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Sambhav-2023

  • 17 Jan 2023 सामान्य अध्ययन पेपर 1 इतिहास

    दिवस- 60

    प्रश्न.1 भारतीय प्रेस, जो भारत में उथल-पुथल भरे विकास से गुजरा, राष्ट्रीय एकता के प्रतीक के रूप में कैसे उभरा और भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में एक आवाज़ के रूप में कैसे काम किया? (250 शब्द)

    प्रश्न.2 उदाहरण के साथ समझाइये कि कैसे औपनिवेशिक भारत में अंग्रेज़ों द्वारा लागू की गई आर्थिक रणनीति प्रारंभ में व्यापारिक सिद्धांतों पर आधारित थी, लेकिन अंततः संरक्षण की प्रणाली की ओर स्थानांतरित हो गई। (250 शब्द

    उत्तर

    उत्तर 1:

    हल करने का दृष्टिकोण

    • भारत में प्रेस के उदय को संक्षेप में समझाइये।
    • राष्ट्रवाद और स्वतंत्रता संग्राम में प्रेस के योगदान का उल्लेख कीजिये।
    • ब्रिटिश सरकार द्वारा लगाए गए प्रतिबंधों की सूची बनाइये।
    • उपयुक्त निष्कर्ष दीजिये।

    परिचय

    भारत में प्रेस की शुरुआत 1780 में जेम्स ऑगस्टस हिक्की द्वारा लिखित द बंगाल गजट या कलकत्ता जनरल एडवरटाइजर के पहले समाचार पत्र से हुई थी। अपने प्रारंभिक चरण में प्रेस मुख्य रूप से ब्रिटिश प्रशासन और उसके अधिकारियों के कुकृत्यों का मुखर आलोचक था।

    प्रारंभिक समाचार पत्रों के कुछ उदाहरण हैं: नाना साहेब पेशवा द्वारा पयाम-ए-आज़ादी या स्वतंत्रता का संदेश (1857), जी सुब्रमण्य अय्यर द्वारा द हिंदू और स्वदेशमित्रन, सुरेंद्रनाथ बनर्जी द्वारा बंगाली, दादाभाई नौरोजी द्वारा वॉयस ऑफ इंडिया, केसरी (मराठी में) और मराठा (अंग्रेजी में) बालगंगाधर तिलक के अधीन।

    मुख्य भाग

    भारतीय प्रेस का योगदान:

    • राष्ट्रीय विचारधारा का प्रसार: लगभग 1870 से 1918 तक राष्ट्रवादी आंदोलन के शुरुआती चरण में जन आंदोलन या खुली सभाओं के माध्यम से जनता को सक्रिय रूप से लामबंद करने की तुलना में राजनीतिक प्रचार और शिक्षा पर अधिक ध्यान केंद्रित किया गया। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस अपने शुरुआती दिनों में अपने प्रस्तावों और कार्यवाहियों के प्रचार के लिये पूरी तरह से प्रेस पर निर्भर थी।
    • जनता को संगठित करना: अखबार का प्रभाव शहरों और कस्बों तक ही सीमित नहीं था; ये समाचार पत्र दूर-दराज के गाँवों में पहुँचे, जहाँ स्थानीय पुस्तकालयों में प्रत्येक समाचार और संपादकीय को पढ़ा जाता था और उस पर चर्चा की जाती थी।
    • अपनी व्यापक पहुँच के माध्यम से प्रेस ने देश में जनता को जोड़ा। बाल गंगाधर तिलक, अपने समाचार पत्रों के माध्यम से, निम्न मध्य वर्ग, किसानों, कारीगरों और श्रमिकों को कांग्रेस के पाले में लाने की वकालत करने वाले पहले लोगों में से थे।
    • जागरूकता का प्रसार: इन समाचार पत्रों में, सरकारी अधिनियमों और नीतियों को आलोचनात्मक जाँच के लिये रखा गया था। उन्होंने सरकार की विरोधी संस्था के रूप में काम किया। प्रेस ने औपनिवेशिक शोषण के प्रति लोगों को जागरूक किया।

    सरकार द्वारा प्रतिबंध

    • सरकार ने अपनी ओर से भारतीय दंड संहिता की धारा 124 ए जैसे कई कड़े कानून बनाए थे, जिसमें प्रावधान था कि भारत में ब्रिटिश सरकार के खिलाफ असंतोष पैदा करने की कोशिश करने वाले को आजीवन या तीन वर्षों अथवा किसी भी अवधि तक कारावास की सजा दी जाएगी। ।
    • 1878 के वर्नाक्युलर प्रेस एक्ट (वीपीए) को प्रेस पर 'बेहतर नियंत्रण' करने और देशद्रोही लेखन को प्रभावी ढंग से दंडित करने तथा दबाने के लिये डिज़ाइन किया गया था। इस अधिनियम को "द गैगिंग एक्ट" का उपनाम दिया गया था। इस अधिनियम ने अंग्रेज़ी और स्थानीय प्रेस के बीच भेदभाव किया और अपील का कोई अधिकार नहीं दिया।
      • वीपीए के तहत सोम प्रकाश, भरत मिहिर, ढाका प्रकाश और समाचार के खिलाफ कार्यवाही शुरू की गई। वीपीए से बचने के लिये अमृत बाज़ार पत्रिका रातों-रात अंग्रेज़ी में परिवर्तित हो गई। 1883 में, सुरेंद्रनाथ बनर्जी कैद होने वाले पहले भारतीय पत्रकार बने।

