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इनसाइट: चीन के संविधान में बदलाव (Xi Unlimited) के निहितार्थ और भारत की चिंताएँ

  • 14 Mar 2018
  • 18 min read

संदर्भ एवं पृष्ठभूमि
माओत्से तुंग के शासन के बाद चीन ने शीर्ष नेताओं की राजनीतिक ताकत पर अंकुश लगाने का फैसला किया था, लेकिन अब इस परंपरा को तोड़ दिया गया है। चीन की संसद ने 11 मार्च को राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति के लिये केवल दो कार्यकाल की अनिवार्यता को दो-तिहाई बहुमत से समाप्त कर देश के मौजूदा राष्ट्रपति शी जिनपिंग के जीवनभर शीर्ष पद पर आसीन रहने का रास्ता साफ कर दिया है।

  • चीन की सत्तारूढ़ कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ चाइना (CPC) ने चीन की संसद (नेशनल पीपल्स कांग्रेस-NPC) की बीजिंग में हुई 19वीं बैठक में संविधान संशोधन कर राष्ट्रपति के दो कार्यकाल की सीमा को 35 साल बाद समाप्त कर दिया।
  • अभी शी जिनपिंग का पाँच साल का दूसरा कार्यकाल चल रहा है। अधिकतम दो कार्यकाल की अनिवार्यता वाली प्रणाली में शासन के 10 साल पूरे होने के बाद शी जिनपिंग 2023 में सेवानिवृत्त होते।
  • विदित हो कि केवल दो बार राष्ट्रपति बनने का कानून चीन के संविधान में 1982 में शामिल किया गया था। तब चीन के प्रमुख नेता देंग श्याओ पिंग ने माओ की तरह चीन में एक व्यक्ति के सत्ता में बने रहने को रोकने के लिये राष्ट्रपति पद के लिये दो कार्यकाल की अधिकतम सीमा तय कर दी थी। 

क्या है NPC और CPPCC?

NPC: यह चीन की वह संस्था है जिसे हम संसद कह सकते हैं और जिसका काम कानून बनाना है। इसे ब्रिटेन के 'हाउस ऑफ़ कॉमंस' या अमेरिका के 'हाउस ऑफ़ रिप्रजेंटेटिव्स' की तरह मान सकते हैं। 

चीन के संविधान के अनुसार, NPC देश की सबसे ताक़तवर संस्था है, लेकिन माना यह जाता है कि NPC में केवल वही सब होता है जिसके लिये उसे निर्देश दिये जाते हैं। 

इस वर्ष NPC में 2,963 प्रतिनिधि शामिल हुए, जो चीन के विभिन्न प्रांतों, स्वायत्त क्षेत्रों, केंद्र प्रशासित नगरपालिकाओं, हांगकांग और मकाऊ के विशेष प्रशासनिक क्षेत्र और सशस्त्र बलों का प्रतिनिधित्व कर रहे थे। इसमें 742 महिला प्रतिनिधि थीं जो पिछले एनपीसी के मुकाबले 25% अधिक था और इसमें 438 जातीय अल्पसंख्यक भी शामिल थे। 

CPPCC: यह चीन की सबसे शक्तिशाली राजनीतिक सलाहकार संस्था है। इसको आप 'हाउस ऑफ लॉर्ड्स' या 'अमेरिकी सीनेट' की तरह मान सकते हैं। CPPCC केवल सलाह देने का काम करती है क्योंकि इसके पास कोई कानूनी अधिकार नहीं है। फिलहाल CPPCC में 2,158 सदस्य हैं, जिनमें मनोरंजन, खेल, विज्ञान, व्यापार जगत सहित गैर-वामपंथी दलों के भी लोग होते हैं। 

इन दोनों की बैठकें एक से दो सप्ताह तक चलती हैं और इन्हें 'two sessions' कहा जाता है। इस वर्ष CPPCC का अधिवेशन 3 मार्च से और NPC का अधिवेशन 5 मार्च से शुरू हुआ था।

(टीम दृष्टि इनपुट)

एकदलीय शासन प्रणाली में एक व्यक्ति का शासन 

  • चीन ने राष्ट्रपति शी जिनपिंग के लिये दो कार्यकाल की समय-सीमा को समाप्त करने के फैसले का बचाव किया। 
  • संविधान संशोधन के समय NPC के 2,963 प्रतिनिधियों में से तीन मतदान से अलग रहे, जबकि दो प्रतिनिधियों ने संविधान संशोधन के विरोध में वोट डाले। 
  • चीन के राजनीतिक पर्यवेक्षक यह मानते हैं कि एकदलीय शासन प्रणाली वाले देश में एक व्यक्ति का शासन अच्छी तरह चल सकता है। 
  • उल्लेखनीय है कि चीन में कम्युनिस्ट शासन के तहत एकदलीय शासन है तथा चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के पोलित ब्यूरो का प्रमुख ही राष्ट्रपति बनता है। चीन में राष्ट्रपति के चुनाव में सीधे जनता मतदान नहीं करती।

