी-लोंगोवाल समझौते ने इस अशांति को अस्थायी रूप से समाप्त कर दिया। इसके एक महीने बाद संत लोंगोवाल की हत्या, पंजाब के भाग के रूप में चंडीगढ़ का बँटवारा और नदी जल के बँटवारे जैसे मुद्दों के समाधान में आने वाली रुकावटों के कारण  पुन: हिंसा भड़क उठी।
  • अंतत: निम्नलिखित चार मानकों पर आधारित नीति के अनुपालन से इस विवाद का समाधान किया गया-
    • आतंकवाद को रोकने और समाप्त करने के लिये सुरक्षा बलों की कार्रवाई।
    • हिंसा छोड़ने और वार्ता के अनुरोध के लिये उग्रवादियों से सम्पर्क बनाए रखना।
    • उन असंतुष्ट तत्त्वों के साथ विचार-विमर्श जो देश की लोकतांत्रिक प्रक्रिया में पूर्ण एकीकरण के बदले में हिसा छोड़ने और संविधान के बुनियादी सिद्धांतों को स्वीकार करने के लिये तैयार थे।
    • प्रभावित आबादी की धार्मिक, सांस्कृतिक और जातीय भावनाओं के प्रति संवेदनशीलता

4. विचारधारा-उन्मुख आतंकवाद-वामपंथी उग्रवाद

(Left-Wing Extremism- LWE)

  • वामपंथी उग्रवाद अपनी विचारधारा के अनुसरण के कारण हिंसा का प्रयोग करने के लिये जाना जाता है।
  • भारत में इस आंदोलन की शुरुआत पश्चिम बंगाल में उग्रवादियों के एक गुट द्वारा वर्ष 1967 में की गई थी। इस क्षेत्र के किसानों के अतिरिक्त, चाय बागान में कार्यरत  श्रमिक बड़ी संख्या में इस उग्रवादी गुट के अनुयायी थे। इस बात से आश्वस्त होकर कि अब जनक्रांति की दशा भारत में परिपक्व है, इस गुट ने अपनी तथाकथित कृषक क्रांति पश्चिम बंगाल में दिनांक 3 मार्च, 1967 से प्रारंभ की। तत्पश्चात इन उग्रवादी गुटों द्वारा सिलीगुड़ी के नक्सलबाड़ी, खोरीबाड़ी और फांसीदेवा पुलिस स्टेशन के क्षेत्राधिकार में खाली पड़ी कुछ भूमि पर कब्जा कर लिया गया।
  • नक्सलबाड़ी क्षेत्र में वामपंथी उग्रवादी आंदोलन के पहले चरण को बिना किसी अधिक रक्तपात के अल्पावधि के भीतर ही प्रभावी रूप से नियंत्रित कर दिया गया था।

वर्ष 2004 से माओवादी आंदोलन के रूप में ज्ञात इस आंदोलन की कुछ गतिविधियाँ निम्नानुसार है-

  1. मई 1968: भारत के विभिन्न भागों में उग्रवादी आंदोलन को आगे बढ़ाने के लिये अखिल भारतीय साम्यवादी क्रांतिकारी समन्वय समिति (AICCCR) का गठन।
  2. 22 अप्रैल 1969: भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी-लेनिनवादी) के रूप में ज्ञात एक नई मार्क्सवादी-लेनिनवादी पार्टी का गठन
  3. ‘वर्ग शत्रुओं के विनाश’ के नाम पर ओडिशा, मध्यप्रदेश, पंजाब के अतिरिक्त पश्चिम बंगाल, आंध्र प्रदेश, केरल, बिहार और उत्तर प्रदेश में CPI-ML द्वारा विभिन्न राज्यों के भागों में हिंसा की खुलेआम  कार्रवाईयाँ।
  4. जब उग्रवादी गुट के नेताओं द्वारा वर्ष 1970-71 के बांग्लादेश मुक्ति संग्राम के दौरान पाकिस्तान के समर्थन की बात की गई तो इनके प्रमुख नेताओं में से चारू मजूमदार को अवज्ञा के कारण 16 जुलाई, 1972 को कोलकाता में गिरफ्तार कर लिया गया।
  • 1980 के दशक के पूर्वार्द्ध के दौरान भारत के विभिन्न भागों में नक्सलियों के कई छोटे गुट पुन: उभरने लगे। आंध्र प्रदेश के नक्सली CPI-ML (पीपुल वार ग्रुप/ जन युद्ध समूह- PWG) के रूप में पुन: संगठित हुए। इसी प्रकार बिहार के नक्सलियों ने पुन: माओवादी साम्यवादी केंद्र (MCC) के रूप में अपना नया नामकरण किया।

PWG (पीपुल वार ग्रुप/ जन युद्ध समूह) की गतिविधियाँ

  • आंध्र प्रदेश में PWG दूरस्थ ज़िलों और कुछ अन्य ज़िलों के शहरी क्षेत्रों में भी ग्रामीण आबादी के बड़े भाग को एकजुट करने में सफल रहा। इसके कुछ कार्यक्रम व्यापक जन समर्थन का वातावरण सृजित किया जैसे ‘प्रजा न्यायालय’ का आयोजन जिसमें भू-स्वामियों, साहूकारों और यहाँ तक कि सरकारी अधिकारियों के विरुद्ध शिकायतों पर सुनवाई कर‘त्वरित न्याय’ किया जा रहा था।
  • PWG की गतिविधियों जैसे भू-स्वामियों, व्यवसायियों और अन्य से निधियों के बलपूर्वक संग्रहण के रूप में PWG दलों (‘दलम’) की अंधाधुंध तथा अविवेकपूर्ण कार्रवाई से इन क्षेत्रों में ऐसे लोगों का गुट बन गया, जिन्होंने PWG के विरुद्ध दृढ़ कार्रवाई करने के लिये राज्य सरकार पर दबाव डालना प्रारंभ किया।
  • पुलिस कार्रवाई ने माओवादी कार्यकर्त्ताओं  में असुरक्षा की भावना उत्पन्न कर दी, जिसने उन्हें पुलिस के मुखबिर होने के हल्के संदेह पर ही ग्रामीणों की क्रूर हत्याएँ और यातना का आश्रय लेने के लिये प्रेरित किया। इससे स्थानीय ग्रामीणों के बीच और अलगाव उत्पन्न हुआ, जब उन्होंने देखा कि वे, जो उनके मुक्तिदाता होने का दावा करते थे, अपने आचरण में इतना क्रूर तथा अविवेकपूर्ण हो सकते हैं।
  • जब आंध्र प्रदेश सरकार ने विशेष रूप से प्रशिक्षित ‘ग्रेहाउन्ड्स (Greghounds)’ नामक पुलिस यूनिट के नेतृत्व में बड़े पैमाने पर पुलिस कार्रवाई प्रारंभ की तब उन गाँवों, विशेषकर नल्लामाला वन क्षेत्र और उसके समीपस्थ क्षेत्र में, जिन्हें पहले उनका सुदृढ़ आधार क्षेत्र माना जाता था, को पुनः प्राप्त करने में अधिक समय नहीं लगा।
  • इसने आंध्र के माओवादियों को इन क्षेत्रों को खाली करने और छत्तीसगढ़ के दंडकारण्य क्षेत्र के समीपस्थ स्थानों तथा उड़ीसा के समीपस्थ ज़िलोंमें तितर-बितर होने के लिये बाध्य कर दिया।
  • इस बीच माओवादियों ने बारूदी सुरंगों और IED (Improvised Explosive Device) के प्रयोग में कुछ विशेषज्ञता विकसित कर ली, जिससे छत्तीसगढ़ में बहुत अधिक संख्या में कार्यरत पुलिस बलों तथा सुरक्षाकर्मी हताहत हुए। छत्तीसगढ़ में एक अन्य महत्त्वपूर्ण गतिविधि सलवा जुडुम के रूप में विदित जनजातीय लोगों में से प्रतिरोधी गुटों का निर्माण रहा है।

MCC की गतिविधियाँ

  • माओवादी साम्यवादी केंद्र (MCC) नामक नक्सली संगठन ने पाया कि उनके सबसे बड़े विरोधी या शत्रु जितना प्रशासन अथवा पुलिस नहीं थी, उनसे अधिक भू-स्वामी वर्ग के सशस्त्र दल जैसे रणबीर सेना, भूमिहार सेना आदि थी। दलितों की कुछ सामूहिक हत्याओं ने बिहार में MCC को बढ़ावा दिया और इससे MCC कार्यकर्त्ताओं  द्वारा बदले की भावना से कई हत्याएँ और भूस्वामियों की सेना द्वारा प्रतिरोधात्मक हत्याएँ हुई।
  • दूसरे शब्दों में, माओवादी वर्ग संघर्ष की विशिष्टता प्राप्त करने की बजाए इन मुठभेड़ों ने जातीय युद्ध का आकार ले लिया। भूतपूर्व बिहार के जनजाति बहुल ज़िलों से झारखंड का सृजन होने से, माओवादी स्वाभाविक रूप से शोषित जनजाति एवं निर्धनों के मित्र के रूप में उभरे। मंत्रियों, विधायकों, सांसदों तथा राजनीतिक नेताओं को भी माओवादी हिंसा का लक्ष्य बनाया गया।
  • वर्ष 2004 में नक्सलियों ने MCC और PWG के विलय से CPI (माओवादी) के गठन से अपनी प्रक्रिया अधिकांशत: पूरी कर ली। माना जाता है कि इस समय माओवादियों की पहुँच रॉकेट और रॉकेट लांचरों के निर्माण की प्रौद्योगिकी तक हो गई है। उन्नत विस्फोटक उपकरण (IED) निर्मित करने और उन्हें विस्फोटित करने की विशेषता विकसित करने के कारण माओवादी अधिक खतरनाक हो गए।

