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देश देशांतर : ग्रामीण भारत में शिक्षा और चुनौतियाँ

  • 21 Jan 2019
  • 15 min read

संदर्भ एवं पृष्ठभूमि


देश में प्राथमिक शिक्षा की दशा और दिशा के संबंध में जानकारी देने वाली वार्षिक सर्वेक्षण रिपोर्ट (Annual Status of Education Report-ASER) 2018 हाल ही में जारी की गई। यह 13वीं वार्षिक रिपोर्ट है। ‘असर’ 2018 में ग्रामीण भारत में 3 से 16 वर्ष के बच्चों का स्कूल में नामांकन और 5 से 16 साल के बच्चों के पढ़ने और गणित के सवालों को हल करने की क्षमताओं को परखा गया है। ‘असर’ 2018 में देश के 596 ज़िलों के कुल 3 लाख 54 हज़ार 944 घरों को शामिल किया गया जिसके ज़रिये 3 से 16 वर्ष के 5 लाख 46 हज़ार 527 बच्चों का सर्वे किया गया।

असर 2018 के मुख्य निष्कर्ष


पढने की स्थिति

  • कक्षा 5: कक्षा 5 में नामांकित आधे से अधिक छात्र ही कक्षा 2 की पाठ्य पुस्तकें पढ़ पाने में सक्षम हैं। यह आँकडा 2016 में 47.9% था जो 2018 में बढ़कर 50.3% पर आ गया है। कुछ राज्यों के सरकारी विद्यालयों में कक्षा 5 के बच्चों ने इस दौरान कुछ सुधार दर्ज़ किया है। ये राज्य हैं- हिमाचल प्रदेश, उत्तर प्रदेश, ओडिशा, छत्तीसगढ़, कर्नाटक, केरल, अरुणाचल प्रदेश और मिज़ोरम।
  • कक्षा 8: भारत में अनिवार्य स्कूली शिक्षा का अंतिम पड़ाव कक्षा 8 है। इस स्तर पर छात्रों से यह अपेक्षा की जाती है कि उन्हें कम-से-कम बुनियादी कौशल में महारत हासिल हो। किंतु असर (ASER) 2018 के आँकडों से यह पता चलता है कि कक्षा 8 के 27 प्रतिशत छात्र कक्षा 2 की पाठ्य पुस्तकें पढ़ने में सक्षम नहीं हैं। यह आँकड़ा 2016 से जस-का-तस बना हुआ है।
  • रिपोर्ट में कहा गया है कि राष्ट्रीय स्तर पर 14 से 16 वर्ष की उम्र के सभी लड़कों में से 50 फीसदी गणितीय भाग (Devision) के प्रश्नों को ठीक-ठीक हल कर लेते हैं, जबकि लड़कियों के मामले में सिर्फ 44 फीसदी ही ऐसा कर सकती हैं।
  • 2018 में 6 से 14 साल के उम्र समूह के ऐसे बच्चे जिनका दाखिला स्कूल में नहीं हुआ, का प्रतिशत तीन फीसदी से गिरकर 2.8 फीसदी हो गया है।

असर (ASER) 2018 में शामिल किये गए क्षेत्र

  • स्कूली स्तर: नामांकन और उपस्थिति
  • अधिगम स्तर: पढ़ने व गणित के प्रश्नों को हल करने का बुनियादी कौशल
  • अधिगम स्तर: ‘बुनियादी शिक्षा स्तर से ऊपर’
  • स्कूलों का अवलोकन

♦ छोटे स्कूल
♦ स्कूल में सुविधाएँ 
♦ शारीरिक शिक्षा और खेल सुविधाएँ
♦ शिक्षक और छात्र उपस्थिति

(टीम दृष्टि इनपुट)

विद्यालयों में उपस्थिति को लेकर क्या बदलाव दिखता है?