चीनी समाजवाद 

1982 में 12वीं कांग्रेस में चीनी नेता देंग श्याओ पिंग ने 'चीनी समाजवाद' का प्रस्ताव रखा, जिससे चीन में आर्थिक सुधारों का रास्ता तैयार हुआ और देश विशुद्ध कम्युनिस्ट विचारधारा से पूंजीवाद की तरफ बढ़ा। 2002 में पार्टी की 16वीं कांग्रेस हुई जिसमें औपचारिक रूप से निजी उद्यमियों (पूंजीपतियों) को पार्टी का सदस्य बनने की अनुमति दी गई। यह अहम घटनाक्रम था क्योंकि आर्थिक सुधारों की चर्चा चीन में 1970 के दशक के अंत में ही शुरू हो गई थी, लेकिन पूंजीपतियों को लेकर पार्टी में विरोध बना हुआ था। 2007 में हुई 17वीं पार्टी कांग्रेस शी जिनपिंग और ली केकियांग को सीधे नौ सदस्यों वाली पोलित ब्यूरो की स्थायी समिति का सदस्य बनाया गया, जबकि उस समय वे पार्टी के 25 सदस्यों वाले पोलित ब्यूरो के सदस्य नहीं थे। इस तरह ये दोनों नेता पाँचवीं पीढ़ी के प्रतिनिधि बनकर उभरे और 19वीं कांग्रेस के ज़रिये राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने चीन की सत्ता पर अपनी पकड़ को और मज़बूत किया है।

(टीम दृष्टि इनपुट)

  • शी जिनपिंग की विचारधारा को चीनी संविधान का हिस्सा बना दिया गया है, जबकि इससे पहले केवल माओ और चीन में आर्थिक सुधारों का रास्ता खोलने वाले देंग श्याओ पिंग की विचारधारा को संविधान में जगह मिली थी।
  • वैसे शी जिनपिंग के पूर्ववर्ती जियांग जेमिन और हू जिंताओ के विचारों का पार्टी संविधान में उल्लेख है, लेकिन उनके नामों का उल्लेख नहीं है।
  • वर्तमान चीनी राष्ट्रपति का अपने दूसरे कार्यकाल के बाद भी शासन करने का इरादा है, संभवतः इसीलिये CPC की सभी इकाइयों ने सामूहिक नेतृत्व के सिद्धांत को दरकिनार कर उन्हें पार्टी का शीर्ष नेता घोषित कर रखा है।

वैश्विक नेतृत्व का अगुआ बनना चाहता है चीन 

शी जिनपिंग चीन को दुनिया का सबसे अग्रणी देश बनाना चाहते हैं और इसमें कुछ गलत भी नहीं है। वन बेल्ट वन रोड जैसी महत्त्वाकांक्षी परियोजना के ज़रिये चीन दुनिया तक अपनी पहुँच और प्रभाव कायम करने में जुटा है। चीन की बढ़ती आर्थिक और राजनीतिक ताकत सुपरपावर बनने के उसके सपने को साकार करने में मदद कर रही है और वह दुनियाभर में निवेश परियोजनाओं के जरिए अपने पाँव पसार रहा है। घरेलू मोर्चे पर भी वर्तमान में शी जिनपिंग या उनके चिंतन को चुनौती देने वाला कोई दिखाई नहीं देता।

(टीम दृष्टि इनपुट)

