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  • 19 Jul 2022 सामान्य अध्ययन पेपर 2 राजव्यवस्था

    दिवस 9: अतंर्राज्यीय जल विवादों के समाधान के लिये संवैधानिक और कानूनी प्रावधान क्या हैं और अंतर्राज्यीय जल संबंधी विवादों के मुद्दों पर चर्चा कीजिये?

    उत्तर

    हल करने का दृष्टिकोण:

    • अंतर्राज्यीय विवाद की संवैधानिक स्थिति का परिचय दीजिये।
    • इसके संबंध में संवैधानिक और कानूनी प्रावधानों की व्याख्या कीजिये तथा अंतर्राज्यीय जल विवाद एवं इससे निपटने के संभावित तरीके से संबंधित मुद्दों का भी उल्लेख कीजिये।
    • उपयुक्त निष्कर्ष लिखिये।

    भारत के संविधान का भाग 11 संघ और राज्यों के बीच संबंधों के बारे में बात करता है। इसने अंतर्राज्यीय एवं संघ-राज्य क्षेत्र से संबंधित सभी संवैधानिक प्रावधानों तथा उनके समाधान हेतु पर्याप्त प्रावधानों को अंकित किया है। इस भाग ने संसद और राष्ट्रपति को अंतर्राज्यीय विवादों के समाधान के लिये पर्याप्त कदम उठाने हेतु अधिकृत किया है।

    अंतर्राज्यीय जल विवादों के समाधान हेतु संवैधानिक प्रावधान:

    • राज्य सूची की प्रविष्टि 17 जल अर्थात् जल आपूर्ति, सिंचाई, नहर, जल निकासी, तटबंध, जल भंडारण और जल शक्ति से संबंधित है।
    • संघ सूची की प्रविष्टि 56 उस सीमा तक अंतर्राज्यीय नदियों और नदी घाटियों का विनियमन एवं विकास जिस तक संघ के नियंत्रण के अधीन ऐसे विनियमन और विकास को संसद, विधि द्वारा लोकहित में समीचीन घोषित करती है।
    • अनुच्छेद 262 के अनुसार, जल से संबंधित विवादों के संदर्भ में:
      • संसद कानून द्वारा किसी अंतर्राज्यीय नदी या नदी घाटी के जल के उपयोग, वितरण या नियंत्रण के संबंध में किसी विवाद या शिकायत के न्याय निर्णयन का प्रावधान कर सकती है।
      • संसद यह भी प्रावधान कर सकती है कि इस तरह के किसी भी विवाद या शिकायत के संबंध में न तो सर्वोच्च न्यायालय और न ही कोई अन्य अदालत अपने अधिकार क्षेत्र का प्रयोग करे।
    • अनुच्छेद 131: सर्वोच्च न्यायालय का मूल क्षेत्राधिकार:
      • एक संघीय अदालत के रूप में सर्वोच्च न्यायालय को भारतीय संघ की विभिन्न इकाइयों के बीच विवादों को सुलझाने का अधिकार है जैसे:
        • केंद्र और एक या एक से अधिक राज्यों के बीच तथा
        • राज्यों के बीच
          • यदि संसद इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय के क्षेत्राधिकार को कम करती है तो राज्य अंतर्राज्यीय जल विवादों के समाधान के लिये अनुच्छेद 131 का उपयोग नहीं कर सकता हैं।

    अंतर्राज्यीय जल विवादों के समाधान के संबंध में संवैधानिक प्रावधान:

    अनुच्छेद 262 के अनुसार संसद ने निम्नलिखित अधिनियम बनाए हैं:

    • नदी बोर्ड अधिनियम, 1956: यह भारत सरकार को राज्य सरकारों के परामर्श से अंतर्राज्यीय नदियों और नदी घाटियों के लिये एक बोर्ड स्थापित (अभी तक कोई नदी बोर्ड नहीं बनाया गया है) करने का अधिकार प्रदान करता है।
    • अंतर्राज्यीय जल विवाद अधिनियम, 1956: अधिनियम के प्रावधान के अनुसार, यदि कोई विशेष राज्य या राज्य अधिकरण के गठन हेतु केंद्र सरकार से संपर्क करता है;
      • केंद्र सरकार को असंतुष्ट राज्यों के बीच परामर्श करके इस मामले को हल करने का प्रयास करना चाहिये।
      • यदि यह प्रयास असफल होता है तो केंद्र सरकार अधिकरण का गठन कर सकती है।
      • नोट: सर्वोच्च न्यायालय अधिकरण द्वारा दिये गए निर्णय पर सवाल नहीं उठाएगा, लेकिन यह अधिकरण के कामकाज पर सवाल उठा सकता है।

    अंतर्राज्यीय जल विवाद से जुड़ा मामला:

    • लंबी कार्यवाही और विवाद समाधान में अत्यधिक देरी।
      • अधिकरण द्वारा निर्णय लेने हेतु कोई समय-सीमा का न होना, अध्यक्ष या सदस्यों के लिये कोई ऊपरी आयु सीमा का न होना, किसी रिक्ति के कारण कार्य बाधित होना तथा अधिकरण की रिपोर्ट प्रकाशित करने की कोई निर्धारित समय-सीमा का न होना आदि विवाद समाधान में देरी के कारण हैं।
      • उदाहरण के लिये गोदावरी जल विवाद मामले में वर्ष 1962 में अनुरोध किया गया था लेकिन अधिकरण का गठन वर्ष 1968 में किया गया था तथा वर्ष 1979 में इस पर निर्णय दिया गया था जिसे वर्ष 1980 में राजपत्र में प्रकाशित किया गया था।
    • संस्थागत ढाँचे और दिशा-निर्देशों में अस्पष्टता जो कि इन कार्यवाहियों को परिभाषित करती है तथा अनुपालन सुनिश्चित करती है।
    • अधिकरण की संरचना बहु-विषयक नहीं है, साथ ही इसमें केवल न्यायपालिका शामिल हैं।
    • आधिकारिक जल संबंधी आँकड़े की अनुपस्थिति जो सभी पक्षों को स्वीकार्य हो, वर्तमान में सभी पक्षों के निर्णय हेतु एक आधार रेखा स्थापित करने को मुश्किल बनाती है।
    • अधिकरण के दृष्टिकोण में विचार-विमर्श से प्रतिकूलता में बदलाव, मुकदमेबज़ी और जल-साझाकरण विवादों के राजनीतिकरण में सहायता करता है।
    • जल और राजनीति के बीच बढ़ते गठजोड़ ने विवादों को वोट बैंक की राजनीति में बदल दिया है।
      • इस राजनीतिकरण ने राज्यों द्वारा बढ़ती अवज्ञा, विस्तारित मुकदमों और समाधान तंत्र में भ्रष्टाचार को भी जन्म दिया है।
      • उदाहरण के लिये कावेरी जल विवाद कन्नडिगास बनाम तमिल वासियों का मुद्दा बन जाता है।
    • प्रक्रिया के कई चरण विवेकाधिकार पर आधारित हैं।
    • प्रक्रियात्मक जटिलताएँ और कई हितधारकों की भागीदारी: सतही जल को केंद्रीय जल आयोग (CWC) तथा भूजल को भारतीय केंद्रीय भूजल बोर्ड (CGWB) द्वारा नियंत्रित किया जाता है। दोनों निकाय स्वतंत्र रूप से कार्य करते हैं तथ जल प्रबंधन पर राज्य सरकारों के साथ सामान्य चर्चा के लिये कोई साझा मंच नहीं है।
    • भारत की जटिल संघीय राजनीति और इसकी औपनिवेशिक विरासत।

    निम्नलिखित उपाय किये जा सकते हैं:

    • अनुच्छेद 263 के तहत राष्ट्रपति द्वारा निर्मित अंतर्राज्यीय परिषद के तहत अंतर्राज्यीय जल विवादों पर सर्वसम्मति से निर्णय लेने की आवश्यकता है।
    • राज्यों को हर क्षेत्र में जल उपयोग दक्षता बढ़ाने और नदी के पानी की मांग को कम करने के लिये जल संचयन एवं जल पुनर्भरण हेतु (बिजली दक्षता की तर्ज़ पर) प्रेरित किया जाना चाहिये।
    • दीर्घकालिक जल सुरक्षा के लिये नदी बेसिन में गहन वनरोपण की आवश्यकता है।
    • वैज्ञानिक आधार पर भूजल और सतही जल दोनों के लिये एकल जल प्रबंधन एजेंसी तथा साथ ही जल संरक्षण एवं जल प्रबंधन हेतु संघ, नदी बेसिन, राज्य और ज़िला स्तर पर तकनीकी सलाह की भी आवश्यकता है।
    • अधिकरण के पास फास्ट ट्रैक तकनीक के साथ-साथ समयबद्ध तरीके से फैसले को लागू करने योग्य तंत्र भी होना चाहिये।
    • सूचित निर्णय लेने के लिये जल संबंधी डेटा का एक केंद्रीय भंडार आवश्यक है।

    भारत के पास दुनिया के ताजे जल का सिर्फ 4%, जबकि वैश्विक आबादी का 16% हिस्सा है। यह भारत में जल की कमी को दर्शाता है। वर्तमान की चुनौतीपूर्ण परिस्थितियों में इसका न्यायिक उपयोग और वैज्ञानिक प्रबंधन के लिये जल के न्यायोचित उपयोग के संबंध में राज्य के नागरिकों सहित सभी हितधारकों की प्रमुख भूमिका होनी अनिवार्य है ।

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