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Sambhav-2023

  • 22 Nov 2022 सामान्य अध्ययन पेपर 2 राजव्यवस्था

    दिवस 12

    प्रश्न- 1. सर्वोच्च न्यायालय (SC) और उच्च न्यायालयों (HC) के न्यायाधीशों की नियुक्ति पर टिप्पणी कीजिये। क्या आपको लगता है कि अखिल भारतीय न्यायिक सेवाओं से इस संदर्भ में एक बेहतर प्रणाली स्थापित हो सकती है? (250 शब्द)

    प्रश्न- 2. अधिकरणों के संबंध में संवैधानिक प्रावधान क्या हैं? क्या अधिकरण न्यायिक वितरण प्रणाली में तेजी ला रहे हैं? (250 शब्द)

    उत्तर

    उत्तर 1:

    दृष्टिकोण:

    • सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति की प्रक्रिया के बारे में संक्षिप्त विवरण देते हुए उत्तर की शुरुआत कीजिये।
    • अखिल भारतीय न्यायिक सेवा (AIJS) के लाभों पर चर्चा कीजिये।
    • अखिल भारतीय न्यायिक सेवा (AIJS) से सम्बन्धित समस्याओं पर चर्चा कीजिये।
    • उपयुक्त निष्कर्ष दीजिये।

    परिचय:

    संविधान के अनुच्छेद 124 (2) और 217, सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों की नियुक्ति से संबंधित हैं। यह नियुक्तियां राष्ट्रपति द्वारा की जाती हैं। इस संदर्भ में राष्ट्रपति, "सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों" से आवश्यकता पड़ने पर परामर्श भी ले सकते हैं।

    लेकिन संविधान में इन नियुक्तियों के संबंध में कोई स्पष्ट प्रावधान नहीं है। इस कारण न्यायिक प्रणाली में न्यायाधीशों की बड़ी रिक्ति रहने से लंबित मामलों की संख्या में वृद्धि हुई है। इस समस्या से निपटने के लिये अखिल भारतीय न्यायिक सेवा (AIJS) प्रासंगिक हो सकती है। अतः 42वें संविधान संशोधन अधिनियम,1976 को प्रभावी रुप से लागू करने की आवश्यकता है।

    मुख्य बिन्दू

    AIJS के लाभ:

    • जनसंख्या के अनुपात में न्यायाधीशों की नियुक्ति करना: भारत में न्यायपालिका में न्यायाधीशों की कमी है जिसके कारण कार्य लंबित रहते हैं। अतः AIJS में न्यायिक रिक्तियों में अंतर्निहित अंतर को कम करने की परिकल्पना की गई है।
    • समाज के सीमांत वर्गों का उच्च प्रतिनिधित्व: सरकार के अनुसार AIJS समाज के हाशिये पर स्थित और वंचित वर्गों के समान प्रतिनिधित्व के लिये एक आदर्श समाधान है।
    • प्रतिभा को आकर्षित करना: सरकार का मानना है कि अगर इस तरह की सेवा को अपनाया जाता है, तो इससे प्रतिभाशाली लोगों का एक समूह बनाने में मदद मिलेगी जो बाद में उच्च न्यायपालिका का हिस्सा बन सकते हैं।
    • बॉटम-अप दृष्टिकोण : भर्ती में ‘बॉटम-अप’ दृष्टिकोण न्यायपालिका के निचले स्तर पर भ्रष्टाचार और भाई-भतीजावाद जैसे मुद्दों से भी निपटने में सहायक होगा। इससे समाज के निचले स्तरों में न्याय व्यवस्था की गुणवत्ता में सुधार होगा।
    • ईज ऑफ डूइंग बिजनेस: सरकार ने भारत की ईज ऑफ डूइंग बिजनेस रैंकिंग में सुधार के अपने प्रयास में अधीनस्थ न्यायपालिका में सुधार को लक्षित किया है क्योंकि रैंक के आधार के रुप में, कुशल विवाद समाधान सूचकांकों के विषयों में से एक है।

    AIJS से संबंधित चुनौतियाँ:

    • अनुच्छेद 233 और 312 के बीच विरोधाभाष: अनुच्छेद 233 के अनुसार अधीनस्थ न्यायपालिका में भर्ती, राज्य का विशेषाधिकार है। इसके कारण कई राज्यों और उच्च न्यायालयों ने इस विचार का विरोध किया है कि यह संघवाद के खिलाफ है।
    • भाषायी बाधा: चूंकि निचली अदालतों में बहस स्थानीय भाषाओं में होती है इसलिये इस बात की आशंका है कि उत्तर भारत का कोई व्यक्ति दक्षिणी राज्य में सुनवाई कैसे कर सकता है।इस प्रकार AIJS के संबंध में एक और मूलभूत चिंता, भाषा की बाधा है।
    • संवैधानिक सीमा: अनुच्छेद 312 का खंड 3 प्रतिबंध लगाता है कि AIJS में ज़िला न्यायाधीश के पद से नीचे का पद शामिल नहीं होगा। इस प्रकार AIJS के माध्यम से अधीनस्थ न्यायपालिका में नियुक्ति के संदर्भ में संवैधानिक बाधा का सामना करना पड़ सकता है।
    • उच्च न्यायालय के प्रशासनिक नियंत्रण को कमज़ोर करना: AIJS के गठन से अधीनस्थ न्यायपालिका पर उच्च न्यायालयों का नियंत्रण कमज़ोर होगा, जो न्यायपालिका की स्वतंत्रता को प्रभावित कर सकता है।

    निष्कर्ष

    लंबित मामलों की इतनी अधिक संख्या, एक प्रभावी भर्ती प्रणाली की स्थापना की मांग करती है जिससे मामलों के त्वरित निपटान के लिये बड़ी संख्या में कुशल न्यायाधीशों की भर्ती की जा सके। हालाँकि AIJS के विधायी ढाँचे के संदर्भ में सर्वसम्मति के साथ इसकी दिशा में एक निर्णायक कदम उठाने की आवश्यकता है।


    उत्तर 2:

    दृष्टिकोण:

    • अधिकरणों के बारे में संक्षिप्त जानकारी देते हुये उत्तर की शुरुआत कीजिये।
    • अधिकरणों से संबंधित संवैधानिक प्रावधानों पर चर्चा कीजिये।
    • अधिकरणों के लाभों और इससे संबंधित मुद्दों पर चर्चा कीजिये।
    • उपयुक्त निष्कर्ष दीजिये।

    परिचय

    • अधिकरण एक अर्ध-न्यायिक संस्था है जिसे प्रशासनिक या कर संबंधी विवादों को सुलझाने जैसी समस्याओं से निपटने के लिये स्थापित किया जाता है। यह विवादों के अधिनिर्णयन, संघर्षरत पक्षों के बीच अधिकारों के निर्धारण, प्रशासनिक निर्णयन और किसी विद्यमान प्रशासनिक निर्णय की समीक्षा जैसे विभिन्न कार्यों का निष्पादन करते हैं।

    मुख्य बिन्दु

    अधिकरण से संबंधित संवैधानिक प्रावधान:

    • अधिकरण संबंधी प्रावधान मूल संविधान में नहीं थे। इन्हें भारतीय संविधान में 42वें संशोधन अधिनियम,1976 द्वारा शामिल किया गया।
    • अनुच्छेद 323- A प्रशासनिक अधिकरण से संबंधित है।
    • अनुच्छेद 323-B अन्य मामलों के लिये अधिकरण से संबंधित है।

    अनुच्छेद 323A और 323B निम्नलिखित तीन पहलुओं में एक-दूसरे से भिन्न हैं:

    • अनुच्छेद 323A केवल लोक सेवाओं से संबंधित विषयों में अधिकरणों की स्थापना का उपबंध करता है जबकि अनुच्छेद 323B कुछ अन्य विषयों के संबंध में अधिकरणों की स्थापना का उपबंध करता है।
    • अनुच्छेद 323A के अंतर्गत केवल संसद द्वारा अधिकरणों की स्थापना की जा सकती है जबकि अनुच्छेद 323B के अंतर्गत शामिल अधिकरण संसद और राज्य विधानमंडलों, दोनों द्वारा उनकी विधायी क्षमता के दायरे में शामिल विषयों के संबंध में स्थापित किये जा सकते हैं।
    • अनुच्छेद 323A के अंतर्गत केंद्र के लिये और प्रत्येक राज्य के लिये या दो या दो से अधिक राज्यों के लिये केवल एक अधिकरण की स्थापना की जा सकती है। यहाँ अधिकरणों के पदानुक्रम (Hierarchy) की कोई स्थिति नहीं बनती है जबकि अनुच्छेद 323B के अंतर्गत अधिकरणों के एक पदानुक्रम का सृजन हो सकता है।