5.धार्मिक रूढ़िवाद पर आधारित आतंकवाद

  • भारत में कई आतंकवादी घटनाएँ हुई हैं जो धार्मिक रूढ़िवाद द्वारा प्रेरित थीं। इन कार्यकलापों में से कुछ राजनीतिक महत्त्वाकांक्षाओं से परिपूर्ण थी- जैसे जम्मू और कश्मीर में अलगाववादी तत्व। इन घटनाओं में से कुछ की सहायता और अवप्रेरणा उन बाहरी शक्तियों द्वारा की गई थी जो भारत की विरोधी थी। यहाँ तक कि ISI ने वर्ष 1991 में पंजाब के खलिस्तानी आतंकवाद और जम्मू-कश्मीर (वर्तमान में विभाजित राज्य) के आतंकवादी गुटों के बीच सहयोग निर्मित करने के लिये एक पहल की थी।
  • जनवरी 1994 में हरकत मुज़ाहिदीन के कार्यकर्त्ताओं और हरकत-उल-ज़िहाद, जिसके मूल संगठन का विलय हरकत-अल-अंसार में हो गया था, का मेल कराने के कार्य हेतु मोहम्मद मसूद अज़हर अल्वी का भारत में आगमन हुआ। उसके संगठन का मुख्य उद्देश्य भारतीय शासन से कश्मीर को स्वतंत्र कराना और कश्मीर में इस्लामी शासन स्थापित करना था। पाकिस्तानी आसूचना द्वारा इस्लामिक आतंकवाद में अगली पहल जम्मू और कश्मीर इस्लामी मोर्चे (JKIF) की स्थापना थी।
  • वर्ष 2001 में नई दिल्ली में कई इस्लामी आतंकवादी आक्रमण हुए, जिनमें से सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण  दिसंबर 2001 में संसद भवन पर हुआ हमला था। वर्ष 2002 में अक्षरधाम मंदिर पर हमला, वर्ष 2005 में अयोध्या में हमला, वर्ष 2006 में मुंबई में लगातार बम विस्फोट आदि इस्लामी आतंकवादियों की मुख्य कार्रवाइयाँ थीं।
  • भारत में इस्लामी उग्रवाद के संवर्द्धन में भारतीय विद्यार्थी इस्लामी आंदोलन (सिमी) द्वारा निभाई गई भूमिका पर गौर करना महत्त्वपूर्ण  है। विभिन्न इस्लामी चैरिटी संस्थाओं विशेषत: रियाद स्थित वर्ल्ड एसेम्बली ऑफ मुस्लिम यूथ द्वारा वित्तपोषित ‘सिमी’ ने अपनी गतिविधियाँ भारत के विभिन्न राज्यों में फैलाई। सितंबर 2001 में भारत सरकार द्वारा गैर-कानूनी कार्यकलाप (निवारण) अधिनियम, 1967 के तहत सिमी को प्रतिबंधित कर दिया गया।

उभरते हुए खतरे

  • कई आतंकवादी संगठनों में एक-दूसरे के साथ सहयोग करने तथा आवश्यक रूप से वैचारिक बंधनों की भागीदारी किये बिना शस्त्रों की आपूर्ति, संभार तंत्र और यहाँ तक कि प्रचालनात्मक समर्थन के रूप में संपर्क निर्मित करने का सामर्थ्य है। ऐसे नेटवर्क अपने विनाशात्मक उद्देश्यों को आगे बढ़ाने के लिये संगठित आपराधिक संगठनों से भी समर्थन प्राप्त करने में सक्षम हैं।
  • 21वीं सदी में आतंकवाद ने नवीन और अधिक घातक आयाम प्राप्त कर लिया है। उन सामग्रियों और प्रौद्योगिकी जिनमें पूर्व की तुलना में बहुत अधिक विनाशक क्षमता है, तक पहुँच ने भी आतंकवाद द्वारा उत्पन्न खतरे की प्रकृति को बढ़ा दिया है।
  • एक बहुसांस्कृतिक विश्व में प्रवासियों की बड़ी आबादी और आवागमन के विविध मार्गों वाली सीमाओं का अर्थ है कि प्राय: इंटरनेट का प्रयोग करते हुए आतंकवादी विचारधारा के प्रचार के माध्यम से उत्पन्न स्लीपर सेल लोकतांत्रिक देशों के राष्ट्रीय ढाँचे को खतरा पहुँचाते हुए पाँचवा कॉलम बन सकते है।
  • किसी देश में शत्रु देश के समर्थकों या उनसे गुप्त सहानुभूति रखने वाले लोगों का ऐसा समूह जो जासूसी या विध्वंसात्मक गतिविधियों में शामिल हो, उन्हें पाँचवा कॉलम (Fifth column) कहते है। 
  • राष्ट्रीय सीमाओं के आर-पार धनराशियों के तीव्रतर आवागमन के साथ राष्ट्रीय अर्थव्यवस्थाओं, बैंकिंग और वित्तीय प्रणालियों का एकीकरण भी विश्व भर में आतंकवादी गतिविधियों का वित्तीयन सरल बनाता है।

आतंकवाद का सामना करने की कार्यनीति

  • एक बहुआयामी दृष्टिकोण
    • भारत में आतंकवाद से लड़ने के लिये राष्ट्रीय सुरक्षा कार्यनीति के समग्र परिप्रेक्ष्य में एक कार्यनीति, तैयार करने की आवश्यकता है। आतंकवाद के जोखिम से निपटने के लिये एक बहु-आयामी दृष्टिकोण आवश्यक है।
    • राष्ट्रीय सुरक्षा का अर्थ, देश में प्रत्येक नागरिक के जान और माल तथा साथ ही राष्ट्र के संसाधनों की सुरक्षा है। राष्ट्रीय सुरक्षा कार्यनीति का उद्देश्य एक सुरक्षा वातावरण का सृजन करना है, जो राष्ट्र के लिये सभी व्यक्तियों को अपनी पूर्णतम क्षमता विकसित करने के अवसर प्रदान करने में समर्थ बनाए। राष्ट्रीय सुरक्षा कार्यनीति पर अधिकांश चर्चाएँ इस बात पर आधारित रही हैं कि राष्ट्रीय सुरक्षा सभी के जान-माल का संरक्षण सुनिश्चित करते हुए प्राप्त की जा सकती है।
    • यहाँ स्पष्टत: समझ लेना आवश्यक है कि सामाजिक-आर्थिक विकास और एक सुरक्षित वातावरण प्रदान कराने की प्रक्रिया को साथ-साथ संचालित करना होगा क्योंकि दोनों एक दूसरे पर निर्भर करते है। कोई खतरा जो इस प्रक्रिया को धीमा कर सकता है, उसे राष्ट्रीय सुरक्षा के लिये खतरा माना जाना चाहिये। ऐसे खतरें युद्ध, आतंकवाद, संगठित अपराध, ऊर्जा की कमी, जल और भोजन की कमी, आंतरिक विवाद, प्राकृतिक अथवा मानव-निर्मित आपदाओं आदि से उत्पन्न हो सकते हैं।

विकास और उग्रवाद के बीच संबंध

  • विकास और आंतरिक सुरक्षा एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। दोनों महत्त्वपूर्ण रूप से एक-दूसरे पर निर्भर है। प्राय: विकास की कमी और किसी के जीवन स्तर को सुधारने की किसी संभावना में कमी उग्रवादी विचारधाराओं को विकसित होने के लिये उर्वर आधार प्रदान करती है।
  • उग्रवादी गुटों में भर्ती किये जाने वालों का बहुत बड़ा भाग वंचित अथवा सीमांतिक पृष्ठभूमि वाले अथवा ऐसे क्षेत्रों, जो विकास की मुख्यधारा से अप्रभावित रहता है, से आता है। विकास प्रक्रिया की असमानता एक चिंताजनक तथ्य है।
  • इन विभाजनों और विसंगतियों से असंतोष, बड़े पैमाने पर अप्रवासन और मनमुटाव उत्पन्न होते हैं। कई मामलों में आंतरिक सुरक्षा संबंधी समस्याएँ असमान विकास से उत्पन्न होती हैं।
  • यदि हमें उग्रवादी विचारधाराओं और उग्रवादी तत्त्वों से संघर्ष करने में कोई दीर्घावधिक प्रगति करनी हैं तो  इन मुद्दों पर भी ध्यान देने की आवश्यकता है।

  • इस परिप्रेक्ष्य में सामाजिक-आर्थिक विकास एक प्राथमिकता है ताकि समाज के असुरक्षित वर्ग आतंकवादियों के धन और समानता के प्रलोभन का शिकार नहीं हो जाएं तथा प्रशासन, विशेषकर सेवा सुपुर्दगी कार्यतंत्र को लोगों की सही एवं दीर्घकालीन शिकायतों के प्रति उत्तरदायी होना आवश्यक है।
  • इसे सुनिश्चित करने के लिये, कानून प्रवर्तन एजेंसियों का उपयुक्त कानूनी ढाँचे, पर्याप्त प्रशिक्षण अवसंरचना, उपकरण और आसूचना से समर्थन किया जाना चाहिये। जिसमें विभिन्न हितधारकों- सरकार, राजनीतिक पार्टियों, सुरक्षा एजेंसियों, नागरिक समाज और प्रचार माध्यम को महत्त्वपूर्ण  भूमिका निभानी होगी।
  • ऐसी कार्यनीति के आवश्यक तत्वों को नीचे सूचीबद्ध किया गया है-
    • राजनीतिक सर्वसम्मति।
    • अच्छा अधिशासन और सामाजिक-आर्थिक विकास।
    • कानून के शासन प्रति सम्मान।
    • आतंकवादियों की विनाशक गतिविधियों का प्रतिरोध करना।
    • उपयुक्त कानूनी ढाँचा प्रदान करना।
    • क्षमता निर्माण।

 कानूनी ढाँचा

  • भारत में आतंकवाद से निपटने के लिये कई अधिनियम थे जैसे-
    • आतंकवादी और विघटनकारी कार्यकलाप (निवारण) अधिनियम, 1987 (वर्ष 1995 में व्यपगत)
    • आतंकवाद निवारण अधिनियम, 2002 (वर्ष 2004 में निरसित)
    • गैर-कानूनी कार्यकलाप (निवारण) अधिनियम, 1967 (2004 में संशोधित)
    • राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम, 1980।
  • हालाँकि कुछ  विधानों को निरसित कर दिया गया क्योंकि यह माना गया था कि कानून प्रवर्त्तन एजेंसियों को सौंपी गई शक्तियों के दुरुपयोग की संभावना है और वास्तव में ऐसा हुआ थी।
  • विधि आयोग ने अपनी 173वीं रिपोर्ट (वर्ष 2000) में इस मुद्दे की जाँच की ओर आतंकवादियों से दृढ़तापूर्वक और प्रभावी रूप से निपटने के लिये एक कानून की आवश्यकता का विशेष उल्लेख किया। भारत में अपनाए गए विधायी उपायों की संक्षिप्त चर्चा आगामी पैराग्राफों में की गई है।

राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम, 1980

  • राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम, 1980 संघ सरकार अथवा राज्य सरकारों को भारत की सुरक्षा हेतु खतरा उत्पन्न करने वाले व्यक्तियों को दंडित करने का प्रावधान करता है।
  • यह अधिनियम सलाहकार बोर्डों का भी गठन करता है, जिससे  इस प्रकार के अधिनियम से हवालात में रखे जाने को अनुमोदित किया जा सके।

आतंकवादी और विघटनकारी कार्यकलाप (निवारण) अधिनियम, 1985 और 1987

  • देश के कुछ भागों में आतकंवादी कार्यकलापों की वृद्धि होने की पृष्ठभूमि में मई, 1985 में आतंकवादी और विघटनकारी कार्यकलाप (निवारण) अधिनियम, 1985 अधिनियमित किया गया था।
  • उस समय यह आशा की गई थी कि दो वर्षों की अवधि के भीतर इस संकट को नियंत्रित कर लिया जाएगा। तथापि, बाद में यह महसूस किया गया कि कई कारकों के कारण प्रारंभ की छिटपुट घटनाएँ एक निरंतर किस्म के संकट बन गए थे। इसलिये न केवल उक्त कानून को बनाए रखना बल्कि इसे और सुदृढ़ करना भी आवश्यक हो गया। इसलिये सरकार ने आतंकवादी और विघटनकारी कार्यकलाप (निवारण) अधिनियम, 1987 (टाडा) अधिनियमित किया जिसने उस कार्यतंत्र को सुदृढ़ किया, जो 1985 के टाडा द्वारा निर्मित किया गया था।
  • टाडा अधिनियम 1987 की वैधता वर्ष 1989, 1991 और 1993 में बढ़ाई गई थी। लेकिन इसके दुरुपयोग के बारे में कई शिकायतें मिलने के बाद इसे वर्ष 1995 में व्यपगत करने की अनुमति दी गई। भारत में वर्ष 1999 में इंडियन एयरलाइंस की उड़ान संख्या आईसी-814 का कांधार में अपहरण, दिसंबर, 2001 को संसद पर हमले सहित कई आतंकवादी घटनाएँ हुई। इसके फलस्वरूप आतंकवाद निवारण अधिनियम, 2002 पारित किया गया।

आतंकवाद का निवारण अधिनियम, 2002

आतंकवाद का निवारण अधिनियम, 2002 (पोटा) की मुख्य विशेषताएँ निम्नलिखित थी-

  • ‘आतंकवादी कार्य’ की परिभाषा (Definition of Terrorist Act)।
    • गिरफ्तार करने के उपबंध (Arrest Provision)।
    • आतंकवाद की आय की ज़ब्ती (Seizure & For feiture of proceeds of Terrorism)।
    • संचार का अवरोधन (Interception of Terrorism)।
    • आग्नेयास्त्रों का अनधिकृत कब्जा रखना (Unauthorised Possession of Fire Arms)।
    • जाँचकर्त्ता अधिकारियों को वर्द्धित शक्तियाँ (Enhanced Power to Investigating Officers)।
    • पुलिस अभिरक्षा की वर्द्धित अवधि (Increased Period of Police Custody)।
    • विशेष न्यायालयों का गठन (Censitution of Special Courts)।
    • आतंकवादी संगठनों से निपटने पर अध्याय (Chapter on dealing with Terrorist Organizations)।
    • समीक्षा समिति का गठन (Constitution of Review Committee)।
  • ‘पोटा’ के प्रावधानों का कुछ राज्य सरकारों द्वारा दुरुपयोग करने तथा अपने अभिप्रेत प्रयोजन को पूरा करने में विफल रहने के तथ्य को ध्यान में रखते हुए केंद्र सरकार ने इसको निरसित कर दिया।
  • पोटा के निरसन के बाद आतंकवाद से निपटने के लिये कुछ उपबंध गैर-कानूनी कार्यकलाप (निवारण) संशोधन अधिनियम, 2004 द्वारा यथा संशोधित गैर-कानूनी कार्यकलाप (निवारण) अधिनियम, 1967 में सम्मिलित किये गए।

गैर-कानूनी कार्यकलाप (निवारण) अधिनियम, 1967

  • यह कानून व्यक्तियों और संगठनों के कतिपय गैर-कानूनी कार्यकलापों और उससे संबंधित मामलों के अधिक प्रभावी निवारण की व्यवस्था करने के लिये अधिनियमित किया गया था। इसने किसी भी संगठन को ‘गैर-कानूनी’ घोषित करने के लिये उपयुक्त प्राधिकारियों को अधिकार दिया अगर वह गैर-कानूनी कार्यकलाप कर रहे हैं।
  • पोटा के समान यह भी ‘आतंकवादी कार्य’की परिभाषा देता है और अनुसूची में सूचीबद्ध संगठन के रूप में ‘आतंकवादी संगठन’ अथवा इस प्रकार सूचीबद्ध संगठन के समान नाम के अधीन कार्यरत संगठन की भी परिभाषा देता है। यह आतंकवाद संबद्ध अपराधों के लिये सख्त सजा प्रदान करने के अतिरिक्त आतंकवाद की आय की जब्ती का कार्यतंत्र प्रदान करता है।
  • यह विशेष न्यायालयों अथवा जाँच करने की वर्द्धित शक्तियों और पुलिस अधिकारियों के समक्ष किये गए स्वीकरण से संबंधित उपबंधों की व्यवस्था नहीं करता।

व्यापक आतंकवाद-रोधी विधान की आवश्यकता

  • भारतीय विधि आयोग ने आतंकवाद का निवारण विधेयक, 2000 पर अपनी 173वीं रिपोर्ट में आतंकवाद के खतरे से निपटने के लिये एक पृथक विधान की सिफारिश की थी।
  • इस कानून में आतंकवादी गतिविधियों की परिभाषा, ऐसे कार्यों के लिये कठोर सजा, कतिपय अनधिकृत शस्त्र रखने, आतंकवाद की आय प्रदर्शित करने वाली संपत्ति की ज़ब्ती और कुर्की से संबंधित जाँचकर्त्ता अधिकारियों को विशेष शक्तियाँ, विशेष न्यायालयों के गठन, गवाहों के संरक्षण, पुलिस अधिकारियों के समक्ष किये गए स्वीकरण पर विचार किए जाने, वर्द्धित पुलिस अभिरक्षा, समीक्षा समितियों के गठन, सद्भावना से की गई कार्रवाई के संरक्षण आदि जैसे उपबंध शामिल थे।
  • आयोग का विचार है कि आतंकवाद पर एक अध्याय को राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम, 1980 का भाग बनाया जाना चाहिये।
  • गैर-कानूनी कार्यकलाप निवारण अधिनियम प्राथमिक रूप से व्यक्तियों तथा संघों के कतिपय गैर-कानूनी कार्यकलापों और संबंधित मामलों को प्रभावी रूप से रोकने से संबंधित है जबकि राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम उन कार्यकलापों, जो राष्ट्रीय सुरक्षा एवं अखंडता के लिये हानिकारक हैं, से संबंधित हैं और इसमें हवालात में निवारक रूप से रखने के उपबंध भी होते हैं, जिन्हें सामान्य कानूनों में स्थान नहीं प्राप्त होता है।
  • आतंकवाद मात्र एक गैर-कानूनी कार्यकलाप की अपेक्षा बहुत अधिक अनिष्ट-सूचक है। यह राष्ट्रीय सुरक्षा और अखंडता के लिये गंभीर खतरा है। इसलिये राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम आतंकवाद से निपटने के लिये उपबंध सम्मिलित करने हेतु अधिक संगत है।

सिफारिश

  • आतंकवाद के सभी पहलुओं से निपटने के लिये एक व्यापक और प्रभावी कानूनी ढाँचा अधिनियमित करना आवश्यक है। कानून में उसके दुरुपयोग को रोकने के लिये उन्हें पर्याप्त सुरक्षोपाय होने चाहिये। आतंकवाद से निपटने के लिये कानूनी उपबंधों को राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम, 1980 में एक पृथक अध्याय में सम्मिलित किया जा सकता है।

आतंकवाद की परिभाषा

  • आयोग ने अवलोकन किया गया कि कई बार आतंकवादी गुट सुरक्षा बलों या प्रवर्त्तन एजेंसियों के कार्मिकों को निरुत्साहित करने अथवा उनके द्वारा की गई किसी सख्त कार्रवाई का बदला लेने के लिये उन्हें लक्ष्य बनाते हैं। इन कार्यों के पीछे मूल प्रयोजन आतंकवादियों के विरुद्ध कार्रवाई करने से अन्य कार्मिकों को आतंकित करना है।
  • इसलिये आयोग का मानना है कि बदला लेने अथवा संगठन में अन्य को प्रभावित करने की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण जन प्रतिनिधियों तथा जन कार्यकर्त्ताओं की हत्या को भी आतंकवादी कार्य के रूप में वर्गीकृत किया जाना चाहिये।
  • इसके अलावा आतंकवाद-प्रतिरोधी कोई भी कार्यनीति तभी सफल हो सकती है अगर आतंकवादी कार्य की परिभाषा में आतंकवाद वित्तपोषण को शामिल किया जाये। आयोग का विचार है कि आतंकवादी कार्यकलापों के लिये निधियाँ जुटाने अथवा निधियाँ प्रदान करने सहित समर्थन देने को आतंकवादी कार्य जितना ही गंभीर अपराध मान कर इस प्रकार की गतिविधियों हेतु कठोर सजा का प्रावधान किया जाए।

सिफारिशें

उन आपराधिक कार्यों, जिन्हें प्रकृति में आतंकवादी माना जा सकता है, को अधिक स्पष्ट रूप से परिभाषित किया जाना आवश्यक है। इस परिभाषा की मुख्य विशेषताओं में अन्य बातों के साथ-साथ निम्नलिखित शामिल होना चाहिये-