  • पिछले 10 सालों में विद्यालयों में नामांकन की स्थिति में लगातार सुधार हो रहा है। तुलनात्मक दृष्टि से देखा जाए तो 15-16 साल उम्र की 4 प्रतिशत लडकियाँ अभी भी स्कूल नहीं जाती हैं, जबकि 10 साल पहले यह आँकड़ा 10 प्रतिशत था।
  • सर्वे के अनुसार, जहाँ तक 5-14 साल के लड़के-लड़कियों के नामांकन का सवाल है तो वर्तमान में यह 97 प्रतिशत है, जबकि इससे पहले यह 95 प्रतिशत था।
  • रिपोर्ट के अनुसार, 14-18 आयु वर्ग के बच्चों में दो में से एक बच्चा साधारण भाग भी नहीं कर सकता है। रिपोर्ट में कुल 43 फीसदी बच्चे ऐसे पाए गए हैं, जिन्हें भाग देना आता है। अतः गणित की स्थिति अभी भी चिंताजनक है।
  • इसी तरह 14 साल की उम्र के करीब 47 फीसदी बच्चे ऐसे हैं, जो इंग्लिश के साधारण वाक्यों को नहीं पढ़ सकते हैं। केवल इंग्लिश ही नहीं बल्कि इस आयु वर्ग के 25 फीसदी छात्र ऐसे हैं जो बिना रुके अपनी भाषा भी नहीं पढ़ सकते हैं। यह चिंता का विषय है।
  • जिन राज्यों में कम सुधार या बिल्कुल सुधार नहीं हुआ है उनमें बिहार सबसे उपर है। बिहार की स्थिति लगातार नीचे जा रही है। महाराष्ट्र तथा गुजरात में बेहतर सुधार हुआ है।

पिछले कुछ वर्षों में सरकार द्वारा उठाए गए कदम

  • केंद्र सरकार ने 2018-19 में स्कूल शिक्षा के लिये एक एकीकृत योजना समग्र शिक्षा शुरू की है, जो स्कूली शिक्षा की तीन पूर्ववर्ती योजनाओं अर्थात् सर्व शिक्षा अभियान (SSA), राष्ट्रीय माध्यमिक शिक्षा अभियान (RMSA) और केंद्र सरकार की शिक्षक शिक्षा (CSSTE) योजना को एक साथ सम्मिलित करता है।
  • इन सभी योजनाओं का उद्देश्य छात्रों की स्कूलों में उपस्थिति बढ़ाने, वंचित समूहों और कमज़ोर वर्गों के छात्रों के समावेशन के माध्यम से समानता को बढ़ावा देना और शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार करना है।
  • समग्र शिक्षा योजना का उद्देश्य सभी के लिये समावेशी और समान गुणवत्ता वाली शिक्षा सुनिश्चित करना है जिसमें प्राथमिक शिक्षा के साथ माध्यमिक शिक्षा भी शामिल है।
  • आरटीई अधिनियम, 2009 के नियमों को प्रारंभिक शिक्षा की गुणवत्ता पर ध्यान केंद्रित करने के लिये कक्षा-वार, विषय-वार सीखने तथा इसके परिणामों को शामिल करने के लिये 20 फरवरी, 2017 को संशोधित किया गया है।
  • भाषा (हिंदी, अंग्रेज़ी और उर्दू), गणित, पर्यावरण अध्ययन, विज्ञान और सामाजिक विज्ञान की प्रत्येक कक्षा के लिये पढ़ने तथा सीखने के तौर-तरीकों को सभी राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों के साथ अंतिम रूप से साझा किया गया है।
  • सीखने के परिणामों को विभिन्न भाषाओं में अनुवादित किया गया है जो प्रत्येक विषय और कक्षा में छात्रों की क्षमताओं के लिये एक बेंचमार्क के रूप में काम करता है।
  • आरटीई अधिनियम की धारा 23 (2) में संशोधन कर सेवारत अप्रशिक्षित प्राथमिक शिक्षकों के प्रशिक्षण की अवधि 31 मार्च, 2019 तक बढ़ा दी गई है।
  • संशोधन के अनुसार, सरकारी, सरकारी सहायता प्राप्त और निजी गैर-सहायता प्राप्त स्कूलों में कार्यरत सभी अप्रशिक्षित शिक्षकों को केंद्र सरकार द्वारा अधिकृत एक शैक्षणिक प्राधिकरण से 31 मार्च, 2018 तक निर्धारित न्यूनतम योग्यता प्राप्त करना ज़रूरी है।
  • ODL (ओपन डिस्टेंस लर्निंग) मोड के माध्यम से इस प्रशिक्षण का संचालन करने की ज़िम्मेदारी नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ ओपन स्कूलिंग (NIOS) को सौंपी गई है।
  • केंद्र सरकार ने विज्ञान, गणित और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में 6-18 वर्ष की आयु वर्ग के बच्चों को अवलोकन तथा प्रयोग के माध्यम से प्रेरित करने के लिये जुलाई 2015 को राष्ट्रीय आविष्कार अभियान (RAA) कार्यक्रम शुरू किया है।

