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Sambhav-2024

  • 28 Feb 2024 सामान्य अध्ययन पेपर 3 पर्यावरण

    दिवस 87

    Q1. यूट्रोफिकेशन और मरुस्थलीकरण के कारणों और परिणामों पर चर्चा करते हुए पारिस्थितिकी तंत्र एवं मानव आजीविका पर इनके प्रभावों पर प्रकाश डालिये। (250 शब्द)

    उत्तर

    हल करने का दृष्टिकोण:

    • प्रश्न के संदर्भ को ध्यान में रखते हुए उत्तर की शुरुआत कीजिये।
    • सुपोषण और मरुस्थलीकरण के कारणों एवं परिणामों पर चर्चा कीजिये।
    • पारिस्थितिकी तंत्र एवं मानव आजीविका पर उनके प्रभावों का वर्णन कीजिये।
    • उचित निष्कर्ष लिखिये।

    परिचय:

    सुपोषण का तात्पर्य जल निकायों में पोषक तत्त्वों का संवर्द्धन होना है, जिससे जल निकाय पौधों की वृद्धि होने के साथ ऑक्सीजन की कमी हो जाती है, जबकि मरुस्थलीकरण का आशय मुख्य रूप से मानव गतिविधियों और जलवायु परिवर्तन के कारण शुष्क, अर्द्ध-शुष्क तथा शुष्क उप-आर्द्र क्षेत्रों में भूमि का क्षरण होना है।

    मुख्य भाग:

    सुपोषण के कारण:

    • कृषि का अपवाहित जल: कृषि में उर्वरकों के अत्यधिक उपयोग वाले जल का जल निकायों में प्रवाह होने से यह पोषक तत्त्वों से समृद्ध हो जाता है।
    • जल निकायों में अपशिष्ट जल का प्रवाह : उच्च पोषक तत्त्वों से युक्त अनुपचारित या आंशिक रूप से उपचारित सीवेज को अक्सर नदियों और झीलों में छोड़ दिया जाता है।
    • औद्योगिक अपशिष्ट: पोषक तत्त्वों से भरपूर उद्योगों के अपशिष्ट जल को जल निकायों में छोड़ने से सुपोषण में योगदान मिलता है।
    • शहरीकरण: बढ़ते शहरी विकास से जल निकायों में पोषक तत्त्वों के प्रवाह में वृद्धि होती है।

    सुपोषण के परिणाम:

    • शैवाल प्रस्फुटन: अत्यधिक पोषक तत्त्वों के कारण शैवालों की अत्यधिक वृद्धि से जल निकायों में सूर्य का प्रकाश अवरुद्ध होने के साथ ऑक्सीजन की कमी होने से जलीय जीवन को नुकसान पहुँच सकता है।
    • ऑक्सीजन की कमी: इन शैवालों के अपघटन से ऑक्सीजन की अधिक आवश्यकता होती है, जिससे जल निकायों में ऑक्सीजन की कमी होने से जलीय जीवों की मृत्यु हो सकती है।
    • जैवविविधता का नुकसान: यूट्रोफिकेशन से संवेदनशील प्रजातियों का ह्रास होने से जलीय पारिस्थितिकी तंत्र का संतुलन बिगड़ सकता है।
    • आर्थिक प्रभाव: सुपोषण से मत्स्य पालन, पर्यटन एवं स्वस्थ जलीय पारिस्थितिकी तंत्र पर निर्भर अन्य उद्योगों को नुकसान पहुँच सकता है।

    मरुस्थलीकरण के कारण:

    • अत्यधिक चराई: पशुओं द्वारा अत्यधिक चराई से वनस्पति आवरण समाप्त होने के कारण मृदा क्षरण एवं मरुस्थलीकरण को बढ़ावा मिलता है। वर्ष 2005 और 2015 के बीच भारत के घास के मैदानों में 31% की कमी आई।
    • वनों की कटाई: कृषि, लॉगिंग या ईंधन की लकड़ी के लिये जंगलों को साफ करने से वनस्पति आवरण कम हो जाता है एवं मिट्टी क्षरण की संभावना बढ़ जाती है। इसे देश में 9.15% मरुस्थलीकरण के लिये उत्तरदायी पाया गया है।
    • जलवायु परिवर्तन: वर्षा के प्रतिरूप में बदलाव तथा तापमान वृद्धि से शुष्कता बढ़ने के कारण मरुस्थलीकरण को बढ़ावा मिल सकता है।
    • अनुचित भूमि प्रबंधन: मोनोकल्चर और अनुचित सिंचाई जैसी अस्थिर कृषि पद्धतियाँ, मृदा की गुणवत्ता को खराब करने के साथ मरुस्थलीकरण का कारण बन सकती हैं। यह देश में 11.01% मरुस्थलीकरण के लिये उत्तरदायी है।

    मरुस्थलीकरण के परिणाम:

    • मृदा अपरदन: वनस्पति आवरण का नुकसान मिट्टी को हवा और पानी से कटाव के प्रति अधिक संवेदनशील बनाता है।
    • उत्पादकता में कमी: मरुस्थलीकरण से कृषि और आजीविका के अन्य रूपों को समर्थन देने की भूमि की क्षमता कम हो जाती है।
    • प्रवासन और संघर्ष: मरुस्थलीकरण से आबादी का विस्थापन हो सकता है क्योंकि लोग रहने योग्य भूमि की तलाश में आगे बढ़ते हैं, जिससे संसाधनों पर संघर्ष का खतरा बढ़ जाता है।
    • विशिष्ट वनस्पतियों और जीवों का नुकसान: मरुस्थलीकरण से क्षेत्र की अनूठी परिस्थितियों के अनुकूल पौधों और जानवरों की प्रजातियों का नुकसान हो सकता है।

    पारिस्थितिकी तंत्र और मानव आजीविका पर प्रभाव:

    • पारिस्थितिकी तंत्र का क्षरण: सुपोषण तथा मरुस्थलीकरण दोनों ही पारिस्थितिकी तंत्र के क्षरण का कारण बन सकते हैं, जिससे जल शुद्धिकरण, कार्बन पृथक्करण एवं आवास स्थल जैसी सेवाएँ प्रदान करने की उनकी क्षमता कम हो सकती है।
    • मानव स्वास्थ्य: सुपोषण से पीने के जल के स्रोत प्रदूषित हो सकते हैं, जबकि मरुस्थलीकरण से खाद्य असुरक्षा एवं कुपोषण हो सकता है।
    • सामाजिक एवं आर्थिक व्यवधान: दोनों घटनाएँ स्वस्थ पारिस्थितिकी तंत्र पर निर्भर समुदायों तथा अर्थव्यवस्थाओं को बाधित कर सकती हैं, जिससे सामाजिक अशांति एवं आर्थिक कठिनाई हो सकती है।

    निष्कर्ष:

    सुपोषण और मरुस्थलीकरण जटिल पर्यावरणीय मुद्दे हैं जिनके पारिस्थितिकी तंत्र के साथ मानव आजीविका पर दूरगामी परिणाम होते हैं। इन चुनौतियों से निपटने के लिये समग्र दृष्टिकोण की आवश्यकता है जो जलवायु परिवर्तन को कम करने तथा जैवविविधता संरक्षण को बढ़ावा देने के प्रयासों के साथ-साथ सतत् भूमि एवं जल प्रबंधन प्रथाओं को एकीकृत कर सके।

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