  • जीवन, संपत्ति तथा सैन्य महत्त्व वाली संस्थानों/प्रतिष्ठानों के साथ महत्त्वपूर्ण अवसंरचना को क्षति पहुँचाने वाले अथवा क्षति पहुँचाने में सक्षम आग्नेयास्त्रों, विस्फोटकों या अन्य किसी घातक पदार्थ का प्रयोग करना।
  • जन कार्यकर्त्ताओं की हत्या या हत्या का प्रयास करना जिसका आशय भारत की अखंडता, सुरक्षा और संप्रभुता को खतरा पहुंचाना अथवा जनता के कार्यकर्त्ताओं पर रोब जमाने या लोगों अथवा लोगों के वर्ग को आतंकित करना हो।
  • सरकार को किसी विशेष तरीके से कार्य करने या न करने के लिये बाध्य करने हेतु किसी व्यक्ति को बंधक बनाना या मारने या घायल करने की धमकी देना।
  • उपर्युक्त कार्यकलापों के लिये वित्त सहित कोई सामग्री, सहायता या सुविधा प्रदान कराना।
  • आतंकवादी संगठनों के सदस्यों अथवा समर्थकों द्वारा ऐसे कार्य करना या ऐसे शस्त्र आदि रखना जिनसे किसी व्यक्ति को जान का खतरा अथवा चोट पहुँचती हो या किसी संपत्ति की क्षति होती हो।

ज़मानत एवं रिमांड की अवधि

  • आपराधिक दंड संहिता की धारा 167 के अधीन प्रत्येक व्यक्ति, जिसे गिरफ्तार किया जाता है, को गिरफ्तारी के 24 घंटे की अवधि के भीतर समीपस्थ मज़िस्ट्रेट के समक्ष प्रस्तुत किया जाना चाहिये। जाँच 24 घंटे के भीतर पूरी न होने की स्थिति में मज़िस्ट्रेट हवालात की अवधि अधिकतम 15 दिनों तक बढ़ाने के लिये प्राधिकृत है।
  • 15 दिनों की समाप्ति के बाद, अभियुक्त को पुन: एक बार मज़िस्ट्रेट के समक्ष प्रस्तुत किया जाना चाहिये, जो औचित्य देखने के बाद और 15 दिनों के लिये हवालात में रखने की अवधि बढ़ा सकता है; परंतु इस प्रकार हवालात में रखने की अवधि 60 दिनों से अधिक नहीं बढ़ाई जा सकती।
  • लेकिन जहाँ जाँच मृत्यु दंड, उम्रकैद या दस वर्ष से अनाधिक कैद की सजायोग्य अपराध से संबंद्ध हो, वहाँ यह अवधि 90 दिन की होगी। आपराधिक दंड संहिता की धारा 436 से 450 ज़मानत के प्रावधानों से संबंधित है।
  • चूँकि आतंकवादी कार्यों के अभियुक्त व्यक्ति सामान्य अपराधी नहीं होते और गवाह उन्हें या उनके परिवार के सदस्यों को शारीरिक नुकसान के भय से उनके विरुद्ध साक्ष्य देने से भयभीत रहते हैं।
  • इसलिये उनके विरुद्ध साक्ष्य एकत्रित करना कठिन और समय लगने वाला है। अगर ऐसे व्यक्तियों को अन्य अपराधियों के समान माना जाना है तो न्याय के क्रम में गंभीर रूप से रूकावट आएगी।
  • आतंकवादी संबद्ध अपराधों में गवाह-साधारणतया बदला लिये जाने के भय से गवाही देने में अनिच्छुक होते हैं। ऐसे मामलों की जाँच करना साधारण अपराधों की अपेक्षा प्राय: अधिक जटिल और समय लेने वाला होता है।
  • इससे पुलिस द्वारा गहन और दीर्घ जाँच की आवश्यकता हो सकती है। इसलिये आपराधिक दंड संहिता के अधीन निर्दिष्ठ समय-सीमा पर्याप्त नहीं होती है।

ज़मानत संबंधी सिफारिशे

ज़मानत देने के संबंध में कानून को प्रदान करना चाहिये कि:

  • लोक अभियोजक ज़मानत पर रिहाई के लिये अभियुक्त के ज़मानत के आवेदन का प्रतिरोध करता है वहीं इस अधिनियम अथवा उसके तहत बनाये गए किसी नियम के अंतर्गत सजायोग्य अपराध के अभियुक्त किसी व्यक्ति को ज़मानत पर रिहा नहीं किया जाएगा जब तक न्यायालय इस बात से संतुष्ट नहीं है कि अभियुक्त ऐसे अपराध करने का दोषी नहीं है।
  • समीक्षा समिति को आवधिक रूप से हिरासत में रखे सभी व्यक्तियों के मामले की समीक्षा करनी चाहिये और अभियोजन को ज़मानत पर अभियुक्त की रिहाई के बारे में सुझाव देना चाहिये और अभियोजन ऐसे सुझाव द्वारा बाध्य होगा।

रिमांड संबंधी सिफारिश:

  • आतंकवादी और अन्य संबद्ध अपराधों के लिये आपराधिक दंड संहिता की धारा 167 इस संशोधन के अधीन लागू होगी कि उप-धारा (2) में ‘पंद्रह दिनों’, ‘नब्बे दिनों’ और ‘‘साठ दिनों’ का संदर्भ जहाँ भी आए, को क्रमश: ‘तीस दिनों’, ‘नब्बे दिनों’ तथा ‘नब्बे दिनों’ के संदर्भ के रूप में माना जाएगा।

पुलिस अधिकारी के समक्ष अपराध-स्वीकरण

(Confession before a Police Officer)

  • स्व-अभिशंसन के विरुद्ध संरक्षण (Protection against Self Incrimination) संविधान और हमारी आपराधिक न्याय प्रणाली का मूल सिद्धांत है। इसे अनुच्छेद 20(3) में प्रतिष्ठापित किया गया है, जो कहता है कि ‘किसी भी अपराध के अभियुक्त किसी व्यक्ति को स्वयं के विरुद्ध साक्ष्य बनने के लिये बाध्य नहीं किया जाएगा।
  • भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा-25 किसी पुलिस अधिकारी को किये गए सभी अपराध-स्वीकरण को अस्वीकार्य बनाती है। यह उपबंध अपराध-स्वीकार कराने के लिये पुलिस द्वारा बल और यातना देने का आश्रय लेने की संभावना के कारण बनाया गया था।
  • यह उपबंध साधारण अपराधों से निपटने में सही हो सकता है इसके विपरीत आतंकवाद से निपटने में इस मुद्दे पर पुनर्विचार की आवश्यकता है।
  • पुलिस के समक्ष अपराध-स्वीकरण की स्वीकार्यता का प्रतिरोध करने वालों ने तर्क दिया है कि अगर कोई अभियुक्त स्वैच्छिक अपराध-स्वीकरण करने का इच्छुक है तो उसे किसी वरिष्ठ पुलिस अधिकारी के समक्ष हाजिर करने की बजाय मज़िस्ट्रेट के समक्ष हाज़िर किया जा सकता है। यह भी तर्क दिया गया कि पुलिस अपराध-स्वीकरण कराने के लिये उत्पीड़क विधियों का आश्रय ले सकती है।
  • आयोग का मानना है कि ‘सार्वजनिक व्यवस्था’ पर रिपोर्ट में सुझाये गए विस्तृत सुरक्षोपायों के बाद पुलिस पर उनके समक्ष दिये गए बयानों की स्वीकार्यता के संबंध में अविश्वास करने का कोई कारण नहीं होना चाहिये।
  • जब तक आयोग द्वारा सुझाये गए व्यापक पुलिस सुधार नहीं होते तब तक अपराध-स्वीकरण आपराधिक दंड संहिता की धारा 164 के अधीन न्यायिक मज़िस्ट्रेट के समक्ष किया जाता रहेगा।

पुलिस सुधारों पर आयोग की सिफारिशें:

  • आयोग ने ‘सार्वजनिक व्यवस्था’ पर रिपोर्ट (पाँचवी रिपोर्ट) में पुलिस के समक्ष अपराध-स्वीकरण के मुद्दे की जाँच की है। आयोग ने पुलिस के समक्ष अपराध-स्वीकरण को मान्य बनाने की पूर्वशर्त के रूप में पुलिस की संरचना और कार्यकरण में व्यापक सुधारों का सुझाव दिया है, जो किनिम्नलिखित है-
    • जाँच एजेंसी का पर्यवेक्षण स्वायत्तशासी जाँच बोर्ड द्वारा किया जाना चाहिये इससे यह सुनिश्चित होगा कि जाँच एजेंसी किसी बाह्य प्रभावों से बची रहेगी और वह एक व्यावसायिक तरीके से कार्य करेगी।
    • जाँच एजेंसी के कर्मचारियों को अपराध-वैज्ञानिक साधनों के प्रयोग के माध्यम से साक्ष्य एकत्रित करने और उत्पीड़क विधियों से बचने पर बल देकर अपने कार्य के प्रति विशेष रूप से प्रशिक्षित किया जाना चाहिये।
    • आयोग ने ज़िला शिकायत प्राधिकरण और एक राज्य पुलिस शिकायत प्राधिकरण भी स्थापित करने की सिफारिश की, जो प्रभावी रूप से पुलिस द्वारा किये गए कदाचार के मामलों से प्रभावी रूप से निपटेगा।

कानून के अधीन अनुमान (Presumptions under the Law)

  • सभी अपराधों में अभियुक्त का दोष स्थापित करने का दायित्व अभियोजन पर होता है अर्थात् प्रारंभ में किसी अभियुक्त के निर्दोष होने का अनुमान व्यक्त किया जाता है जब तक कि सभी उचित संदेह से परे उसका दोष सिद्ध नहीं हो जाता। हालाँकि एक वर्ग का मानना है कि साक्ष्य का दायित्व अभियुक्त पर अंतरित करना विधिशास्त्र के मूल सिद्धांतों का उल्लंघन है।
  • लेकिन दूसरा दृष्टिकोण यह है कि कुछ तथ्य हैं, जो केवल अभियुक्त की जानकारी में है तो अभियोजन द्वारा ऐसे तथ्यों की सत्यता स्थापित करना कठिन हो जाता है और इस स्थिति में साधारणतः लाभ अभियुक्त को मिलता है।
  • आयोग का विचार है कि अपराध की प्रकृति और एक तरफ इस सभावना के कारण कि यह एक ओर देश की सुरक्षा और अखंडता को खतरा पहुंचाता है दूसरी ओर लोगों में आतंक फैलाता है, यह आवश्यक है कि व्यक्ति, जो आतंकवादी कार्य में लिप्त रहा है, उस संरक्षण का प्रयोग करने में समर्थ नहीं हो, जो सामान्य कानूनों के अधीन एक अभियुक्त व्यक्ति को प्रदान किया जाता है