कुछ अन्य बदलाव भी हुए

  • राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने पिछले साल सीपीसी की राष्ट्रीय कांग्रेस के बाद पाँच साल के अपने दूसरे कार्यकाल की शुरुआत की थी। 
  • वर्तमान में वह CPC और सेना के भी प्रमुख हैं तथा पिछले साल सात सदस्यीय जो नेतृत्व सामने आया था उसमें उनका कोई भी भावी उत्तराधिकारी नहीं है।
  • 11 मार्च को चीनी संविधान का संशोधन प्रस्ताव 13वीं NPC के पहले पूर्णाधिवेशन में पारित किया गया। 
  • यह 1982 के पश्चात् चीन में मौजूदा संविधान लागू होने के बाद पांचवीं बार हुआ संशोधन है।
  • संविधान संशोधन प्रस्ताव में कुल 21 धाराएँ थीं, जिसमें पहले के संविधान के कुछ भागों में संशोधन किया गया है। 
  • चीन के राजनीतिक पर्यवेक्षकों के अनुसार इससे संविधान की स्थिरता पर कोई अंतर नहीं पड़ा है और यह लोकतांत्रिक तथा वैज्ञानिक रूप से कानून निर्माण करने का मार्गदर्शक विचार भी पेश करता है, जो भविष्य के कानूनों में संशोधन के लिये महत्त्वपूर्ण है।
  • NPC के प्रतिनिधियों में इस मुद्दे पर लगभग कोई मतभेद नहीं था कि समय-समय पर संविधान में संशोधन होता रहना चाहिये। 
  • चीन के संविधान में स्पष्ट लिखा है कि शहरों को अपने स्थानीय कानून बनाने का अधिकार दिया जाएगा। चीन एक विशाल देश है और इसे विभिन्न क्षेत्रों में भारी घाटा होता है। 
  • शहरों को कानून बनाने का अधिकार देने से वहाँ की स्थानीय सरकारें विभिन्न माध्यमों से अपने क्षेत्र का प्रशासन कर सकेंगी, जिसे क्षेत्रीय प्रशासन के लिये भी कानूनी आधार तैयार हो सकेगा।

इतिहास के सबक को भुलाता चीन

चीनी गणतंत्र के संस्थापक माओ ने अंतहीन ताकत का मनचाहा इस्तेमाल किया। माओ के कार्यकाल में चीन ने सबसे बड़ी भुखमरी देखी और उनकी सांस्कृतिक क्रांति भी चीन के लिये बड़ी त्रासदी साबित हुई। इसीलिये सत्ता में अधिकतम 10 साल तक रहने का संवैधानिक प्रावधान किया गया था ताकि भविष्य में कोई माओ की तरह सत्ता का दुरुपयोग न कर पाए और सारी ताकत एक हाथ में केंद्रित न रहे तथा राजनीति में व्यक्ति पूजा की संस्कृति न उपजे। 

शी जिनपिंग से पहले हू जिंताओ ने अपेक्षाकृत कम महत्त्व के संवैधानिक बदलावों के लिये 15 महीने का समय लिया था। इस दौरान खुली बहस हुई और कई बुद्धिजीवियों को अपनी बात रखने के मौके दिये गए। इसके विपरीत शी जिनपिंग ने पहली बार पिछले वर्ष दिसंबर में घोषणा की कि वह संवैधानिक बदलाव चाहते हैं और NPC का सत्र शुरू होने से केवल 8 दिन पहले जनता को बताया गया कि इन संशोधनों में राष्ट्रपति के कार्यकाल की सीमा भी शामिल है।

(टीम दृष्टि इनपुट)

भारत के लिये इन बदलावों की अहमियत

चीन में राष्‍ट्रपति शी जिनपिंग के आजीवन सत्ता में बने रहने का रास्‍ता साफ होने के बाद भारत की चिंताएँ और बढ़ गई हैं। भारत की यह चिंता कहीं-न-कहीं चीन की बढ़ती ताकत और उसके द्वारा भारत को घेरने के लिये लगातार किये जा रहे प्रयासों को लेकर भी है। जहाँ तक इस संबंध में भारत की पहल का प्रश्न है तो भारत शुरू से ही चीन की आक्रामकता को दरकिनार कर बातचीत का पक्षधर रहा है। 