    अधिकरणों से लाभ:

    • शीघ्र न्याय: अधिकरण, मामलों की सुनवाई करने और निर्णय लेने में न्यायालयों की तुलना में कम समय लेते हैं | अधिकरण की एक विशेषता यह है कि यह मामलों की सुनवाई एक निर्दिष्ट तिथि पर करतें हैं और यह एक निश्चित तहत फैसला लेतें हैं। अधिकांश मामलों में, अधिकरण की स्थापना से संबंधित कानून यह प्रावधान करते हैं कि विवाद या मामले को एक निर्दिष्ट समय के अंदर सुलझाया जाना चाहिये।
    • कम खर्चीला : अधिकरण को कार्यशील बनाने के लिये सरकार द्वारा किया गया व्यय तुलनात्मक रूप से कम होता है और पक्षकारों को भी न्यूनतम व्यय वहन करना पड़ता है। अतः अधिकरण न्यायालय की नियमित प्रक्रिया का सहारा लेने की तुलना में मामलों को निपटाने का सस्ता माध्यम है।
    • अनौपचारिकता: अधिकरण, अनौपचारिक प्रक्रिया के अनुरूप होते हैं। न्यायालयों में लागू होने वाले साक्ष्य, दलील और प्रक्रिया से संबंधित जटिल नियम, अधिकरणों की कार्यवाही में लागू नहीं होते हैं। यह प्राकृतिक न्याय और निष्पक्ष न्याय के सिद्धांतों द्वारा संचालित होते हैं।
    • लचीलापन: प्रत्येक मामले में अधिकरण के पास अपने पिछले निर्णय में सुधार का मौका होता है या यदि पिछला निर्णय सही होता है तो अधिकरण इसका संज्ञान ले सकते हैं। ऐसा माना जाता है कि अधिकरण, न्यायालयों के अधीनस्थ होने के साथ न्यायालयों के प्रतिमानों का अनुसरण करते हैं।

    अधिकरणों से सम्बन्धित मुद्दे:

    • स्वतंत्रता की कमी: विधि सेंटर फॉर लीगल पॉलिसी रिपोर्ट (भारत में अधिकरण फ्रेमवर्क में सुधार) के अनुसार स्वतंत्रता की कमी, भारत में अधिकरणों के समक्ष प्रमुख मुद्दों में से एक है। चयन समितियों के माध्यम से नियुक्ति की प्रणाली, अधिकरणों की स्वतंत्रता को प्रमुख रूप से प्रभावित करती है।
    • एकरूपता ना होना: अधिकरणों में सेवा शर्तों, सदस्यों के कार्यकाल, विभिन्न अधिकरणों के प्रभारी नोडल मंत्रालयों के संबंध में गैर-एकरूपता की समस्या बनी हुई है। ये कारक अधिकरणों के प्रबंधन और प्रशासन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
    • संस्थागत मुद्दे: अधिकरण के दिन-प्रतिदिन के कामकाज जैसे- आवश्यक वित्त, बुनियादी ढाँचे, कर्मियों और अन्य संसाधनों के प्रबंधन में कार्यकारी हस्तक्षेप देखा जाता है।
    • सिफारिशों की अनदेखी: रिक्तियों को भरने के लिये सर्वोच्च न्यायालय के मौज़ूदा न्यायाधीशों के नेतृत्व वाली चयन समितियों द्वारा की गई नामों की सिफारिशों को सरकार ने काफी हद तक नज़रअंदाज किया है।
    • लोगों को न्याय प्राप्त करने के अधिकार से वंचित करना: न्यायालय का पक्ष है कि अधिकरण के संदर्भ में उच्च न्यायालयों के पास कोई अधिकार क्षेत्र नहीं रहता है जिससे इनके फैसलों के विरुद्ध याचिकाकर्त्ताओं को न्याय के लिये भटकना पड़ता है।

    निष्कर्ष

    अधिकरणों ने प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों और विशेषज्ञता को अपनाने के साथ समाज के हर वर्ग के लिये न्याय को सुलभ बनाने में मदद की है। यदि अधिकरणों की कुछ कमियों का समाधान कर लिया जाता है तो यह समय पर निर्णय देने के साथ न्याय तक आसान पहुँच को सुलभ बनाने में निर्णायक हैं।

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