सिफारिशें

अनुमानों के संबंध में निम्नलिखित कानूनी उपबंध शामिल किया जाना चाहिये

  • अगर यह सिद्ध होता है कि अभियुक्त के पास से शस्त्र अथवा विस्फोटक या अन्य कोई खतरनाक पदार्थ बरामद हुआ था और यह सत्यापित किया जा सके कि समान प्रकृति के शस्त्र अथवा विस्फोटक या अन्य पदार्थ का प्रयोग ऐसा अपराध करने में किया गया था अथवा कि किसी विशेषज्ञ के साक्ष्य द्वारा अभियुक्त की उंगलियों के निशान अथवा अन्य कोई निश्चित साक्ष्य अपराध स्थल अथवा ऐसा अपराध करने के संबंध में प्रयुक्त शस्त्र एवं वाहन सहित किसी अन्य वस्तु पर पाए गए थे, तो न्यायालय अभियुक्त के विरुद्ध प्रतिकूल अनुमान करेगा।
  • अगर यह सिद्ध होता है कि अभियुक्त ने आतंकवाद के अपराध के अभियुक्त अथवा उचित रूप से संदिग्ध व्यक्ति को कोई वित्तीय सहायता प्रदान की है तो न्यायालय अभियुक्त के विरुद्ध प्रतिकूल अनुमान करेगा।

समीक्षा समिति (Review Committee)

  • आतंकवाद जैसे असाधारण और जटिल अपराधों से संबंधित कानूनों में असाधारण उपबंध अपेक्षित हैं, जो संबंधित एजेंसियों को विशेष साधन प्रदान करते हैं। इसलिये उनके दुरुपयोग की प्रवृत्ति हो सकती है।
  • आयोग का विचार है कि जहाँ जाँच, ज़मानत और मुकदमा चलाने आदि से संबंधित सख्त कानूनी उपबंध आतंकवादी कार्य से आरोपित व्यक्तियों के अभियोजन हेतु आवश्यक हैं, वहीं समान रूप से इन उपबंधों के किसी दुरुपयोग पर रोक लगाने के लिये एक प्रभावी सांविधिक संस्थात्मक कार्यतंत्र की व्यवस्था करना भी आवश्यक है।
  • इसलिये आयोग सिफारिश करता है कि राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम में प्रस्तावित नए अध्याय को एक स्वतंत्र समीक्षा समिति के गठन की व्यवस्था करनी चाहिये, जिसके समक्ष सभी मामले उन्हें दर्ज करने के 30 दिनों के भीतर समीक्षा हेतु प्रस्तुत किये जाने चाहिये।
  • विधि सचिव और पुलिस महानिदेशक की सदस्यता वाली समीक्षा समिति की अध्यक्षता राज्य के गृह सचिव द्वारा की जाएगी।

सिफारिश

  • दर्ज किये गए प्रत्येक मामले की उसे दर्ज किये जाने के 30 दिनों के भीतर जाँच करने के लिये सांविधिक समीक्षा समिति गठित की जानी चाहिये। समीक्षा समिति को अपनी संतुष्टि कर लेनी चाहिये कि जाँच एजेंसी द्वारा प्रथम दृष्टया मामला बनाया गया हैं और इस समिति को प्रत्येक तिमाही में प्रत्येक मामले की समीक्षा करनी चाहिये।

गवाह का संरक्षण

(Witness Protection)

  • भारत में गवाहों को संरक्षण देने के लिये अभी तक कोई कानून अधिनियमित नहीं हुआ है। मुकदमें के दौरान गवाहों और पीड़ितों को कुछ संरक्षण प्रदान करने के लिये कई उपाय अपनाए जाते हैं जैसे-
    • पीड़ित का बयान दर्ज करते समय पर्दे का प्रयोग ताकि गवाह पर अभियुक्त की उपस्थिति का प्रभाव न पड़े।
    • वीडियो कॉन्फ्रेसिंग के माध्यम से बयान दर्ज करना- यह एक अन्य विधि है, जिसके द्वारा कोई पीड़ित साक्ष्य देते समय अभियुक्त का प्रत्यक्ष सामना करने से बच सकता है।
    • गवाहों/पीड़ितों को संरक्षण प्रदान करना।

विशेष न्यायालय 

(Special Courts)

  • तीव्र गति से मुकदमा चलाने की संकल्पना हमारे संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत संरक्षित जीवन और स्वतंत्रता के बुनियादी अधिकार के अनिवार्य भाग के रूप में  में शामिल है। तीव्र गति से मुकदमा चलाने की संवैधानिक गारंटी उचित रूप से आपराधिक कार्यविधि संहिता की धारा 309 में वर्णित की गई है।
  • नए कानून में आतंकवाद संबद्ध अपराधों पर अतिशीघ्रतापूर्वक मुकदमा चलाने के लिये विशेष न्यायालयों के गठन का प्रावधान शामिल होना चाहिये। इन विशेष न्यायालयों को सुसज्जित तथा पीठासीन अधिकारियों और अभियोजकों, जिन्हें आतंकवाद संबद्ध मामलों को निपटाने के लिये विशेष रूप से प्रशिक्षित किया जाना चाहिये, सहित पूर्ण कर्मचारीयुक्त होना चाहिये।

शस्त्र आदि रखना

(Possession of Arms etc.)

  • अधिसूचित क्षेत्रों में कतिपय निर्दिष्ट शस्त्र ओर गोला-बारूद तथा अधिसूचित एवं  गैर-अधिसूचित क्षेत्रों में अनधिकृत विस्फोटक पदार्थ, जन संहार के हथियार जैविक अथवा रासायनिक पदार्थ को अनधिकृत रूप से रखने के लिये दंड का उपबंध आतंकवाद पर कानून में सम्मिलित किया जाना चाहिये।

आतंकवादी अपराधों की जाँच के लिये संघीय एजेंसी 

(A Federal Agency to Investigate Terrorist Offences)

  • आयोग ने इस मुद्दे पर सार्वजनिक व्यवस्था पर रिपोर्ट में विस्तृत चर्चा की है। आयोग ने अवलोकन किया है कि तथाकथित ‘‘संघीय अपराधों’’ की श्रेणी में शामिल किये जाने के लिये प्रस्तावित सभी अपराधों को भारतीय दंड कानूनों के अधीन शामिल किया जा चुका है।
  • हालाँकि ऐसे अपराधों की गंभीरता और जटिलता बढ़ जाने से इनसे निपटने के लिये उपयुक्त कार्यविधियाँ तैयार करना आवश्यक होगा। इसके लिये उन अपराधों, जिनका अंतर्राष्ट्रीय और राष्ट्रीय विस्तार की स्थिति से निपटने के लिये नए कानून का अधिनियमन आवश्यक होगा। यह किसी विशिष्ट राज्य अथवा केंद्रीय एजेंसी द्वारा उनकी जाँच भी सुविधाजनक बनाएगा।
  • प्रस्तावित नए कानून में निम्नलिखित अपराध शामिल किये जा सकते हैं:
    • संगठित अपराध
    • आतंकवाद
    • राष्ट्रीय सुरक्षा को खतरा पहुँचाने वाली गतिविधियाँ 
    • शस्त्रों और मानवों का अवैध व्यापार
    • राजद्रोह
    • अंतर्राष्ट्रीय विस्तार सहित बड़े अपराध
    • प्रमुख व्यक्तियों की हत्या (प्रयास सहित)
    • गंभीर आर्थिक अपराध
  • कार्मिक, लोक शिकायत और विधि एवं न्याय पर गठित एक स्थायी संसदीय समिति ने अपनी 24वीं रिपोर्ट में CBI को एक पृथक आतंकवाद-रोधी प्रभाग और आतंकवाद जैसे मामलों में जाँच का स्थानांतरण करने का कार्यतंत्र सृजित करते हुए केंद्रीय आसूचना एवं जाँच ब्यूरो के रूप में पुनर्गठित करने का प्रस्ताव किया।

सिफारिशें

  • आयोग ने सार्वजनिक व्यवस्था पर अपनी रिपोर्ट में आतंकवाद संबद्ध अपराधों की जाँच करने के लिये सीबीआई में एक विशिष्ट प्रभाग के सृजन पर की गई सिफारिशें दोहराई है।
  • यह सुनिश्चित किया जाना चाहिये कि सीबीआई के इस प्रभाग में व्यावसायिक रूप से दक्ष निष्ठावान कार्मिकों की नियुक्ति की जाए। इस एजेंसी की स्वायत्तता और स्वतंत्रता, नियुक्ति की निर्धारित कार्यविधि तथा उसके कार्मिकों के लिये नियत कार्यकाल के माध्यम से सुनिश्चित की जा सकती है।