    निष्कर्ष:

    भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के संघर्ष में प्रेस की भूमिका महत्त्वपूर्ण थी क्योंकि इसने ब्रिटिश शासन के प्रति असंतोष को व्यक्त करने के लिये एक आधार का निर्माण किया।

    तिलक और गांधी जैसे राष्ट्रवादी नेताओं ने अपने समाचार पत्रों और संपादकीय के माध्यम से भारत के दूरस्थ भागों के पाठकों तक पहुँच स्थापित की। इस प्रकार प्रेस ने भारत के प्रत्येक शहर से लेकर गाँव तक राष्ट्रवादी भावना उत्पन्न करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई और एक "राष्ट्र" की स्वतंत्रता के लिये संघर्ष हेतु जनता को लामबंद करने का काम भी किया।


    उत्तर 2:

    हल करने का दृष्टिकोण

    • सामान्य रूप से ब्रिटिश आर्थिक नीति का संक्षेप में परिचय दीजिए।
    • ब्रिटिश आर्थिक नीति की तीन अवस्थाओं को विस्तार से समझाइए।
    • उचित निष्कर्ष के साथ उत्तर समाप्त कीजिये।

    परिचय

    भारत में ब्रिटिश उपनिवेशवादियों ने भारतीय अर्थव्यवस्था में कई संरचनात्मक परिवर्तन किये अथवा भारत से धन निकासी का कार्य किया। भारत में ब्रिटिश शासन ने भारत की अर्थव्यवस्था को एक औपनिवेशिक अर्थव्यवस्था में बदल दिया अर्थात भारतीय अर्थव्यवस्था की संरचना और संचालन ब्रिटिश अर्थव्यवस्था के हितों द्वारा निर्धारित किया गया था। इतिहासकारों के अनुसार, 18वीं शताब्दी की शुरुआत में भारत के पास विश्व अर्थव्यवस्था का लगभग 23 प्रतिशत हिस्सा था। जब भारत को स्वतंत्रता मिली तो यह हिस्सा घटकर लगभग 3 प्रतिशत रह गया।

    मुख्य भाग

    व्यापारवाद' का पहला चरण (1757-1813) प्रत्यक्ष लूट (Direct Plunder) में से एक था जिसमें अधिशेष भारतीय राजस्व का उपयोग इंग्लैंड को निर्यात करने वाले तैयार भारतीय माल खरीदने के लिये किया जाता था। मुक्त व्यापार के दूसरे चरण (1813-1858) में भारत कच्चे माल के स्रोत और ब्रिटिश निर्मित वस्तुओं के बाज़ार में परिवर्तित हो गया था। तीसरा चरण (1858 के बाद) वित्तीय साम्राज्यवाद का था जिसमें ब्रिटिश पूँजी-नियंत्रित बैंक, विदेशी व्यापारिक फर्म और भारत में प्रबंध एजेंसियाँ थीं। यह चरणबद्ध शोषण मुख्य रूप से औपनिवेशिक अर्थव्यवस्था के औद्योगिक और कृषि क्षेत्रों में आर्थिक नीतियों की एक शृंखला के माध्यम से किया गया था।

    पहला चरण (व्यापारवाद):

    • इस चरण में भारत से बड़े पैमाने पर धन की निकासी हुई जो उस समय ब्रिटेन की राष्ट्रीय आय का 2-3 प्रतिशत था। यह वह धन था जिसने ब्रिटेन की औद्योगिक क्रांति के वित्तपोषण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।
    • इस चरण में भारत में ब्रिटिश निर्माताओं का बड़े पैमाने पर आयात नहीं हुआ बल्कि इसका उल्टा भारतीय वस्त्रों आदि के निर्यात में वृद्धि हुई। हालाँकि इस स्तर पर कंपनी के एकाधिकार और शोषण से बुनकरों को बर्बाद कर दिया गया था। उन्हें कंपनी के लिये गैर-आर्थिक मज़बूरियों के तहत उत्पादन करने के लिये मज़बूर किया गया था।

    दूसरा चरण:

    • इस अवस्था को मुक्त व्यापार का उपनिवेशवाद भी कहा जाता है। यह 1813 के चार्टर एक्ट से शुरू हुआ और 1860 के दशक तक जारी रहा। भारत को ब्रिटिश निर्मित वस्तुओं विशेषकर वस्त्रों के लगातार बढ़ते उत्पादन के लिये एक बाज़ार के रूप में काम करना था। उसी समय इंग्लैंड में नए पूंजीपतियों को भारत से कच्चे माल, विशेष रूप से कपास और खाद्यान्न के निर्यात की आवश्यकता थी। कंपनी के लाभांश और ब्रिटिश व्यापारियों के मुनाफे को पूरा करने हेतु कच्चे माल के निर्यात में तेज़ी से वृद्धि हुई। इस चरण में निम्नलिखित प्रमुख विशेषताएँ दिखाई दे रही थीं:
      • भारत की औपनिवेशिक अर्थव्यवस्था ब्रिटिश और वैश्विक पूंजीवादी अर्थव्यवस्था के साथ एकीकृत थी। यह मुक्त व्यापार की शुरूआत के साथ संभव हुआ।
      • कृषि में स्थायी बंदोबस्त और रैयतवाड़ी व्यवस्था को पारंपरिक कृषि संरचना को पूंजीवादी संरचना में बदलने के लिये पेश किया गया था।
      • प्रशासन को अधिक व्यापक बनाया गया और इसमें देश के गाँवों और बाहरी क्षेत्रों को शामिल किया गया।
      • पर्सनल लॉ को काफी हद तक अछूता छोड़ दिया गया था क्योंकि यह अर्थव्यवस्था के औपनिवेशिक परिवर्तन को प्रभावित नहीं करता था।
      • व्यापक रूप से विस्तारित प्रशासन को जनशक्ति प्रदान करने के लिये आधुनिक शिक्षा की शुरुआत की गई थी।
      • आर्थिक परिवर्तन और महंगे प्रशासन के कारण किसानों पर कराधान और बोझ तेजी से बढ़ा है।
      • भारत ने ब्रिटिश निर्यात का 10 से 12 प्रतिशत और ब्रिटेन के कपड़ा निर्यात का लगभग 20 प्रतिशत खपाया। 1850 के बाद इंजन कोच, रेल लाइन और अन्य रेलवे स्टोर भारत में बड़े पैमाने पर आयात किये गए।
      • भारतीय सेना का इस्तेमाल एशिया और अफ्रीका में ब्रिटिश उपनिवेशवाद के विस्तार के लिये किया गया था।

    तीसरा चरण:

    • तीसरे चरण को अक्सर विदेशी निवेश और उपनिवेशों के लिये अंतर्राष्ट्रीय प्रतिस्पर्द्धा के युग के रूप में वर्णित किया जाता है। यह वैश्विक अर्थव्यवस्था में कई बदलावों के कारण भारत में 1860 के दशक के आसपास शुरू हुआ था। ये परिवर्तन इस प्रकार थे:
      • ब्रिटेन के औद्योगिक वर्चस्व को यूरोप, संयुक्त राज्य अमेरिका और जापान के कई देशों ने चुनौती दी थी।
      • औद्योगीकरण की गति में तेज़ी से वृद्धि हुई (आंतरिक दहन इंजन के लिये ईंधन के रूप में पेट्रोलियम का उपयोग और औद्योगिक उद्देश्यों हेतु बिजली का उपयोग महत्त्वपूर्ण नवाचार थे)।
      • अंतर्राष्ट्रीय परिवहन के साधनों में क्रांति के कारण विश्व बाज़ार अधिक एकीकृत हो गया। उदार साम्राज्यवादी नीतियों को प्रतिक्रियावादी साम्राज्यवादी नीतियों से बदल दिया गया, जो लिटन, डफरिन, लैंसडाउन और कर्जन के वायसराय में परिलक्षित होती थीं। भारत पर औपनिवेशिक शासन को मज़बूत करने का उद्देश्य प्रतिद्वंद्वियों को बाहर रखना और साथ ही साथ ब्रिटिश पूंजी को भारत की ओर आकर्षित करना तथा उसे सुरक्षा प्रदान करना था। नतीजतन ब्रिटिश पूंजी का एक बहुत बड़ा हिस्सा भारत में रेलवे, ऋण (भारत सरकार को), व्यापार आदि में निवेश किया गया। स्वशासन के लिये भारतीय लोगों को प्रशिक्षित करने की धारणा गायब हो गई।
      • भूगोल, जलवायु, नस्ल, इतिहास, धर्म, संस्कृति और सामाजिक संगठन सभी को भारतीयों को स्वशासन या लोकतंत्र के लिये अयोग्य बनाने वाले कारकों के रूप में उद्धृत किया गया था। इस प्रकार अंग्रेज़ों ने एक बर्बर लोगों को "द व्हाइट मैन्स बर्डन" सभ्य बनाने के नाम पर सदियों से भारतीयों पर अपने शासन को सही ठहराने की कोशिश की।

    निष्कर्ष

    इस प्रकार भारत में ब्रिटिश आर्थिक नीति व्यापारिकता के साथ शुरू हुई और संरक्षण के साथ समाप्त हुई।

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