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  • 14 Jul 2022 सामान्य अध्ययन पेपर 1 संस्कृति

    दिवस 4: कांस्य मूर्तिकला निर्माण सिंधु घाटी सभ्यता (IVC) में शुरू हुआ और चोल शासनकाल में यह अपने चरम पर पहुँच गया था। चर्चा कीजिये। (150 शब्द)

    उत्तर

    हल करने का दृष्टिकोण

    • कांस्य मूर्तिकला के बारे में एक संक्षिप्त परिचय देते हुए उत्तर की शुरुआत कीजिये।
    • सिंधु घाटी सभ्यता से लेकर वर्तमान समय तक हुए कांस्य मूर्तिकला के विकास का वर्णन कीजिये।
    • चर्चा कीजिये कि चोल काल के दौरान कांस्य मूर्तिकला अपने चरम पर कैसे पहुँच गई।
    • उपयुक्त निष्कर्ष लिखिये।

    भारतीयों मूर्तिकारों को कास्टिंग प्रक्रिया में उतनी ही महारत हासिल थी जितनी कि उन्होंने कांस्य माध्यम और टेराकोटा मूर्तिकला तथा पत्थर में नक्काशी में हासिल की थी।

    उन्होंने सिंधु घाटी की सभ्यता के अति प्राचीन काल में ही ढलाई के लिये सिरे पेडु यानी ' लुप्त - मोम की प्रक्रिया सीख ली थी। इसके साथ ही उन्होंने तांबा , जस्ता और टिन जैसी धातुओं को मिलाकर मिश्रधातु बनाने की प्रक्रिया की भी खोज कर ली थी। इस मिश्रधातु को कांस्य ( कांसा ) कहते हैं।

    बौद्ध , हिंदू और जैन देवी - देवताओं की कांस्य प्रतिमाएँ भारत के अनेक क्षेत्रों में पाई गई हैं। इन प्रतिमाओं का काल दूसरी शताब्दी से सोलहवीं शताब्दी तक का है। इनमें से अधिकांश प्रतिमाएँ आनुष्ठानिक पूजा के लिये बनाई गई थीं लेकिन ये रूप एवं सौंदर्य की दृष्टि से अत्यंत आकर्षक एवं उत्कृष्ट हैं।

    इसी के साथ - साथ, धातु ढलाई की प्रक्रिया का उपयोग विभिन्न प्रयोजनों, जैसे कि पकाने , खाने - पीने आदि के लिये रोजमर्रा की जिंदगी में काम आने वाले बर्तनों के लिये किया जाता रहा है। आज के जनजातीय समुदाय अपनी कला अभिव्यक्ति के लिये लुप्त मोम की प्रक्रिया को काम में लेते हैं।

    संभवतः मोहनजोदड़ो से प्राप्त नाचती हुई लड़की यानी नर्तकी की प्रतिमा सबसे प्राचीन कांस्य मूर्ति है जिसका काल 2500 ई.पू. माना जाता है। इस नारी प्रतिमा के अंग - प्रत्यंग और धड़ सारणी रूप में साधारण हैं। ऐसी ही अनेक छोटी - छोटी प्रतिमाओं का समूह दाइमाबाद ( महाराष्ट्र ) में हुई पुरातात्विक खदाइयों में प्राप्त हुआ है।

    बिहार राज्य के चौसा स्थल से जैन तीर्थंकरों की अनेक रोचक प्रतिमाएँ पाई गई हैं। जो ईसा की दूसरी शताब्दी यानी कुषाण काल की बताई जाती हैं। तीर्थंकरों को निर्वस्त्र दिखलाना ज़रूरी था इसलिये इन कांस्य प्रतिमाओं से पता चलता है कि भारतीय मूर्तिकार पुरुषों के अंग - प्रत्यंग तथा सुडौल मांसपेशियों के निर्माण में कितने अधिक कुशल थे।

    कांस्य कास्टिंग तकनीक और पारंपरिक प्रतीकों की कांस्य छवियों का निर्माण मध्ययुगीन काल के दौरान दक्षिण भारत में विकास के एक उच्च चरण में पहुँच गया।

    हालाँकि आठवीं और नौवीं शताब्दी में पल्लव काल के दौरान कांस्य छवियों को मॉडलिंग और कास्ट किया गया था, लेकिन तमिलनाडु में दसवीं से बारहवीं शताब्दी तक चोल अवधि के दौरान कुछ सबसे सुंदर और उत्कृष्ट मूर्तियों का निर्माण किया गया था।

    तथापि दसवीं शताब्दी में इस कला के अनेक संरक्षक रहे जिनमें चोल वंशीय विधवा महारानी सेंवियान महादेवी का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है।

    नटराज के रूप में शिव की प्रसिद्ध नृत्य आकृति चोल काल के दौरान विकसित हुई और तब से इस जटिल कांस्य छवि के कई रूपों को मॉडल किया गया है।

    चोल काल की कांस्य छवियों को तैयार करने की कांस्य तकनीक और कला अभी भी भारत में कुशलतापूर्वक अभ्यास की जाती है, विशेष रूप से कुंभकोणम (तमिलनाडु) में। यह वर्तमान युग में भी चोल काल की कांस्य मूर्तिकला के महत्त्व को दर्शाता है।

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