आतंकवाद के वित्तपोषण के विरुद्ध उपाय

  • आतंकवादी कार्यकलापों को पर्याप्त वित्तीय सहायता की अपेक्षा होती है। ऐसे कार्यकलापों में साधारणतया अपने लक्ष्यों की प्राप्ति के लिये उग्रवादी कार्रवाई को समर्थन करने वाली विचारधारा का प्रचार, ऐसे लक्ष्यों को और आगे बढ़ाने में उग्रवादी कार्रवाई करने के इच्छुक समर्पित अनुयायियों की संख्या बढ़ाना, शस्त्रों एवं  विस्फोटकों की प्राप्ति तथा इनका प्रशिक्षण, उग्रवादी कार्रवाई की आयोजना और निष्पादन आदि शामिल होते हैं। इन सभी को आवश्यक रूप से काफी वित्तीयन की आवश्यकता होती है।
  • आतंकवादी संगठन या तो मादक द्रव्यों के अवैध व्यापार, तस्करी आदि में शामिल संगठनों के सहयोग से धन शोधन (Money Laundering) का आश्रय लिये बिना कार्य करते हुए अथवा आश्रय लेते हुए अपने कार्यकलापों का वित्तपोषण कर सकते हैं।
  • वित्तपोषण में मुद्रा की जालसाजी भी शामिल हो सकती है। अंतर्राष्ट्रीय व्यापार द्वारा प्रदान की गई सुविधाओं का प्रयोग करने के अतिरिक्त, ऐसे संगठन थोक में नकद राशि की तस्करी का सहारा भी लेते हैं और हवाला जैसे धनराशि के अंतरण के अनौपचारिक माध्यमों का प्रयोग करते हैं। यही कारण है अंतर्राष्ट्रीय रूप से धनशोधन-रोधी और आतंकवादी-वित्त रोधी (AMLऔरCTF) प्रणाली का विलय करने की प्रवृत्ति रही है।
  • आतंकवादी कार्यकलापों के वित्तपोषण से संबद्ध तथा धन शोधन से संबंधित कार्यकलापों को दो विशेषताएँ अलग करती हैं, जिनका आतंकवादी वित्त-रोधी प्रणाली में अपनाई जाने वाली कार्यनीति की प्रकृति पर प्रभाव होता है। ये निम्नानुसार हैं-
  1. धनशोधन के मामले में कार्यकलाप गैर-कानूनी गतिविधियों/अपराध से आय की उत्पत्ति से प्रारंभ होता है और वैधानिक परिसंपत्तियों (चल अथवा अचल) में उनके परिवर्तन से समाप्त होता है। दूसरी ओर आतंकवादी कार्यकलापों का वित्तपोषण कानूनी अथवा गैर-कानूनी निधियों से हो सकता है और इसकी समाप्ति तब होती है, जब यह आतंकवादियों तक यह पहुँच जाता है। यहाँ तक कि अगर इसमें बीच में धनशोधन के कार्यकलाप शामिल है तो धनराशि उसके गंतव्य तक जाना जारी रहेगी। यह आतंकवादी वित्त को शामिल करने वाले मामलों की जाँच के दायरे को व्यापक बनाता है।
  2. धनशोधन के मामले में, यहाँ तक कि अगर गैर-कानूनी कार्यकलापों/अपराध की आय का शोधन होता है तो प्रवर्त्तन प्राधिकारी द्वारा कार्योत्तर जाँच के आधार पर प्रभाव को निरस्त किया जा सकता हैं। आतंकवाद के वित्तीयन के मामले में एक बार जब वित्त शृंखला पूरी हो गई हो और आतंकवादी कार्य हो गया तो केवल कार्योत्तर जाँच ही की जा सकती है क्योंकि तब तक जन-धन और जनता के विश्वास की क्षति हो चुकी होती है।
  • आतंकवादी कार्यकलापों के वित्तीय पहलुओं से निपटने की कार्यनीति के मुख्य घटक निम्नलिखित हैं:
    • परिसपंत्ति वसूली और अवरोधक शक्तियाँ।
    • आतंकवाद के वित्तपोषण में शामिल व्यक्तियों/संगठनों के विरुद्ध कानूनी दंड।
    • वित्तीय संस्थाओं/एजेंसियों द्वारा सतत् ग्राहक पहचान कार्यक्रम और रिकार्ड रखने की मानक कार्यविधियाँ अपनाना।
    • व्यक्तियों और संस्थाओं द्वारा संदिग्ध-वित्तीय कार्यकलाप की सूचना देना।
    • धनशोधन रोधी उपाय।
    • शामिल एजेंसियों के बीच क्षमता निर्माण और समन्वय कार्यतंत्र।
    • अंतर्राष्ट्रीय सहयोग।

भारत में उपाय

धनशोधन रोधी उपाय

  • धनशोधन से संबद्ध उपबंध धनशोधन निवारण (संशोधन) अधिनियम, 2005 द्वारा यथा संशोधित धनशोधन निवारण अधिनियम, 2002 (PMLA) में विहित है।

PMLA की धारा 2 (P) धनशोधन के अपराध को निम्नानुसार परिभाषित करती है-

  • ‘जो कोई भी प्रत्यक्षत: अथवा अप्रत्यक्षत: अपराध की आय से संबंधित किसी प्रक्रिया अथवा कार्यकलाप में लिप्त होने का प्रयास करता है अथवा जानबूझकर सहायता करता है या जानबूझकर उसमें सम्मिलित है या उसमें वास्तविक रूप से शामिल है और उसे निष्कलंक संपत्ति के रूप में प्रदर्शित करता है, धनशोधन के अपराध का दोषी होगा।‘
  • धनशोधन ‘अपराध से आय’ से संबंधित कार्यकलापों/अपराधों तक सीमित है। ‘अपराध की आय’ को अनुसूचित अपराध से संबंधित आपराधिक कार्यकलाप के परिणामस्वरूप किसी व्यक्ति द्वारा प्रत्यक्षत: अथवा अप्रत्यक्षत: प्राप्त किसी संपत्ति के रूप में अधिनियम की धारा 2 (Y) में परिभाषित किया गया है।
  • इस प्रकार धनशोधन एक अपराध तभी होगा अगर यह अपराध की आय, जिसका उल्लेख अधिनियम की अनुसूची में किया गया है, से संबंधित किसी कार्यकलाप से संबद्ध है। इन अनुसूचित अपराधों से असंबद्ध लेन-देन अधिनियम के सीमाक्षेत्र से बाहर होगा।
  • अनुसूची में सूचीबद्ध अपराधों पर नजर डालने से पता चलता है कि संगठित अपराध और धोखाधड़ी, आतंकवादी वित्तपोषण सहित आतंकवाद, मानव तस्करी, चुराई गई और अन्य वस्तुओं का अवैध व्यापार, धोखाधड़ी, विशेषकर वित्तीय धोखाधड़ी; सामग्रियों की जालसाजी एवं चोरी,  तस्करी और इनसाइडर ट्रेडिंग व पूंजी बाजार की जालसाजी आदि उसमें सूचीबद्ध नहीं हैं।

धनशोधन अपराधों की जाँच

  • PMLA कानून प्रवर्तन करने वाले अधिकारियों की शक्ति और प्राधिकार का वर्णन करता है।
  • यह अधिनियम लेन-देन सूचना प्रणाली (Transaction Reporting Regime) की भी व्यवस्था करता है, जिसे एक पृथक वित्तीय आसूचना यूनिट द्वारा प्रशासित किया जाता है।
  • PMLA के मामले में प्रवर्तन निदेशालय कानून प्रवर्तन एजेंसी है।

वित्तीय आसूचना यूनिट

  • PMLA के दिनांक 1 जुलाई, 2005 से लागू होने के बाद, अधिनियम में यथा संकल्पित वित्तीय लेनदेन के संबंध में रिपोर्टिंग प्रणाली भी लागू हुई। इससे भारतीय वित्तीय आसूचना यूनिट (FIU-इंडिया) का सृजन हुआ। FIU-इंडिया को लेनदेन सूचित करने के प्रारूप मार्च, 2006 में अधिसूचित किये गए थे।
  • विनियमनों में निर्धारित लेन-देनों के रिकार्ड का रख-रखाव, निर्धारित प्रारूप में FIU-इंडिया को सूचना प्रस्तुत करना और निर्धारित तरीके से ग्राहकों का सत्यापन शामिल है।
  • FIU-इंडिया इन रिपोर्टों का विश्लेषण करती है और सूचना का प्रचार उपयुक्त प्रवर्त्तन/आसूचना एजेंसियों को करती है।
  • सूचित लेन-देनों की मात्रा में उनकी सापेक्षित जटिलता में वृद्धि के साथ निरंतर वृद्धि होगी इसलिये FIU-इंडिया को चुनौतियों का सामना करने के लिये संगठनात्मक रूप से सुदृढ़ किया जाना चाहिये।

समन्वय

  • FIU-इंडिया द्वारा धन शोधन से संबद्ध संदिग्ध लेन-देनों पर प्रदान की गई विशिष्ट जानकारियों के अतिरिक्त, प्रवर्तन निदेशालय को उपलब्ध आर्थिक अपराधों से निपटने वाली विभिन्न एजेंसियों के बीच समन्वय और सहयोग करने वाला मुख्य मंच क्षेत्रीय आर्थिक आसूचना परिषद (Regional Economic Intelligence Council-REIC) है।
  • वर्ष 1996 में गठित REIC अपने संबंधित क्षेत्रों में आर्थिक अपराधों से निपटने वाली विभिन्न प्रवर्तन और जाँच एजेंसियों के बीच प्रचालनात्मक समन्वय सुनिश्चित करने के लिये नोडल क्षेत्रीय एजेंसियों हैं। इसमें CBDT, CBEC, CBI, प्रवर्तन निदेशालय के नामोदिष्ट अधिकारी, क्षेत्र में संघ और राज्य सरकारों की संबद्ध एजेंसियों के प्रमुख RBI, SBI, कंपनी रजिस्ट्रार आदि शामिल होते हैं।
  • REIC के कार्यकरण का समन्वय राजस्व विभाग, वित्त मंत्रालय के प्रशासनिक नियंत्रणाधीन केंद्रीय आर्थिक आसूचना ब्यूरो (CEIB)  द्वारा किया जाता है। CEIB आर्थिक आसूचना के लिये नोडल एजेंसी के रूप में कार्य करता है।

सिफारिशें

  • धनशोधन निवारण अधिनियम (PMLA) को उसके सीमाक्षेत्र और विस्तार को व्यापक करने के लिये लाक्षणिक अपराधों की सूची का विस्तार करने के लिये अतिशीघ्र उचित रूप से संशोधित किया जाए।
  • वह चरण जिस पर PMLA के अधीन खोज और जब्ती की कार्रवाई की जा सकती है, व्यापक विस्तार वाले मामलों मे आगे बढ़ाया जा सकता है और ऐसे मामलों में पर्याप्त सुरक्षोपाय भी किये जा सकते हैं।
  • यह जाँच की जाए कि क्या प्रवर्तन निदेशालय और अन्य आसूचना एकीत्रीकरण एवं जाँच एजेंसियों के बीच संस्थात्मक समन्वय कार्यतंत्र सुदृढ़ किया जा सकता है या नहीं तथा प्रवर्तन निदेशालय द्वारा उन्हें PMLA के कुछ उपबंध प्रत्यायोजित किये जा सकते हैं या नहीं।
  • वित्तीय आसूचना यूनिट (FIU-इंडिया) के अधीन वित्तीय लेन-देन की रिपोर्टिंग प्रणाली का स्थावर संपदा जैसे उच्च जोखिम वाले क्षेत्रों को शामिल करने के लिये विस्तार किया जा सकता है। FIU-इंडिया की क्षमता को भी इसे भावी चुनौतियों का सामना करने के लिये सुदृढ़ करना आवश्यक है।
  • उन मामलों, जिनमें धनशोधन से संबद्ध होना संदिग्ध है, में विभिन्न जाँच एजेंसियों के बीच वर्द्धित समन्वय के लिये क्षेत्रीय आर्थिक आसूचना परिषद (REIC) के मंच का उपयोग हो सकता है। इसके अतिरिक्त, शामिल मामलों की जटिलता के कारण एजेंसी विशिष्ट सूचना का प्रसार करने के अतिरिक्त FIU-इंडिया को सूचना प्रणाली का विस्तार करने की दृष्टि से संबंधित REIC को प्रसारित करने के लिये केंद्रीय आर्थिक आसूचना ब्यूरो (CEIB) को समग्र क्षेत्र केंद्रिक सूचना प्रस्तुत करनी चाहिये।