वर्तमान समय में भारत में स्कूली शिक्षा की स्थिति

  • संयुक्त राष्ट्र के अनुसार मानव विकास के जो भी पैमाने हैं उनमें से एक शिक्षा का विकास है।
  • हालिया मानव विकास सूचकांक में भारत को 130वें स्थान पर रखा गया है जो साफ़ तौर पर इशारा करता है कि शिक्षा के मामले में भी हम दुनिया के 129 देशों से पीछे हैं। यहाँ तक कि मालदीव और श्रीलंका जैसे देश हमसे बेहतर हैं।
  • यूनेस्को के अनुसार, 2014-15 में जहाँ फिनलैंड ने अपने GDP का 7.2 प्रतिशत शिक्षा पर खर्च किया वहीँ, भारत GDP का महज 2.8 प्रतिशत ही शिक्षा पर खर्च करता है।
  • हैरानी की बात यह है कि अरबों डॉलर सहायता पाने वाला अफगानिस्तान भी शिक्षा पर GDP का लगभग 8 प्रतिशत खर्च करता है, जबकि नवीनतम आँकड़ों के अनुसार 2016-17 में भारत GDP का 2.6 प्रतिशत ही शिक्षा पर खर्च कर सका।
  • अगर स्कूल छोड़ने के संबंध में बात करें तो 2011-12 में भारत में स्कूल छोड़ने की दर 5.62%, 2013-14 में 4.93%, जबकि 2014-15 में 4.13% थी। यह दर प्राथमिक स्कूलों में 4%, अपर प्राइमरी में 4%, माध्यमिक में 17% और अपर माध्यमिक में 2% है।
  • आँकड़ों पर गौर करें तो यह स्थिति चिंताजनक है। इसके अलावा जिस पर ध्यान देने की ज़रूरत है, वह यह है कि भारत आत्महत्या दर के मामले में अव्वल है।
  • NCRB के मुताबिक, भारत में प्रति घंटे एक छात्र आत्महत्या करता है। हालिया आँकड़ों की बात करें तो पिछले तीन सालों में 26 हज़ार से ज़्यादा छात्र मौत को गले लगा चुके हैं।
  • यह स्थिति बताती है कि हमारी शिक्षा पद्दति और अभिभावकों की अपेक्षाओं में कितना विरोधाभास है।
  • एक तरफ स्कूल और कॉलेज बच्चों की प्रतिभा निखारने में नाकाम हो रहे हैं तो दूसरी ओर अभिभावक यह उम्मीद रखते हैं कि बच्चे टॉप करें।
  • जाहिर है बच्चों पर बढ़ता पढाई का दबाव शिक्षा के विकास में बड़ी रुकावट है।

भारत की स्थिति दुनिया के अन्य देशों से किस तरह भिन्न है?