  • चीन के साथ संबंधों को मधुर बनाना भारत की प्राथमिकता में शुरू से ही शामिल रहा है। यही वज़ह है कि भारत ने तिब्‍बत और चीन के विवाद में न पड़ने का फैसला लिया है। 
  • भारत मानता है कि यह वक्‍त दोनों देशों के बीच संबंधों को लेकर काफी अहम है। चीन का तिब्‍बत से भावनात्‍मक जुड़ाव है और उसकी भारत से नाराज़गी इस बात को लेकर भी है कि उसने दलाई लामा को भारत में शरण दे रखी है। दोनों देशों के बीच यह विवाद काफी पुराना है और भारत अब इस विवाद पर विराम लगाना चाहता है। 
  • मालदीव के मुद्दे पर भी भारत ने समझदारी का परिचय दिया है और वहाँ चीन से बढ़ते खतरे को भाँपते हुए भारत ने मनमुटाव को बढ़ावा न देने का फैसला लिया है। 
  • इससे स्पष्ट हो जाता है कि भारत चीन के साथ संबंधों को मज़बूत बनाने की पहल कर रहा है तथा इस वर्ष जून में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का चीन दौरा प्रस्तावित है। 
  • दूसरी ओर चीन पाकिस्तानी आतंकी सरगना मसूद अज़हर को संयुक्त राष्ट्र से आतंकवादी घोषित कराने के लिये भारत द्वारा चलाई जा रही मुहिम का विरोध करता रहा है। 
  • इसके अलावा पिछले वर्ष भारत द्वारा किये गए लंबी दूरी की बैलेस्टिक मिसाइल अग्नि-5 के परीक्षण पर प्रतिक्रिया देते हुए चीन ने पाकिस्तान के मिसाइल कार्यक्रमों को मदद देने का संकेत दिया था।
  • चीन की महत्त्वाकांक्षी वन बेल्ट वन रोड (बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव-BRI) को लेकर भारत की संप्रभुता संबंधी चिंताएँ वाजिब हैं। इस प्रोजेक्ट के तहत चीन के 46 अरब डॉलर के निवेश से बन रहा चीन-पाकिस्तान आर्थिक कॉरिडोर (CPEC) भी भारत की परेशानी का कारण है, क्योंकि यह विवादित कश्मीर की भूमि से होकर गुज़र रहा है, जिस पर भारत अपना दावा करता है। भारत CPEC को चीन के घातक प्रयास के रूप में देखता है और अपनी संप्रभुता तथा क्षेत्रीयता का उल्लंघन मानते हुए विरोध भी दर्ज कराता है, लेकिन इस मुद्दे पर उग्र प्रतिक्रिया देने से बचता रहा है।

दबाव की नीति 

भारतीय हितों को लगातार नीचा दिखाने का कोई मौका चीन चूकता नहीं है, बल्कि जैसे-जैसे भारत का विश्व मंच पर प्रभाव बढ़ता जा रहा है, चीन का रुख आक्रामक होता दिख रहा है। भारत के चारों ओर के देशों को चीन निवेश और तकनीकी मदद के रूप में रियायतों की जो सौगात देता है, वह इसी रुख का पहला हिस्सा है। संयुक्त राष्ट्र, वैश्विक वित्तीय संस्थानों, परमाणु विक्रेताओं और ऊर्जा समूहों में भारत के प्रवेश को रोकने के लिये कुचक्र रचना उस मंशा का दूसरा हिस्सा है तथा समय-समय पर सैन्य ताकत दिखाना और राजनयिक तिरस्कार करना तीसरा हिस्सा है। अपनी इन्हीं हरकतों की वज़ह से चीन ने दुनिया के संभवतः सबसे बड़े बाज़ार और दुनिया की आबादी के छठे हिस्से के बीच गहरा अविश्वास बटोरने का ही काम किया है।

(टीम दृष्टि इनपुट)

निष्कर्ष: जहाँ तक बात भारत से संबंधों की है तो इसमें कोई दो राय नहीं कि भारत-चीन संबंधों में सुधार दोनों देशों के हित में है, लेकिन इसमें भी कोई दो राय नहीं कि भारत को अपनी संप्रभुता और सुरक्षा की कीमत पर हरगिज़ ऐसा नहीं करना चाहिये। चीन की सत्ता में कोई भी रहे, भारत का बराबर यह प्रयास रहा है कि अपने इस बड़े पडोसी देश के साथ संबंध बराबरी के स्तर पर होने चाहिये, न कि दादागिरी या धौंसपट्टी से। 

वैश्विक परिदृश्य को देखें तो संभावना इस बात की अधिक लगती है कि संवैधानिक बदलावों के बाद शी जिनपिंग जब तक चाहें तब तक चीन के राष्ट्रपति रह सकते हैं। यह भी तय है कि दुनिया को अगले कुछ दशकों तक चीन के एकमात्र सबसे ताकतवर नेता के साथ चलना होगा और यह सारे बदलाव ऐसे समय में हो रहे हैं जब भू-रणनीतिक लिहाज़ से चीन का प्रभाव दुनियाभर में फैल रहा है। 

शी जिनपिंग चीनी क्रांति के दिनों में पार्टी के संस्थापक माओ को मिली शक्तियों की तरह उनका प्रयोग ऐसे कर सकते हैं जिन पर कोई सवाल न उठाए। चीन में हुए संवैधानिक बदलावों पर 1989 के तियानमेन चौक पर भारी विरोध प्रदर्शनों के दौरान हटाए गए पार्टी लीडर झाओ जियांग के सलाहकार रहे वू वी कहते हैं कि शी जिनपिंग अपना 3 या 4 कार्यकाल पूरा करना चाहेंगे और एक नया प्रेजिडेंशल सिस्टम बना सकते हैं।

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