आतंकवादी कार्यकलापों के वित्तपोषण के लिये निधियों का प्रवाह रोकने के उपाय

  • जहाँ आतंकवादी वित्त व्यवस्था का मुकाबला करने के लिये प्रभावी धन शोधन प्रणाली एक अनिवार्य तत्व है वहीं आतंकवादी कार्यकलापों का वित्तपोषण रोकने के लिये कुछ अतिरिक्त उपाय भी अपेक्षित हैं। जैसे- आतंकवादी वित्तव्यवस्था को अपराध बनाना और आतंकवादी कार्यकलापों के वित्तपोषण के मार्ग को अवरुद्ध करना। आतंकवाद के लिये निधियाँ जुटाने को अपराध बनाने के अतिरिक्त, ऐसे कार्यों के निवारण पर भी ध्यान केंद्रित किया जाना होगा।
  • आतंकवादी कार्यकलापों का वित्तपोषण कई तरीकों के माध्यम से किया जा सकता है, जैसे-
    • व्यापारिक लेन-देनों के माध्यम से मूल्य अंतरण।
    • हवाला लेन-देन।
    • मुद्रा की तस्करी।
    • जालसाजी।
    • वित्तीय संस्थाओं और सामान्य जनता से धोखाधड़ी।
    • छूटों का झूठा दावा।
    • वापसियों (Returns) का झूठा गया।
    • साधन के रूप में अलाभकारी संगठनों और धार्मिक न्यासों का प्रयोग करना।
    • मादक द्रव्यों का अवैध व्यापार और स्वापक व्यापार।
    • पूंजी और पण्यवस्तु बाज़ार में निवेश और व्यापार (विदेशी निवेश सहित)।
    • स्थावर संपदा में लेन-देन आदि।
  • उपरोक्त पारंपरिक विधियों के अलावा ऑनलाइन भुगतान, व्यापार आधारित धनशोधन, दान का दुरुपयोग, झूठे दावे जैसी विधियों का भी हाल के वर्षों में आतंकवादी कार्यकलापों के वित्तपोषण में प्रयोग बढ़ने लगा है।
  • चूँकि ऐसे कार्यकलापों से संबद्ध लेन-देनों की जाँच के लिये विशिष्ट जाँच तकनीकों और कुशलताओं की अपेक्षा होती है, इसलिये आतंकवादी-रोधी कानून के अधीन जाँच करने की उत्तरदायी एजेंसियों में बहुआयामी जाँच दल तैयार करने की आवश्यकता है।
  • ऐसे कार्यकलापों की जाँच करने के लिये प्राधिकारी जाँच एजेंसियों को संदिग्ध आतंकवादी वित्तपोषण कार्यकलापों का पता लगाने के लिये अधिक संसाधन और मानवशक्ति लगाने की आवश्यकता है ताकि आसूचना एजेंसियों तथा आतंकवादी मामलों की जाँच करने के लिये अधिकार प्राप्त प्राधिकारियों को सूचनाएँ प्रदान की जा सकें।
  • इस संबंध में सूचना का एक दूसरा महत्त्वपूर्ण स्रोत FIU-इंडिया द्वारा प्रशासित वित्तीय रिपोर्टिंग प्रणाली है।

सिफारिशें

  • आतंकवाद पर नया कानूनी ढाँचा आतंकवादी कार्यकलापों में निधियों के प्रयोग की स्थिति में संदेह परिसंपत्तियों, बैंक खातों, जमाराशियों, नकद राशि आदि को ज़ब्त करने से संबंधित उपबंध सम्मिलित करता है। इन उपबंधों को अनुशंसित राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम, 1980 में एक पृथक अध्याय में सम्मिलित किया गया।
  • विभिन्न स्रोतों से एकत्रित सूचना से प्रदान किये गए वित्तीय उदाहरणों पर संगठित कार्रवाई करने के लिये वित्त और गृह तथा मंत्रिमंडल सचिवालय के केंद्रीय मंत्रालयों से विशेषज्ञता लेते हुए प्रस्तावित राष्ट्रीय आतंकवाद-रोधी केंद्र में एक विशिष्ट कक्ष सृजित किया जा सकता है। इसके अतिरिक्त, वित्तीय लेन-देनों से निपटने वाली विभिन्न जाँच एजेंसियाँ आतंकवाद-रोधी कार्यकलापों में शामिल आसूचना एजेंसियों के प्रयासों को बढ़ावा देने के लिये अपने संगठन के भीतर आतंकवादी-रोधी वित्त कक्ष स्थापित कर सकती है।
  • आतंकवादी कार्यकलापों से संबद्ध विशिष्ट मामलों/मामलों के समूह के वित्तीय पहलुओं की तीव्रतर जाँच के लिये आतंकवाद से संबद्ध अपराधों की जाँच करने का उत्तरदायित्व सौंपी गई एजेंसियों के भीतर समर्पित दल गठित किये जा सकते हैं। इसे अल्पावधि जैसे तीन से छ: माह के लिये वित्तीय जाँच के विभिन्न पहलुओं में विशेषज्ञता वाले अधिकारियों को शामिल करके पूरा किया जा सकता है। ऐसे क्षमता निर्माण और आतंकवादी-रोधी उपायों की प्रभावोत्पादकता का सुदृढ़ीकरण सुविधाजनक बनाने के लिये संबंधित केंद्रीय एवं राज्य मंत्रालयों/विभागों के बीच इसकी प्राप्ति के लिये प्रोटोकॉल स्थापित किया जा सकता है।

आतंकवाद से संघर्ष करने में नागरिकों, नागरिक समाज और प्रचार माध्यम की भूमिका

आतंकवाद से संघर्ष करके के लिये बहुआयामी कार्रवाई के लिये सभी मोर्चों पर समन्वय  की अपेक्षा होगी और प्रत्येक एजेंसी/संस्था को महत्त्वपूर्ण भूमिका निभानी होगी।

शिक्षा

  • राष्ट्रीय शैक्षणिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद (NCERT) ने शिक्षकों के लिये प्रशिक्षण कार्यक्रम आयोजित करने एवं शांति के लिये शिक्षक-शिक्षा के साथ ही संसाधन सामग्री का विकास जैसी पहलें की हैं।
  • NCERT द्वारा गठित शांति के लिये शिक्षा पर राष्ट्रीय ध्यान केंद्रक समूह ने इन पहलों के अंतर्निहित बुनियादी सिद्धांत का वर्णन किया है जो कि निम्नलिखित हैं-
    • स्कूल शांति के लिये संभावित संवर्द्धन स्थल हैं क्योंकि स्कूली शिक्षा में किसी व्यक्ति के जीवन के रचनात्मक वर्ष शामिल होते हैं, जिसके दौरान बच्चों को हिंसा की बजाय शांति की ओर उन्मुख किया जा सकता है।
    • शिक्षक, विद्यार्थियों में मानव मूल्य मन में बैठाने के लिये विद्यार्थी केंद्रित शिक्षा पर ध्यान केंद्रित करने हेतु शैक्षणिक पाठ्यक्रम से आगे जाकर सामाजिक चिकित्सक हो सकते हैं।
    • शांति संबंधी कौशल शैक्षणिक उत्कृष्टता का संवर्द्धन करती है क्योंकि एक-दूसरे के साथ सहयोग करना और सकारात्मक प्रवृत्ति विकसित करना एक अच्छे विद्यार्थी तथा साथ ही शांतिप्रिय व्यक्ति का प्रमाण-चिह्न होता है।

राष्ट्रीय ध्यानकेंद्रण समूह द्वारा सुझाव दी गई शांति की शिक्षा के लिये कुछ सिफारिशें

  • स्कूलों में शांति क्लब और शांति पुस्तकालय स्थापित करें। पूरक पठन सामग्रियां उपलब्ध कराई जाएँ जो शांति के महत्व और कुशलता का संवर्द्धन करती हैं।
  • शांति के लिये शिक्षा में हितधारक के रूप में प्रचार माध्यम को सहयोजित करें। समाचारपत्रों से धर्म पर लिखे जाने वाले कॉलमों के समान शांति पर कॉलम लिखने के लिये अनुरोध किया जा सकता है। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से स्कूलों में शांति की शिक्षा के लिये आवश्यक तैयार किये गए कार्यक्रमों का प्रसारण करने के लिये अनुरोध किया जा सकता है। इनमें शांति शिक्षक होने के लिये शिक्षकों को प्रेरित करने और समर्थ बनाने पर विशेष ध्यान केंद्रित करने की आवश्यकता है।
  • भारत की सांस्कृतिक और धार्मिक विविधता; मानवाधिकार दिवस, भिन्न रूप से सक्षम लोगों के दिवस; बालिका दिवस; महिला दिवस और पर्यावरण दिवस समारोह मनाने में विद्यार्थियों को समर्थ बनाने के लिये स्कूलों में प्रावधान करना।
  • स्कूली विद्यार्थियों के लिये ज़िला-स्तरीय शांति समारोह आयोजित करना।
  • भ्रांतियों, क्षेत्रीयता, जाति और वर्ग की बाधाएँ दूर करने के लिये विद्यार्थियों की सहायता हेतु विभिन्न विषय क्षेत्रों से विद्यार्थियों के बीच अल्पावधिक आदान-प्रदान सुविधाजनक बनाना।
  • कुछ मदरसों में समर्थन की जा रही ज़ेहादी आतंकवाद की परिघटना के प्रत्युत्तर का प्रतिरोध इस्लाम के सच्चे सार पर बल देकर करना आवश्यक है। मदरसा जैसी शैक्षणिक संस्थाएँ तथा साथ ही अन्य सामाजिक संस्थाएं इस संबंध में बड़ी भूमिका निभा सकती हैं।
  • वास्तव में धर्मनिरपेक्ष तथा धार्मिक विचारधाराओं को एक साथ शामिल करते हुए शांति की शिक्षा के संवर्द्धन के लिये एक संपूर्ण कार्यनीति होना महत्त्वपूर्ण है।