  • आज़ादी के बाद हम 70 सालों का सफर तय कर चुके हैं लेकिन हमारी आबादी का एक-तिहाई हिस्सा अभी भी निरक्षर है लेकिन दुनिया के कई ऐसे देश हैं जो 100 प्रतिशत साक्षरता दर हासिल कर चुके हैं। फिनलैंड, नार्वे तथा अज़रबैजान कुछ ऐसे ही उदाहरण हैं।
  • पूर्ण साक्षरता वाले देशों में फिनलैंड की बात करें तो यहाँ की असाधारण शिक्षा प्रणाली भारत से बिल्कुल अलग है।
  • यहाँ बच्चे ज़्यादा दिनों तक बच्चे 7 वर्ष की उम्र में स्कूल में दाखिला लेते हैं, जबकि भारत में 3 वर्ष की उम्र में ही दाखिला कराने की होड़ रहती है।
  • फिनलैंड में निजी कॉलेज नहीं होते, जबकि हमारे यहाँ ऐसे कॉलेज या विश्वविद्यालयों की भरमार है। यही कारण है कि शिक्षा जैसी मूलभूत सुविधा गरीबों की पहुँच से बाहर है।
  • आए दिन इन निजी संस्थानों की मनमानी की ख़बरें सुर्ख़ियों में रहती हैं। इनकी बेहिसाब फीस पूर्ण साक्षरता की राह में सबसे बड़ी बाधा है। इससे इतर फ़िनलैंड के बच्चों पर होमवर्क का बोझ भी नहीं डाला जाता।
  • एक अध्ययन के मुताबिक, यहाँ के किशोर हफ्ते में 2.8 घंटे ही होमवर्क करते हैं लेकिन हमारे स्कूलों में पुस्तकें और क्लास होमवर्क समय के साथ ही बढ़ जाते हैं। पढाई-लिखाई बीच में ही छोड़ने की यह सबसे बड़ी वज़ह है।

आगे की राह

  • निजी शिक्षण संस्थानों पर नकेल कसने की ज़रूरत है।
  • शिक्षा में सुधार के लिये अभिभावक, बुद्धिजीवी वर्ग और युवा वर्ग से सुझाव आमंत्रित किये जाने चाहिये।
  • बुद्धिजीवी वर्ग जहाँ शिक्षा की समस्या पर पैनी नज़र रखते हैं वहीँ, अभिभावक बच्चों की समस्या से भली-भाँति परीचित हैं लिहाजा इनके सुझाव काफी उपयोगी सिद्ध हो सकते हैं।
  • असमानता की खाई पाटने और संविधान के अनुच्छेद 21(a) के तहत प्रारंभिक शिक्षा तक सभी की पहुँच को बनाने के लिये इलाहबाद उच्च न्यायालय के आदेश को भी धरातल पर उतारने की ज़रूरत है जिसमें अधिकारियों के बच्चों को भी
  • सरकारी विद्यालयों में पढ़ाने की बात कही गई थी।
  • शिक्षा में खर्च से लेकर शिक्षा के व्यवसायीकरण तक सभी मुद्दों पर सरकार को विचार करने की ज़रूरत है ताकि शिक्षा के समग्र विकास की पहल को अमली जामा पहनाया जा सके।
  • विद्यालयी शिक्षा को समग्र रूप से देखने की ज़रूरत है। विश्वविद्यालयों के विनियमन के लिये विश्वविद्यालय अनुदान आयोग है लेकिन स्कूली शिक्षा के लिये कोई आयोग नहीं है। अतः ऐसे आयोग को अस्तित्व में लाए जाने की ज़रूरत है ताकि बेहतर पॉलिसी बनाई जा सके।

निष्कर्ष


भारत एक विशाल देश है और दुनिया की छठी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था में शामिल है लेकिन विडंबना है कि हम अपनी शिक्षा व्यवस्था को अब भी बेहतर नहीं कर सके हैं। भारत से छात्रों का पलायन निरंतर जारी है इसका सबसे बड़ा कारण शिक्षा की जर्जर स्थिति है। समिति-दर-समिति की रिपोर्ट को ठंडे बस्ते में डाल देना और बड़ी अदालतों के दिशा-निर्देशों को अनसुना कर देना सबसे बड़ी समस्या है। इसके अलावा शिक्षा के व्यवसायीकरण पर रोक न लगा पाना भी हमारी सरकारों की सबसे बड़ी नाकामी मानी जाती है। लिहाजा शिक्षा संबंधी समस्याओं पर गंभीर मंथन की ज़रूरत है।

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