सिफारिशें

  • NCERT ने देश में शांति के लिये शिक्षा के संवर्द्धन हेतु स्कूली शिक्षा से संलग्न संस्थानों, स्वैच्छिक एजेंसियों और गैर-सरकारी संगठनों आदि को प्रोत्साहित एवं समर्थन देने की एक योजना का प्रस्ताव किया। इन पहलों को आवश्यक निधियों और अन्य वास्तविक समर्थन से प्रोत्साहित किया जाना आवश्यक है।
  • इस योजना का विस्तार धार्मिक स्कूलों तक करने की व्यवहार्यता की जाँच करने की भी आवश्यकता है।

 नागरिक समाज

  • आतंकवाद के खतरे के प्रति व्यापक और बहुआयामी कार्यवाई में नागरिक समाज के महत्त्व को संयुक्त राष्ट्र महा सभा द्वारा मान्यता दी गई थी। जिसने दिनांक 8 सितंबर, 2006 को संयुक्त राष्ट्र वैश्विक आतंकवाद प्रतिरोध कार्यनीति को अपनाया। सदस्य राष्ट्रों ने इस कार्यनीति के क्रियान्वयन में गैर-सरकारी संगठनों तथा नागरिक समाज के प्रयासों को बढ़ावा देने की प्रतिबद्धता व्यक्त की।
  • हाल के वर्षों में सार्वजनिक कार्यों में नागरिक समाज के समूहों की भागीदारी में काफी वृद्धि हुई है। वे नागरिकों की शिकायतों की ओर सरकार का ध्यान आकर्षित करने में सहायक रहे हैं और वे आतंकवादियों से निपटते समय सुरक्षा बलों द्वारा ‘मानवाधिकारों के उल्लंघनों’ का विशेष उल्लेख करने में भी सक्रिय रहे हैं।
  • इन समूहों की निचले स्तर के साथ समीपता को देखते हुए उनकी क्षमता का प्रयोग भी कई प्रकार से किया जा सकता है जो ‘स्थानीय’ आसूचना प्रकार की सूचना सहित आतंकवाद के विरुद्ध राष्ट्र के संघर्ष में सहायता करेगी।
  • नागरिक समाज संपूर्ण समुदाय द्वारा बरती जाने वाली बुनियादी सावधानियों से अवगत कराने में एक सलाहकार और शैक्षिक भूमिका निभा सकते हैं क्योंकि अधिकांश आतंकवादी हमलों में आम नागरिक ही लक्ष्य होता है। इसलिये यह आवश्यक है कि नागरिक ऐसी किसी घटना से निपटने के लिये स्वयं सुसज्जित और प्रशिक्षित हों क्योंकि पीड़ित होने के अतिरिक्त वे प्राय: किसी संकट में पहले प्रत्युत्तरदाता हैं।
  • नागरिक समाज और गैर-सरकारी संगठन उदाहरणार्थ स्थानीय संस्कृति, धार्मिक प्रथाओं और कतिपय समुदायों की परंपराओं की विविधता की जागरूकता फैलाने तथा समुदाय के तनावों को दूर करने और उनके घावों को भरने के लिये बाह्य कार्यकलाप विकसित करने पर ध्यान केंद्रित करते हुए सहयोग के लक्षित कार्यक्रम विकसित करने के लिये कानून प्रवर्त्तन एजेंसियों के साथ भागीदारी कर सकते हैं।

प्रचार माध्यम

  • प्रचार माध्यम समाचारपत्रों, प्रकाशनों, इलेक्ट्रॉनिक मीडिया और इंटरनेट सहित जन सूचना एवं संचार के सभी माध्यमों को प्रदर्शित करने के लिये प्रयुक्त एक व्यापक शब्द है। प्रचार माध्यमों ने जन जीवन में सदैव मुख्य भूमिका निभाई है।
  • इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के शुभारंभ और प्रिंट मीडिया के आधुनिकीकरण से प्रचार माध्यम का सीमा क्षेत्र, प्रभाव एवं प्रतिक्रिया अवधि काफी सुधर गई हैं। ऐसे भी उदाहरण रहे हैं जहाँ प्रचार माध्यम की रिपोर्टों ने विवादों को भड़काया है; यद्यपि कई अवसरों पर वे हिंसा फैलने से रोकने में सहायक भी रहे हैं।
  • इस प्रकार, प्रचार माध्यम के अभिप्राय पर ध्यान दिये बिना समाचार का कवरेज आतंकवादियों की प्रत्याशाएँ पूरी कर सकता है। आतंकवादियों में भी प्रचार की लालसा होती है और प्रचार माध्यम को आतंकवादियों को उनके कार्य में अनजाने ही सहायता नहीं करनी चाहिये।
  • यह आवश्यक है कि सरकार को आतंकवाद को परास्त करने की अपनी कार्यनीति का भाग के रूप में जन प्रचार माध्यम की शक्ति का उपयोग करने के लिये कार्य करना चाहिये। निम्नलिखित बिंदुओं पर आधारित एक सकारात्मक प्रचार माध्यम नीति होना आवश्यक है-
    • शासन में पारदर्शिता।
    • सूचना और स्रोतों तक सरल पहुँच।
    • प्रशासनिक, कानूनी और न्यायिक उल्लंघनों और ज्यादतियाँ जो आतंकवाद की स्थिति में नागरिक तथा प्रजातांत्रिक अधिकारों को खतरे में डालती है, की जाँच करने और रोकने के लिये सतर्कता के साधन के रूप में प्रचार माध्यम की भूमिका को आगे बढ़ाना।
    • संकट विशेषकर आतंकवाद की संसूचित, उचित और संतुलित कवरेज करने की अपनी भूमिका पूरी करने के लिये प्रचार माध्यम को संलग्न करना, समर्थ बनाना, प्रोत्साहित करना एवं सहायता करना।
  • प्रचार माध्यम की नीति में आत्मसंयम का सिद्धांत शामिल करना चाहिये। प्रकाशकों, संपादकों और रिपोर्टरों को प्रचार माध्यम के कवरेज के उन तत्वों से बचने एवं अपवर्जित करने के लिये सुग्राही बनाना आवश्यक है, जो अनजाने ही आतंकवाद की कार्यसूची को बढ़ावा देते हैं।
  • प्रचार माध्यम के सभी रूपों को यह सुनिश्चित करने के लिये कि आतंकवादी हमले से उत्पन्न प्रचार अपने घृणित आशय से आतंकवादी की सहायता नहीं करे तथा एक आत्म नियंत्रण आचार संहिता तैयार करने के लिये प्रोत्साहित किया जाना चाहिये।

निष्कर्ष

  • विकास, स्थायित्व, सुशासन और कानून का शासन एक दूसरे से सहसंबद्ध हैं और अशांति को उत्पन्न कोई भी खतरा देश के सतत विकास के उद्देश्य में बाधा बनता है। आतंकवाद न केवल राजनीतिक और सामाजिक वातावरण को नष्ट करता है बल्कि देश के आर्थिक स्थायित्व को खतरा भी पहुँचाता है, प्रजातंत्र को दुर्बल बनाता है और यहाँ तक कि सामान्य नागरिकों को जीने के उनके अधिकार सहित बुनियादी अधिकारों से वंचित करता है।
  • आतंकवादी किसी धर्म अथवा संप्रदाय या समुदाय के नहीं होते। आतंकवाद कुछ उग्र लोगों, जो अपने घृणित लक्ष्यों की प्राप्ति में निर्दोष नागरिकों की लक्षित हत्या का आश्रय लेते हैं, द्वारा प्रजातंत्र और सभ्य समाज पर हमला है।
  • आज आतंकवाद ने आधुनिक संचार प्रणालियों, संगठित अपराध, मादक द्रव्य के अवैध व्यापार, जाली मुद्रा और वैश्विक स्तर पर इनके प्रयोग सहित विश्वभर में अंतर्राष्ट्रीय शांति और स्थायित्व को खतरा पहुँचाते हुए नया तथा अधिक खतरनाक आयाम प्राप्त कर लिया है। इसीलिये आतंकवाद के विरुद्ध संघर्ष में अंतर्राष्ट्रीय सहयोग अनिवार्य है।
  • भारत आतंकवाद के सबसे अधिक पीड़ितों में से एक रहा है परंतु हमारे समाज ने सांप्रदायिक सौहार्द और सामाजिक तालमेल बनाए रखते हुए बारंबार एवं बेलगाम आतंकवादी हमलों के समय अभूतपूर्व जीवटता तथा समुत्थान शक्ति प्रदर्शित की है।
  • आतंकवाद-रोधी कार्यनीति को यह मानना चाहिये कि आतंकवाद कार्य न केवल निर्दोषों को बर्बाद करता है परंतु हमारे समाज को विभाजित करता है, लोगों के बीच मतभेद उत्पन्न करता है और समाज के ताने-बाने को अत्यधिक क्षति भी पहुँचाता है।

आतंकवादियों और राष्ट्र-विरोधी कार्यकलापों के विरुद्ध सुरक्षा एजेंसियों द्वारा सतत् और सख्त कार्रवाई करने के अतिरिक्त नागरिक समाज भी आतंकवादी कार्यकलापों को रोकने और आतंकवाद की विचारधारा का प्रतिरोध करने में मुख्य भूमिका निभा सकता है। आतंकवाद के विरुद्ध संघर्ष करने में नागरिकों और प्रचार माध्यम द्वारा सहयोग भी समान रूप से महत्त्वपूर्ण है। रिपोर्ट का बल इस बात पर है कि सुशासन, सम्मिलित विकास, सतर्क प्रचार माध्यम और एक जागरूक नागरिकता के साथ संयोजित कानूनी एवं प्रशासनिक उपायों को शामिल करते हुए एक बहुआयामी दृष्टिकोण आतंकवाद किसी भी रूप को परास्त कर सकता है।

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